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Updated: 01 जुलाई, 2015 07:30 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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दिल का रिश्ता पेट से होकर गुजरता है. पेट भरा रहे तो बाकी तकलीफें ज्यादा मायने नहीं रखतीं. फिर चुनावी वादे और सियासी झगड़े सभी हाशिये पर चले जाते हैं.

देर से ही सही. दिल्ली सरकार को ये बात समझ आई है. वरना, दिल्ली के लोगों को ऐसा लगने लगा था जैसे दिल्ली सरकार को उनकी फिक्र ही नहीं. सरकार तो बस अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग को लेकर जंग लड़ रही है.

कोई सवाल नहीं पूछेगा

दिल्ली में आम आदमी कैंटीन. पहल बहुत अच्छी है. पेट भरा रहेगा तो चैन की नींद आएगी.

पेट कुछ और नहीं सिर्फ पेट होता है. चाहे पेट गरीब का हो, चाहे अमीर का. भूख सबको बराबर लगती है. और तृप्ति भी एक ही जैसी होती है. पेट भरा रहा तो रैन बसेरों की हालत पर भी कोई सवाल नहीं पूछेगा. किसी का उस ओर ध्यान भी नहीं जाएगा कि वाई-फाई कहीं लगा कि नहीं, या जहां लगा वहां काम भी कर रहा है या नहीं.

बस साफ सुथरा मिले

29 जून 2010 को तब की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने जन आहार योजना शुरू की थी. ये योजना कुछ एनजीओ और सेल्फ-हेल्प ग्रुप की मदद से शुरू की गई थी. दिल्ली में अब भी मुख्य अस्पतालों और सरकारी दफ्तरों के बाहर दो दर्जन से ज्यादा जन आहार केंद्र चलते हैं. पहले इन केंद्रों पर 15 रुपये में खाना मिलने की बात थी, लेकिन बाद में बढ़ा दिया गया. फिलहाल यहां 18 रुपये की जन आहार थाली में 6 पूड़ी, दाल और एक सब्जी मिलती है. अगर किसी को रायता चाहिए तो अलग से 5 रुपये देने होते हैं.

आम आदमी कैंटीन में ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर सभी मिलने की बात है - और वो भी 3 से 5 रुपये में. उससे ज्यादा नहीं.

दिल्ली में जगह जगह छोले कुलचे, राजमा राइस, छोले भटूरे पनीर वाले पेटीज... और भी काफी चीजें मिलती हैं. हर कोई अपने पॉकेट के हिसाब से दुकान या ठेले पर पहुंच जाता है. फिर न तो स्वाद की परवाह होती है न गर्म ठंडे की. बस जल्दी से मिल जाए. हर किसी को काम पर जाना है. किसी को दफ्तर जाना है तो किसी को दुकान पर, कोई ऑटोवाला है तो कोई रिक्शा किनारे लगा कर पहुंचा है.

आम आदमी कैंटीन में जो भी मिलेगा, पौष्टिक चाहे जितना भी हो साफ सुथरे की उम्मीद तो की ही जा सकती है.

सियासत नहीं लोकहित जरूरी

मान लेते हैं आम आदमी कैंटीन के अस्तित्व में आने पर जन आहार केंद्र बंद हो जाएंगे. अगर आम आदमी थाली की चीजें जन आहार थाली से बेहतर रहीं तो बंद करने के लिए सरकारी फरमान की भी शायद ही जरूरत पड़े.

तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन का प्रयोग काफी सफल रहा है. इस बार भी सत्ता संभालने के बाद जयललिता ने कई और अम्मा कैंटीन खोलने की घोषणा की. जाहिर है उसी तर्ज पर आम आदमी कैंटीन भी खुलने जा रही है.

दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था ऐसी है कि केजरीवाल सरकार के लिए मंजिल की राह बड़ी मुश्किल हो जाती है. आम आदमी कैंटीन की राह में भी मुश्किलों की कमी नहीं है. कैंटीन भी कहीं कहीं जमीन पर ही खुलेगी - और जमीन डीडीए की है जो केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में है.

वैसे दिल्ली सरकार ने फिलहाल आम आदमी कैंटीन उन्हीं जगहों पर शुरू करने की सोची है जहां उसकी अपनी हुकूमत चलती हो. दिल्ली सरकार अगर लोकहित के हिसाब से रणनीति तैयार करेगी तभी उसे कामयाबी भी मिल सकती है - वरना जो जंग जारी है उसकी हकीकत किसी से छुपी तो है नहीं.

अब पेट तो तभी भरेगा और चैन की नींद भी तभी आएगी जब आम आदमी कैंटीन शुरू हो चले भी. बस कैंटीन दिल्ली की नई जंग की शिकार न हो - क्योंकि ये बिजली, सड़क, पानी, या वाई-फाई नहीं, 'पापी-पेट' का सवाल है.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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