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Updated: 18 मार्च, 2018 12:57 PM
प्रभुनाथ शुक्ल
प्रभुनाथ शुक्ल
 
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भारत की सर्वोच्च अदालत ने दया मृत्यु यानी इच्छा-मृत्यु पर अपना अहम और ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. दुनिया के दूसरे देशों के तरह अब भारत में भी इच्छा मृत्यु को कानूनी मंजूरी मिल सकती है. अदालत ने सरकार से इस विषय पर कानून बनाने को कहा है. भारत में कई सालों से यह लड़ाई लड़ी जा रही थी. फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेशिया यानी इच्छामृत्यु की एक याचिका को संविधान पीठ में भेज दिया था जिसमें ऐसे व्यक्ति की बात की गई थी जो बीमार है और मेडिकल आख्या के मुताबिक उसके बचने की संभावना नहीं थी.

बिहार पटना के निवासी तारकेश्वर सिन्हा ने 2005 में राज्यपाल को याचिका दी कि उनकी पत्नी कंचनदेवी वर्ष 2000 से बेहोश हैं और उन्हें दया मृत्यु देने की अनुमति दी जाए. सर्वोच्च न्यायलय ने इच्छा मृत्यु पर बहुप्रतीक्षित फैसला सुनाया है. मुम्बई की नर्स अरुणा सानबाग की मौत के बाद देश में इसकी मांग तेज हो चली थी. कई संगठन यूथनेशिया यानी निष्क्रिय इच्छामृत्यु पर लंबे समय से सरकार से कानूनी दर्जा देने की मांग करते आ रहे थे. लेकिन सरकार इस पक्ष में नहीं थी.

euthanasia, indiaभारत जैसे धार्मिक मान्यता वाले देश में भी इच्छा मृत्यु को मिली कानूनी मंजूरी

इच्छामृत्यु का मतलब किसी गंभीर और लाइलाज बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को दर्द से मुक्ति दिलाने के लिए डॉक्टर की सहायता से उसके जीवन का अंत करना होता है. इसके लिए ज़हर का इंजेक्शन भी दिया जाता है. लेकिन भारत जैसे सहिष्णु और धार्मिक मान्यता वाले देश में सरकारी स्तर पर इस पर अनुमति नामुमकिन थी, लेकिन अदालत के आदेश के बाद सरकार की राह आसान हो गई है. लेकिन सवाल उठता है कि इच्छा मृत्यु आखिर है क्या.

इच्छा मृत्यु अर्थात यूथनेशिया मूलतः ग्रीक शब्द है. जिसका अर्थ अच्छी मृत्यु का होना है. यूथेनेसिया यानी इच्छा-मृत्यु या मर्सी किलिंग दुनियाभर में बहस मसला बना है. काफी मुल्कों में इसे कानूनी मान्यता मिल गई है. जबकि कई देश इस तरह के कानून बनाए जाने के खिलाफ हैं. उनका मानना है की यह मानवीयता और इंसानी वसूल के खिलाफ है. जिसे हम जिंदगी नहीं दे सकते तो उसे मौत देने का हमें क्या अधिकार है.

दुनिया के सबसे विकसित देश अमेरिका में सक्रिय इच्छा मृत्यु ग़ैर क़ानूनी है. लेकिन वॉशिंगटन और मोंटाना राज्यों में डॉक्टर की सलाह और उसकी मदद से मरने की इजाज़त है. जबकि स्विट्ज़रलैंड में ज़हरीली सुई देकर आत्महत्या करने की इजाज़त है, हालांकि यहां भी इच्छा मृत्यु ग़ैर क़ानूनी है. नीदरलैंड्स में भी डॉक्टरों के हाथों सक्रिय इच्छा मृत्यु और मरीज की मर्ज़ी से दी जाने वाली मृत्यु की अनुमति है. बेल्जियम में 2002 में इच्छा मृत्यु को वैधानिक मान्यता मिल चुकी है. लेकिन ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस और इटली जैसे यूरोपीय देशों सहित दुनिया के ज़्यादातर देशों में इच्छा मृत्यु आज भी ग़ैर-क़ानूनी है. फ़िर भारत जैसे धार्मिक मान्यताओं वाले देश में इच्छा मृत्यु पर कानूनी मान्यता सवाल उठती है.

हालांकि जैन धर्मावलंबियों में संथारा की प्रथा भी इच्छा मृत्यु का ही एक प्रकार कहा जाता है. यह परम्परा बरसों से प्रचलित है. महाभारत के दौरान महान योद्धा भीष्म पितामह को इच्छा-मृत्यु का वरदान हासिल था. उन्होंने शर-शैया पर लेटे रहकर अपनी इच्छा से प्राण त्यागा था. इस तरह के और उदाहरण हैं. वैसे जस्टिस चंद्रचूड ने इस विषय पर अपना मत रखते हुए कहा कि जीवन और मृत्यु को अलग नहीं किया जा सकता है. हर क्षण हमारे शरीर में बदलाव होता है बदलाव एक नियम है. जीवन से मौत को अलग नहीं किया जा सकता मृत्यु जीवन की प्रक्रिया का ही हिस्सा है. लेकिन अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 का इस्तेमाल कर यह फैसला लिया है. जिसमें अदालत ने कहा है कि जीने के अधिकार में गरिमा से मरने का अधिकार भी शामिल है.

