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Updated: 12 सितम्बर, 2015 05:10 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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आज खबर है कि एक माता-पिता ने चार मंजिला इमारत से कूदकर आत्महत्या कर ली क्योंकि वो अपने बच्चे का जीवन न बचा पाने की शर्मिंदगी झेल नहीं पाए. उनके सूसाइड नोट में लिखा था 'इसमें किसी की गलती नहीं, ये हमारा फैसला है. पर उनके ये आखिरी शब्द हम सबके लिए एक सवाल छोड़ गए हैं. सवाल ये कि ये आत्महत्या है या फिर हत्या?

साउथ दिल्ली के लाडो सराय में रहने वाले इस परिवार के सात साल के बच्चे अविनाश को डेंगू हो गया था. माता-पिता दिल्ली के दो बड़े अस्पतालों में बच्चे को भर्ती करने के लिए भाग दौड़ करते रहे लेकिन बच्चे को भर्ती नहीं किया गया, सही समय पर इलाज नहीं मिलने के कारण बच्चे को बचाया नहीं जा सका. पर अगर अस्पताल समय रहते बच्चे को भर्ती कर लेते तो इस परिवार का अस्तित्व यूं खत्म न हुआ होता.

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बच्चे को बचा नहीं पाए

अस्पतालों के इस असंवेदनशीलता का ये पहला मामला नहीं है, इससे पहले भी कई बार ऐसा हुआ जिसका खामियाजा मरीजों और उनके परिवारजनों को उठाना पड़ा है. पर इस बार सिर्फ मरीज ने ही नहीं भुगता बल्कि पूरा परिवार इस असंवेदनशीलता की भेंट चढ़ गया. हमारे देश के अस्पताल मरीजों के प्रति कितनी संवेदनाएं रखते हैं ये तो आए दिन अखबारों और न्यूज़ चैनल्स में पढ़ने और देखने मिलता है. निजी अस्पताल हो या सरकारी सबका एक जैसा रवैया है. अकसर देखा जाता है कि अगर मरीज़ सीरियस होता है तो कोई भी अस्पताल मरीज़ को भर्ती करने से मना कर देता है. क्योंकि रिस्क है. अस्पताल की इमेज का भी तो सवाल है. कई जगह सुविधाएं और बेड की उपलब्धता न होना बताकर मरीज़ का मना कर दिया जाता है. कभी-कभी ये भी देखा जाता है कि अस्पताल में भर्ती की प्रक्रिया के दौरान मरीज को घंटों इंतज़ार करना पड़ता है.

5 सितम्बर को नोएडा के चाचा नेहरू अस्पताल में आठ महीने की एक बच्ची को लाया गया. सांस की बीमारी के कारण बच्ची को भर्ती करने में अस्पताल प्रशासन पहले तो आनाकानी करता रहा, फिर भर्ती किया तो वेंटिलेटर नहीं मिल सका, लिहाजा बच्ची की जान चली गई. 6 जून दिल्ली के नरेला इलाके में एक गर्भवती महिला को अस्पताल लाया गया, परिजन इमरजेंसी में डॉक्टर्स से मिन्नतें करते रहे लेकिन किसी ने उनपर ध्यान नहीं दिया, नतीजा ये हुआ कि दर्द से तड़पती महिला ने ई-रिक्शे में ही बच्ची को जन्म दे दिया. ये तो निजी अस्पतालों के हालात हैं, सरकारी अस्पतालों का तो कहना ही क्या. 2014 में हुआ ये मामला तो सरकारी अस्पतालों की संवेदनशीलता पर सवाल खड़े करता है. मैसूर के ज़िला अस्पताल ने बलात्कार की शिकार हुई 23 वर्षीय मानसिक रूप से विकलांग महिला को तीन घंटों तक नग्न अवस्था में रखा. घंटों बाद उसे चिकित्सा सुविधा दी गई. इतने बड़े अस्पताल में कोई ऐसा नहीं था जिसको उस महिला की हालात पर जरा भी दया आई हो, कोई उसके शरीर को एक कपड़े से ढ़क भी न सका. मध्यप्रदेश के झाबुआ में जिला अस्पताल में एक विकलांग गर्भवती महिला घंटों जमीन पर पड़ी रही. प्रसव पीड़ा के बावजूद उसे भर्ती नहीं किया गया.

कहा जाता है कि डॉक्टर मरीजों के लिए भगवान का रूप होते हैं. जीवन बचाना और उसे सुधारना उनका काम है. मामला अगर किसे के जीवन से जुडा है तो स्वाभाविक है कि इसमें संवेदनाएं और गंभीरता दोनों का ही अपना-अपना महत्व है. लेकिन मरीजों के भगवान, ये जूनियर डॉक्टर अक्सर अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर चले जाते हैं, फिर चाहे किसी मरीज की जान जाए उनकी बला से. उनकी देखादेखी अब मरीजों का ख्याल रखने वाली नर्सें भी करने लगी हैं. पिछले कई दिनों से अत्तराखंड में सरकारी अस्पताल की नर्सें हड़ताल पर हैं जिससे अस्पतालों का काम काज बुरी तरह प्रभावित है. ऐसे में मरीजों की हालत क्या होगी आसानी से समझा जा सकता है.  

अस्पताल जैसी जगह, हर कोई अपनी मर्जी से नहीं जाता बल्कि लाचारी ही उन्हें वहां तक ले जाती है. अस्पतालों में डॉक्टरों के आगे मरीजों के परिजन हाथ जोड़े ही खड़े दिखाई देते हैं, क्योंकि तब वही उनकी उम्मीद होते हैं. ऐसे में अस्पतालों का ये असंवेदनशील रवैया किसी की भी हिम्मत तोड़ने के लिए काफी होता है. अस्पतालों में काम करने वाले लोग, रोज-रोज मरीजों के दुख-तकलीफ देख-देख कर संवेदनहीन होते जाते हैं और एक दिन ऐसा आता है कि उनका दिल किसी के लिए नहीं पसीजता. पर यही एक ऐसी जगह है जहां मरीजों को इलाज और देखभाल के साथ-साथ थोडी सी हमदर्दी की भी ज़रूरत है. आत्मीयता और सहानुभूति भी अगर अस्पतालों में मिलने लगे तो मरीजों को समय पर इलाज भी मिलेगा और मरने वालों की संख्या में भी कमी आएगी.

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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