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Updated: 06 अक्टूबर, 2017 10:41 PM
संजीव चौहान
संजीव चौहान
 
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टिप टॉप मेकअप... होठों पर सुर्ख़ लिपस्टिक... खुले लहराते बाल... महंगी ड्रेस पर जगमगाती चुनरी.... और हाथ में त्रिशूल. मन किया... तो लगी झूमने भक्तों से साथ... मन किया तो उचक कर किसी की भी गोद में विराजमान. यानि एक तरफ़ मां का स्वरूप तो दूसरी तरफ़ बाल सुलभ चंचलता. और सामने सौ तरह की कुंठाओं में घिरा झूमता जनसमूह.

कैसा तिलिस्मी कॉकटेल है ये... आधी राधा... आधी दुर्गा... कभी सखी तो कभी मां... बचना चाहो तो भी बच नहीं पाओगे. इस तरकश में इतने तीर हैं कोई ना कोई तो घायल कर ही जाएगा. फिर इसे नाम चाहे क्यों ना आस्था...श्रद्धा का दिया जाए.... मगर ऐसे बाबा... ऐसी मां... कहीं हमारी कुंठाओं की संतुष्टि का ज़रिया तो नही.

राधे मां, दिल्ली, दिल्ली पुलिस, बाबा जिस तरह से तमाम बाबाओं और देवियों द्वारा धर्म के नाम पर आडम्बर रचा जा रहा है वो गहरी चिंता का विषय है 

हमारा समाज जहां बाप बेटी भाई बहन के रिश्ते तार तार होने में वक़्त नहीं लगता वहां गोद से सजी-धजी महिला के आ जाने पर क्या वाकई बाप बेटी का भाव जागता होगा... कहने वाले कहेंगे कि हां... ऐसा ही है... मगर सच क्या है ये हर कोई जानता है.. हम भी... आप भी.

ये बात दीगर है कि जब नाम में ही मां शब्द जुड़ा हो... तो सभ्यता संस्कृति के दायरे में बंधा इंसान कुछ भी कहने में... या सच कहने में खुद को असहाय पाता है. या शायद वो सच कहना ही नहीं चाहता. क्योंकि धर्म की चाशनी में रचा बचा ये महारास कहां नसीब होता है हमारे यौन कुंठित समाज को.

धर्म के इन नए कारोबारियों और धन कुबरों के बीच भी ग़ज़ब का रिश्ता है. धन कैसे कमाया... कितनों का हक़ मारा... कितने उसूलों की बलि चढ़ाई... इस आत्मविश्लेषण में कौन फंसे... कौन झांके अंतरात्मा में. बस पहुंच जाओ ऐसे किसी अनोखे ठिकाने पर... ये नए आध्यात्मिक गुरू तुम्हारा इह लोक से लेकर परलोक तक... सब सुधार देंगे. मानो ये गुरू ना हुए... पाप धोने की गंगा हो गए. एक डुबकी... और मैली काया चकाचक. क्योंकि तुम्हारे फैलाए सारे ज़हर को पी जाने वाले ये आधुनिक नीलकंठ... तुम्हारे सारे नाजायज़ कर्मों को जायज़ बनाने का ठेका जो लेते हैं. और ये भी एक स्थापित सत्य है कि जहां बाज़ार है... वहां सप्लायर भी पैदा हो जाते हैं.

बहरहाल... हमारा मक़सद ये नहीं कि हम किसी की श्रद्धा या विश्वास पर सवाल उठाएं... मगर हमें ये तो सोचना ही होगा कि कहीं हम अपने-अपने भगवान की तलाश में अपनी धार्मिक संस्कृति को विकृत तो नहीं कर रहे. कहीं हम उन्हीं धार्मिक कुरीतियों को फिर से खाद-पानी तो नहीं दे रहे कि हमें फिर से एक गौतम बुद्ध की ज़रूरत महसूस हो... जो आए और हमें इस तथाकथित आस्था के अंधकार से निकाले.

और उससे भी बड़ी फ़िक्र ये है कि पिछले कुछ अरसे में जिस तरह से थोक के भाव ये तथाकथित रंगबिरंगी आस्था के कारोबारी सामने आए हैं...क्या एक बुद्ध इनके लिए काफ़ी होंगे. और सबसे भी बड़ा सवाल ये... कि ताज़ा सूरते हाल देखते हुए... क्या कोई बुद्ध हमारे बीच आना भी चाहेगा?

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लेखक

संजीव चौहान संजीव चौहान

लेखक आजतक चैनल से जुड़े पत्रकार हैं

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