इच्छा मृत्यु पर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने फैसला सुनाया. कोर्ट ने लिविंग विल में पैसिव यूथेनेशिया को इजाजत दी है. संविधान पीठ ने इसके लिए सुरक्षा उपायों के लिए गाइडलाइन जारी की है. जिसमें कहा गया है कि अगर किसी व्यक्ति को दया मौत चाहिए तो उसके परिवार या करीबी लोग उच्च न्यायालय जाएंगे. जिसके बाद अदालत के आदेश पर मेडिकल बोर्ड गठित होगा और मेडिकल बोर्ड यह तय करेगा कि सम्बन्धित व्यक्ति को पैसिव यूथेनेशिया यानी इच्छा मृत्यु की ज़रूरत है कि नहीं. अदालत ने कहा है कि यह व्यवस्था कानून बनने तक वैकल्पिक होगी, लेकिन कानून के आने के बाद यह प्रक्रिया उसी पर आधारित होगी. 

हालांकि पांच जजों की संविधान पीठ ने साफ करते हुए कहा कि राइट टू लाइफ यानी जीने के अधिकार में गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार भी शामिल है यह हम नहीं कहते, लेकिन गरिमापूर्ण मृत्यु पीड़ा रहित होनी चाहिए. जीवन और मौत के बीच संघर्ष कर रहे व्यक्ति को इस प्रक्रिया के दौरान कोई पीड़ा नहीं होनी चाहिए. फैसले में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा है कि इच्छामृत्यु के लिए वसीहत मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज हो,  जिसमें दो स्वतंत्र गवाह भी हों और इसका दुरपयोग नहीं होना चाहिए.

हालांकि अदालत ने यह भी सवाल उठाया कि जब सम्मान से जीन के अधिकार को माना जाता है तो फ़िर क्यों न सम्मान के साथ मरने का अधिकार भी माना जाए. कोर्ट ने यह भी सवाल उठाया कि आजकल मध्यम वर्ग में वृद्ध लोगों को बोझ समझा जाता है जिसकी वजह से इच्छाममृत्यु में कई दिक्कते हैं. 

जबकि सरकार  ने इस मुद्दे पर कहा कि इच्छा मृत्यु के सारे पहलुओं पर गौर कर रही है और इस मामले में सुझाव भी मांगे गए हैं. केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में इच्छामृत्यु यानी लिविंग विल का विरोध किया था. लेकिन पैसिव यूथेनेशिया को मंजूर करते हुए कहा कि इसके लिए कुछ सुरक्षा मानकों के साथ ड्राफ्ट बिल तैयार है. सरकार कहा इच्छा मृत्यु जिसमें मरीज कहे कि वो अब मेडिकल स्पोर्ट नहीं चाहता, उसे मंजूर नहीं किया जा सकता. भारत में इच्छा-मृत्यु और दया मृत्यु दोनों ही अवैधानिक कृत्य हैं यह भारतीय दंड विधान यानी आईपीसी की धारा 309 के अंतर्गत आत्महत्या का अपराध है. 

याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण की तरफ से कहा गया कि अगर ऐसी स्थिति आ गई कि व्यक्ति बिना सपोर्ट सिस्टम के नहीं रह सकता तो ऐसे में डॉक्टर की एक टीम का गठन किया जाना चाहिए जो यह तय करे कि क्या बिना कृत्रिम सपोर्ट सिस्टम के वह व्यक्ति बच सकता है या नहीं. उन्होंने अदालत के सामने अपनी बात रखते हुए कहा कि यह उस व्यक्ति का अधिकार है कि वह  कृत्रिम सपोर्ट सिस्टम लेना चाहता हूं या नहीं. लॉ कमीशन में अपनी रिपोर्ट में कहा गया है कि पैसिव इथोनेशिया की इजाजत तो दे सकते हैं लेकिन लिविंग विल की नहीं. 

केरल हाईकोर्ट ने दिसम्बर 2001 में असाध्य रोग से पीड़ित बीके पिल्लई को इच्छा-मृत्यु की अनुमति नहीं दी  क्योंकि भारत में इस तरह का कोई क़ानून नहीं था. इसके अलवा 2005 में काशीपुर उड़ीसा के मोहम्मद युनूस अंसारी ने राष्ट्रपति से अपील की थी कि उनके चार बच्चे असाध्य बीमारी से पीड़ित हैं. उनके इलाज के लिए पैसा नहीं है. इसलिए उन्हें दया मृत्यु की इजाज़त दी जाए. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु को अनुमति प्रदान की है. हम अदालत के फैसले पर सावाल नहीं उठाते लेकिन भारत में इसे कानूनी मान्यता भले मिल जाए लेकिन सामाजिक मान्यता और स्वीकरोक्ति बेहद मुश्किल है. क्योंकि जहां मौत के बाद भी जीव की मुक्ति के लिए वैदिक और धार्मिक क्रियाएं हैं उस समाज में दया मौत की मान्यता कैसे मिल सकती है. जहां अपने शत्रुओं को भी जीवनदान का गौरवशाली इतिहास रहा हो वहां इसे समाजिक तौर पर कैसे स्वीकृति मिल सकती है.

वैसे अदालत का फैसला दूरगामी परिणाम डालेगा, लेकिन यह भी देखना होगा कि मर्सी किलिंग यानी दया या फ़िर इच्छा-मृत्यु की कानूनी आड़ में दूसरे कानूनों की तरह इसका दुरपयोग न होने लगे. अगर ऐसा हुआ तो फिर क्या होगा? फिर तो पूरी मानवीयता कटघरे में खड़ी होगी. 

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