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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 23 सितम्बर, 2020 10:25 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध.

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध..

एक ऐसे समय में जब देश और देश की जनता राष्ट्रवाद (Nationalism) और देशभक्ति को सर्वोपरि रख कर फैसले ले रही हो सियासी दल राष्ट्रवाद के नाम पर राजनीति (Politics) कर रहे हों बॉलीवुड (Bollywood) देश भक्ति को केंद्र में रखकर फिल्मों का निर्माण कर रहा हो उस साहित्य को हरगिज़ नकारा नहीं जा सकता जिसने देश की जनता के बीच असल राष्ट्रवादी भावना का संचार किया. बात राष्ट्रवाद और साहित्य (Litreature) पर चल रही है ऐसे में अगर हम आज की के दिन यानी 23 सिंतबर 1908 में बिहार के सिमरिया में जन्में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh Dinkar) का जिक्र न करें तो राष्ट्रवाद के विषय पर पूरा चिंतन अधूरा रह जाता है. दिनकर की रचनाओं में जैसा शब्दों का सामंजस्य है शायद ही किसी की हस्ती हो कि उसकी आलोचना या फिर उस पर किसी तरह की कोई टिप्पणी कर सके लेकिन फिर भी अगर हम दिनकर के लिखे या ये कहें कि उनकी रचनाओं का अवलोकन करते हैं तो मिलता है कि विषय से लेकर शब्दों तक जैसा सामंजस्य दिनकर ने अपनी रचनाओं में दिखाया विरले ही लोग होते हैं जो इतना प्रभावशाली लिख पाते हैं. बात अगर उस दौर की हो तो मैथलीशरण गुप्त के अलावा ये रामधारी सिंह दिनकर की ही कलम थी जिनसे ऐसा बहुत कुछ लिख दिया जो एक नजीर बन गया. अपनी रचनाओं के जरिये दिनकर ने हमें बताया कि देश क्या होता है? देश से प्यार क्या होता है? साथ ही अपने लिखे से दिनकर ने इस बात की तस्दीख भी की कि एक नागरिक के लिए देश क्यों जरूरी है.

Ramdhari Singh Dinkar, Birthday, Writer, Poet, Poem, Chinaरामधारी सिंह ने अपने लेखन के माध्यम से बताया कि देशभक्ति से लबरेज साहित्य क्या है

जैसा वर्तमान दौर है या फिर आज के समय में जैसा साहित्य है कम ही लेखक हैं जो अपनी रचनाओं में देश और देशप्रेम का जिक्र तो कर रहे हैं मगर सरकार और उसकी नीतियों के खिलाफ बोलने से बच रहे हैं. रामधारी सिंह दिनकर का मामला इससे ठीक उलट था. दिलचस्प बात ये है कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और रामधारी सिंह दिनकर दोनों ही बहुत अच्छे दोस्त थे. वो ये नेहरू ही थे जिन्होंने दिनकर की रचनाओं से प्रेरित होकर उन्हें राष्ट्रकवि का दर्जा दिया मगर जब बात लेखन की आई तो दिनकर ने अपनी कलम के साथ किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं किया और उस साहित्य की रचना की जिसमें देश से प्यार तो था ही साथ ही जिसमें तत्कालीन सरकार और उसकी नीतियों की जमकर आलोचना की गई.

जैसा कि हमने बताया पंडित नेहरू और दिनकर आपस में बहुत अच्छे दोस्त थे मगर जब बात नीतियों की आई तो दिनकर ने किसी तरह का कोई समझौता नहीं किया और उस दोस्ती का पूरा मान रखा जो उनके और नेहरू के बीच थी. व्यक्तिगत संबंधों से इतर दिनकर और नेहरू के संबंधों ने अक्सर ही लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा है. कहा जाता है कि तब उस वक़्त राज्यसभा में भी अपनी कविताओं के माध्यम से दिनकर नेहरू सरकार की नींव हिला दिया करते थे.

