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Updated: 22 अगस्त, 2015 06:07 PM
किश्वर देसाई
किश्वर देसाई
 
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इसे तीव्र इच्छा कहें या फिर थोड़ी देर का पागलपन(वैसे भी जुनून और पागलपन में ज़्यादा फर्क नहीं होता है), पर मैं हमेशा से ही एक विभाजन संग्रहालय बनाना चाहती थी. अराजकता और त्रासदी से गुजरे पीढ़ी के बाकी बच्चों की तरह मैं भी नये देश को जाते और हर तरह की परेशानी झेल रहे उन हज़ारों लोगों की तरह ही बड़ी हुई हूं. विभाजन के बारे में सुनकर और पढ़कर मुझे यकीन हुआ कि 1940 में रहने वाले लोगों जैसे सीधे और भोले लोग कोई हो ही नहीं सकते, आज़ादी के कितने सपने और उम्मीदें थीं..पर कितनी जल्दी वो सब राख हो गए. भारत के दोनों सिरे उस आग में जल रहे थे जिसका क्रोध वर्षों तक रहना था...और कहीं न कहीं ये आग अब भी सुलग रही है. हर रोज हमें इसकी याद दिलाई जाती है.

लेकिन मेरे लिए, इस आग के पीछे असंख्य व्यक्तिगत कहानियां हैं, यहां तक की मेरे खुद के घर की भी. मसलन, मुझे बताया गया था कि कैसे मेरे दादाजी ने विभाजन की घोषणा पर यकीन नहीं किया था. उन्होंने कहा, 'ये नहीं हो सकता, मैंने कभी किसी राष्ट्र को इस तरह रातों रात विभाजित होते नहीं सुना'. परिवार ने लाहौर में अपने घर पर ताला लगा दिया. दंगों से बचने के लिए, वो एक कार से अमृतसर आ गए. पर वो कभी लौट नहीं पाये. उन्होंने अपना सब कुछ खो दिया.

हांलाकि मेरा परिवार कोई अनोखा नहीं था. जब हम नुकसान की बात करते हैं, तब उन अनगिनत लोगों की आखों में देखो जो विभाजन के साक्षी बने थे. वो उसके बारे में बात नहीं करते, लेकिन दर्द, पीड़ा और नुकसान को वो अच्छी तरह जानते हैं.

कुछ लोग कहते हैं कि दिल्ली शरणार्थियों का शहर है. और शायद हर परिवार के अंदर, मेरे परिवार जैसी कोई न कोई कहानी बसी है. बेशक, मुआवजा मिला, लेकिन उससे क्या सब कुछ पहले जैसा हो सकता है?

और इसलिए मेरे दिमाग में एक ऐसे संग्रहालय का ख्याल घर कर गया, जो उन एक करोड़ बीस लाख लोगों को समर्पित हो जो उस पार गये और जो जीवन भर का जख्म लिए हमेशा के लिए खो गये. इन लोगों को सबकुछ फिर से शुरू करने का हौसला कहां से मिला? उनके दिल और दिमाग ने विभाजन को किस तरह स्वीकार किया? वो असल में किस दौर से गुजरे और दोबारा कैसे संभले?

भारत-पाकिस्तान की सीमा पर, एक चौड़ा सफेद रंग का डिवाइडर है, जिसे 'जीरो लाइन' कहते हैं. पाकिस्तान के हालिया दौरे पर, मैं उसपर खड़ी हो गई. हम में से कितनों के अंदर ये जीरो लाइन गहराई तक बस चुकी है, ये एक ऐसी उदासी है जो हमें अपने माता-पिता से विरासत में मिली.

दक्षिण अफ्रीका में प्रेरणादायक रंगभेद संग्रहालय देखने के बाद, मैंने ये जाना कि अपने अंदर की सबसे बुरी चीज का सामना करना संभव है. इसे बाहर निकालने और इसका सामना करने के लिए. इस तरह की घटनाओं से पैदा हई हिंसा और सहानुभूति दोनों को समझने के लिए. फैज अहमद फैज की बेटी सलीमा हाशिमी ने इसे बहुत अच्छी तरह बयां किया है, वो कहती हैं 'इस याद को मिटाने का बस यही रास्ता है कि इसे छोड़ा न जाये' और यही बात विभाजन संग्रहालय के मेरे विचार को और मजबूती देती है. तो क्यों न हम हमारे वास्तविक इतिहास को दबाने की बजाये उसे साझा करें.

इसलिए, मुझे उम्मीद है कि परिवार, दोस्त, समर्थक जो इस बात से पूरी तरह इत्तेफाक रखते हैं उनके सहयोग से हम एक वास्तविक संग्रहालय बनाने में सफल होंगे, जहां हम उन लाखों लोगों की यादें सहेजकर रख सकेंगे जिनके नाम हम आज भूल चुके हैं. विभाजन संग्रहालय एक तरह के 'रूहानी स्थल' की तरह होगा, जैसे देश के अन्य भागों में भी मौजूद हैं. हमें इतिहास और बदले हुए भूगोल के दस्तावेजों पर भी सावधानी बरतनी होगी, यह भी देखना होगा कि कला, साहित्य, सिनेमा और दूसरे मीडिया इससे किस तरह सरोकार रखेंगे...और भी बहुत कुछ.

और हां, वो जो हर चीज में राजनीति ढ़ूंढ़ते हैं, उनके लिए इसमें कुछ भी राजनीतिक नहीं है, कुछ भी नहीं है,(बड़े बड़े शब्दों में). ये विभाजन संग्रहालय की योजना सिर्फ हमारे लिए और हमसे होगी, सिर्फ भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश- तीनों प्रभावित देशों के लोगों के लिए.  

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लेखक

किश्वर देसाई किश्वर देसाई

Author/Columnist, Winner of Costa First Novel Award for Witness the Night. Her 3rd novel The Sea of Innocence is out.

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