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Updated: 28 जुलाई, 2017 01:49 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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जानवरों पर कोई अत्याचार हो तो एक संस्था सबसे पहले आकर एक्शन लेती है, वो है पेटा (PETA- People for the Ethical Treatment of Animals). पर आजकल ये संस्था खुद लोगों के निशाने पर आ गई है, वजह जानवर नहीं बल्कि इनके एड कैंपेन्स हैं, जो पूरी तरह से लिंगभेदी या फिर यूं कहें कि स्त्री विरोधी दिखाई देते हैं.

हाल ही में लंदन में विंबलडन टैनिस प्रतियोगिता के दौरान आने वाले लोगों के लिए पेटा की वॉलंटियर्स स्ट्रॉबेरी प्रिंट की बिकनी पहनकर खाने का सामान सर्व कर रही थीं.तब इसे 'सेक्सिस्ट मार्केटिंग टैकनीक' कहा गया, जहां एक उत्पाद को बेचने के लिए महिलाओं के शरीर का इस्तेमाल किया जा रहा था. तभी से पेटा की आलोचनाओं का दौर शुरु हुआ.

peta, शाकाहारी खाने का प्रचार किया जा रहा था

पेटा ने अपने साथ जानेमाने हॉलीवुड और बॉलीवुड सेलिब्रिटीज़ को जोड़ा हुआ है जो उनकी मुहिम में उनके साथ भी हैं और उनके लिए विज्ञापन भी करते हैं. लेकिन पेटा अपने कैंपेन में जिस तरह से जानवरों पर हो रहे अत्याचारों को दिखाने के लिए महिलाओं के शरीर का इस्तेमाल करता आया है वो कोई नई बात नहीं है.

देखिए किस तरह पेटा ने महिलाओं के शरीर को ऑब्जेक्ट यानी वस्तु की तरह इस्तेमाल किया.

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सारे जानवरों में भी ऐसे ही अंग होते हैं, ये दिखाने के लिए न जाने कितनी ही हॉलीवुड सेलिब्रिटीज़ ने नग्न और अर्धनग्न होकर पेटा के लिए पोज़ किया है.

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बॉलीवुड की कई जानीमानी हस्तियां जैसे सेलीना जेटली ने भी पेटा के लिए पोज़ किया. यहां वो हाथियों पर अत्याचार न करने की बात कर रही हैं, लेकिन शरीर दिखा रही हैं अपना.

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वहीं शर्लिन चोपड़ा ये बता रही हैं कि कोड़े और चेन का इस्तेमाल बेडरूम में करें, सर्कस में नहीं.

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सनी लियोन भी इस रेस में पीछे नहीं, वो भी बिना कपड़ों के ये बताने की कोशिश कर रही हैं कि वेजिटेरियन रहकर अपने जीवन को मसालेदार बनाइए.

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खास बात ये कि अपने कैंपेन्स में पेटा जानवरों का इस्तेमाल नहीं करता, बजाए इसके वो महिलाओं को लेना पसंद करता है. यानी महिलाओं के शरीर का इस्तेमाल करने में परहेज नहीं, लेकिन जानवरों पर हो रहे अत्याचार और उनके हितों को पूरा ख्याल रखता है पेटा. ये बात तो वैसे भी गले नहीं उतरती.

यहां सवाल सिर्फ पेटा का ही नहीं, बल्कि तमाम ऐसे प्लैटफॉर्म्स हैं जहां पर बाजार ने अपने प्रोडक्ट्स नहीं बल्कि महिलाओं को दुनिया के सामने परोसा है.

विज्ञापन, बाजार और फैशन इंडस्ट्री ने ऐसी नई तरह की महिला को गढ़ दिया है जो वास्तव में इस संसार में मिलती ही नहीं है. जैसे- उसके चेहरे पर दाग, धब्बे, झुर्रियां नहीं होतीं, शरीर एकदम पर्फेक्ट होता है, रंग गोरा, कसा हुआ बदन, न मोटी, न पतली, चमकती आंखे, तराशे हुए दांत, मतलब इतनी परफेक्ट कि सच ही नहीं लगतीं. और यही महिला सबको चाहिए. ये आपको हर विज्ञापन में देखने मिलेंगी. फोटोशॉप किए हुए ये चमचमाते चेहरे आपको टीवी पर या फिर किसी मैगज़ीन में बड़े आराम से मिल जाएंगे. पर असल जीवन में ढ़ूंढ लीजिए...वहां नहीं दिखेंगे.  

ऐसे-ऐसे प्रोडक्ट्स जिनका महिलाओं से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं होता वहां भी आपको महिलाएं ही दिखाई देती हैं. कोई बाइक या गाड़ी लॉन्च हो तो चमचमाती गाड़ियों के साथ आपको हमेशा ही खूबसूरत मॉडल्स दिखाई देती हैं.

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पुरुषों के लिए बनाई गई बाइक की लॉन्चिंग में महिला मॉडल क्यों दिखाई देती हैं?

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यहां तक कि सेलिब्रिटीज़ भी अगर परफॉर्म करेगा तो उसके आस-पास आपको भड़काऊ कपड़े पहने डान्सर्स दिखाई देंगी. स्पोर्ट्स चीयर लीडर्स को ही ले लीजिए, वहां नाचने वाले मर्द आपको नहीं दिखाई देंगे.

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हमारी टीवी और फिल्म इंडस्ट्री ने भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है महिलाओं को वस्तु की तरह दिखाने में. बल्कि इनसे ज्यादा उपयोग तो महिलाओं का आज तक किसी ने किया ही नहीं है. चाहे आइटम डांस के रूप में, या फिर अश्लील गानों को प्रचारित करने में, यहां सिर्फ महिला के शरीर को ही आगे किया गया है. और हमारे समाज ने उस चटकारे ले लेकर सुना और गाया भी.

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बड़े घातक हैं इसके परिणाम-

और ऐसा नहीं कि बात उन्हें सिर्फ वस्तु बनाने तक सीमित रह गई हो, इसके बाद जो होता है वो और भी ज्यादा भयानक और घातक होता है. अब खेल शुरू होता है समाज का. वो समाज जो महिला रूपी वस्तु को हर जगह देखता आया है, उसके दिमाग में अब ये बैठा दिया गया है कि ये महिलाएं तो सिर्फ वस्तु हैं, जिनका केवल इस्तेमाल किया जा सकता है. उन्हें अपने हिसाब से तोड़ा और मरोड़ा जा सकता है. फिर दुर्गति शुरू होती है उन महिलाओं की जो वास्तव में विज्ञापन की दुनिया से बिलकुल अलग हैं, यानी यथार्थ में हैं.

ये वीडियो इसी बात को बहुत ही सशक्त तरीके से रखने में सफल हुआ है. इसे देखिए और समझिए-

बच्चे इन्हें देखकर क्या सोचते हैं ये भी देखें-

अफसोस होता है कि हमारी सोच सिर्फ कुछ कैंपेन्स और हैशटैग पर आकर खत्म हो जाती है. अफसोस कि #WomenNotObjects कह लेने भर से हमें वस्तु बनाना बंद नहीं किया जाएगा. ऐसे कैंपेन वीडियो देखकर हम थोड़े भावुक भी हो जाते हैं और अंदर तक हिल भी जाते हैं, लेकिन फिर बाजार के साथ ही हो लेते हैं. पर इसपर बहस की गुंजाइश अब भी बाकी है कि आखिर बाजार की इस नाजायज़ मांग को पूरा करने के लिए महिलाएं तैयार ही क्‍यों होती हैं?

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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