नेहरू और दिनकर की दोस्ती में निर्णायक मोड़ तब आया जब भारत और चीन का युध्द हुआ. तब चीन के प्रति जैसा रवैया पीएम नेहरू का था उसने दिनकर को बहुत आहत किया और ये वो समय था जब दिनकर पूरी तरह से नेहरू के खिलाफ हो गए थे. लेकिन ये दिनकर का बड़प्पन ही कहलाएगा कि उन्होंने अपनी बरसों पुरानी दोस्ती का मान रखा और शालीनता बरकरार रखी.

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रभक्ति से लबरेज कविताओं के लिए अपनी विशेष पहचान रखते हैं. ऐसा नहीं था कि केवल दोहरी नीतियों के कारण दिनकर ने नेहरू के खिलाफ मोर्चा खोला. दिनकर ने अपनी रचनाओं से अंग्रेज हुकूमत की भी जम कर ईंट से ईंट बजाई. चाहे वो रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखी उनकी रचना रेणुका हो या फिर मंजुला दिनकर ने अपनी कलम के माध्यम से अंग्रेज हुकूमत की तीखी आलोचना की.

बात हमने भारत चीन युद्ध के समय नेहरू की नीतियों के कारण दिनकर के खफा होने पर की थी. दिनकर की ये नाराजगी हमें उनकी कविता 'परशुराम की परीक्षा' में साफ दिखाई देती है. यदि इस कविता के पहले खंड को देखें तो दिनकर कहते हैं कि

गरदन पर किसका पाप वीर! ढोते हो?

शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो?

उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,

तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;

सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,

निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;

गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,

तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;

शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,

शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;

सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,

प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को

जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,

(अच्छे हैं अब; पहले भी बहुत भले थे.)

हम उसी धर्म की लाश यहां ढोते हैं,

शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं.

वहीं जब हम इस कविता के दूसरे खंड को देखते हैं तो हमें देश के प्रति दिनकर की पीड़ा साफ नजर आती है. इसी कविता के दूसरे खंड में दिनकर ने कहा है कि

हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?

हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?

यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?

दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।

पर, कदम-कदम पर यहां खड़ा पातक है,

हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है.

घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,

लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,

जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,

समझो, उसने ही हमें यहां मारा है.

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,

या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,

उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,

यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है.

चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,

जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,

जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,

या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,

भारत अपने घर में ही हार गया है.

है कौन यहां, कारण जो नहीं विपद् का ?

किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?

जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,

दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है.

नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,

कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में.

यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,

पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है.

ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?

अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।

वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,

जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है.

जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हंसते है;

है जहां खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं.

वीरता जहां पर नहीं, पुण्य का क्षय है,

वीरता जहां पर नहीं, स्वार्थ की जय है.

तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,

लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है.

असि छोड़, भीरु बन जहां धर्म सोता है,

पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है.

तलवारें सोतीं जहां बन्द म्यानों में,

किस्मतें वहां सड़ती है तहखानों में.

बलिवेदी पर बालियां-नथें चढ़ती हैं,

सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं.

पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?

यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?

तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,

है जहां स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा.

जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,

शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा.

हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,

कह दो सब से, अपना दायित्व संभालें.

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,

आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,

सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,

हम यहां रक्त, वे घर में स्वेद बहायें.

हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,

दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो.

हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,

है कौन हमें जीते जो यहां समर में ?

हो जहां कहीं भी अनय, उसे रोको रे !

जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !

जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,

या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;

तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,

निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,

अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा.

एक ऐसे समय में (1962) भारत सरहद पर चीन से मोर्चा ले रहा हो हमें दिनकर की राष्ट्र के प्रति ये बेचैनी इसी कविता के तीसरे खंड में साफ दिखाई देती है. कविता के तीसरे भाग में दिनकर लिखते हैं कि

किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?

किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?

दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;

यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम.

वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,

हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को.

सामने देश माता का भव्य चरण है,

जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,

काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,

पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे.

फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,

भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से.

मांगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी.

लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी.

पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,

दो हवा, देश की आज जरा जलने दो.

जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,

भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;

देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !

असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !

बांहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,

धंस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे.

तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,

हम जहां कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे.

जो असुर, हमें सुर समझ, आज हंसते हैं,

वंचक श्रृगाल भूंकते, सांप डंसते हैं,

कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,

भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे.

गरजो, अम्बर की भरो रणोच्चारों से,

क्रोधान्ध रोर, हांकों से, हुंकारों से.

यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,

मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है.

जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,

मां के किरीट पर ही यह वार हुआ है.

अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,

जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है.

कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,

हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,

अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,

जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे.

गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,

गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,

भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,

गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर.

खंडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,

जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,

कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,

चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—

सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !

नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !

झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,

टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;

विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,

राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;

वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,

टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को.

आजन्मा सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,

आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,

हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,

‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;

साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,

टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।

खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?

अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?

बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?

वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?

जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,

सारी लपटों का रंग लाल होता है.

जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,

शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है.

दिनकर आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन ये उनकी कविताओं की खूबी ही है जिसके चलते आज भी ये रचनाएं देश के युवाओं में नए जोश का संचार करती नजर आती हैं. वो युवा जो वर्तमान परिदृश्य में तमाम चीजों को लेकर परेशान हैं उनके अंदर नया जोश भरने के उद्देश्य सेदिनकर लिखते हैं कि

सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है,

शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं, कांटों में राह बनाते हैं.

मुख से न कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं,

जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं,

शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को.

है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में?

खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पांव उखड़.

मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है.

गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर,

मेंहदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो.

बत्ती जो नहीं जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है.

पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड,

मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार.

जब फूल पिरोये जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं.

वसुधा का नेता कौन हुआ? भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?

अतुलित यश क्रेता कौन हुआ? नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?

जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया.

जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हमें जगाते हैं,

मन को मरोड़ते हैं पल-पल, तन को झँझोरते हैं पल-पल.

सत्पथ की ओर लगाकर ही, जाते हैं हमें जगाकर ही.

वाटिका और वन एक नहीं, आराम और रण एक नहीं.

वर्षा, अंधड़, आतप अखंड, पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड.

वन में प्रसून तो खिलते हैं, बागों में शाल न मिलते हैं.

कंकरियाँ जिनकी सेज सुघर, छाया देता केवल अम्बर,

विपदाएँ दूध पिलाती हैं, लोरी आँधियाँ सुनाती हैं.

जो लाक्षा-गृह में जलते हैं, वे ही शूरमा निकलते हैं.

बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, मेरे किशोर! मेरे ताजा!

जीवन का रस छन जाने दे, तन को पत्थर बन जाने दे.

तू स्वयं तेज भयकारी है, क्या कर सकती चिनगारी है?

उपरोक्त रचनाओं को पढ़कर इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि धन्य है भारत की धरा जहां ऐसे ओजस्वी कवि का जन्म हुआ जिसने अपनी रचनाओं से न सिर्फ देश के लोगों विशेषकर युवाओं में राष्ट्रवाद का संचार किया बल्कि ये भी बताया कि जब उसूलों पर आंच आए तो टकराना जरूरी है फिर चाहे सामने नेहरू से लेकर चीन और अंग्रेजों तक कोई भी हो टकराना बहुत ज़रूरी है.

बात दिनकर की रचनाओं द्वारा सत्ता को चुनौती देने की भी हुई थी. ऐसे में जब हम उनकी उस पंक्ति को देखे जिसमें उन्होंने लिखा है कि

'सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है'

साफ कर देता है कि रामधारी सिंह दिनकर के लेखन का दायरा कितना भव्य और कितना विशाल था. अंत में बस इतना ही कि

“पीकर जिनकी लाल शिखाएं

उगल रही सौ लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी

धरती रही अभी तक डोल,

कलम आज उनकी जय बोल'

राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत ‘वीर रस’ के महान राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की जयंती पर शत्-शत् नमन.

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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