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Updated: 13 मई, 2015 01:48 PM
नेहा सिन्हा
नेहा सिन्हा
  @neha.sinha.3363
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मैं अपने सीए मित्र से पीएफ के बारे में फोन पर चर्चा कर रही थी. तभी उन्होंने कहा "इट्स अ क्वेक." उन्होंने क्या कहा, ठीक से मेरी समझ में नहीं आया.मैने जबाव में पूछा "केक."

उन्होंने जोर देते हुए कहा "नो... एन अर्थक्वेक." मैने जल्द ही उन्हें बॉय कहकर फोन डिसक्नेक्ट किया. गुड़गांव की एक हाईराइज में रहने वाले सीए ने मुझे बाद में बताया कि 14वीं मंजिल से ग्राउंड फ्लोर तक आने में उन्हें 15 मिनट का वक्त लग गया था. फोन रखकर मैंने आसपास देखा तो भूकंप साफ महसूस हो रहा था. अब सवाल यह था कि मैं अपने साथ क्या लेकर बाहर निकलूं? मैं अपने पालतू जानवर को बाहर निकलना चाहती थी. मेरा पालतू खरगोश भारीभरकम फर्नीचर के पीछे कहीं छुपा हुआ था. उसे साथ ले जाने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था. लेकिन मैं किसी भी जीवित चीज को घर में छोड़ना नहीं चाहती थी.  

शहर के एक दूसरे हिस्से में रहने वाली मेरी एक अध्यापक मित्र अपने छात्रों और सहकर्मियों के साथ स्कूल के बाहर एक पेड़ के नीचे खड़ी थी. छात्रों ने पांच मिनट में स्कूल की इमारत को खाली कर दिया था. उन्हें भूकंप के दौरान सुरक्षित निकलने का पहले से प्रशिक्षण दिया गया था.

दक्षिणी दिल्ली में रहने वाली मेरी एक दोस्त अपने बच्चे को लेने के लिए रवाना हो गई थी. हर आदमी के लिए अपनी प्राथमिकताएं. हर कोई अपनी कीमती चीज के बिना घर छोड़ना नहीं चाहेगा. शर्लक होम्स ने एक केस का पर्दाफाश करते हुए इस प्रवृत्ति पर रोशनी डाली थी. वे एक कीमती पिक्चर को ढूंढ रहे थे. उसे चुराने वाला आइरीन एडलर जब घिरने गया तो उसकी निगाह अचानक उस ओर गई, जहां उसने वह पिक्चर छुपाई थी. और ऐसा करके उसने होम्स को पिक्चर का सुराग दे दिया. ये हम सबमें छुपी एक सच्चाई है. जब हम खतरे में होते हैं तो उन्हीं की सुनते हैं या उन्हें पकड़ लेते हैं, जिनसे हम सबसे ज्यादा प्यार करते हैं.

वह चीज अलग-अलग हो सकती है; किसी के लिए बच्चा, किसी का पालतू जानवर, मोबाइल चार्जर, शराब की बोतल तक. लेकिन सभी से हम जज्बाती तौर पर बंधे होते हैं. यह मामले निजी होते हैं, शायद इसका कोई सामाजिक प्रभाव नहीं होता.

नेपाल में भूकंप की वजह से हो रहे महाविनाश को देखते हुए भारतीय शहरों में संस्थागत स्तर पर तत्काल कार्रवाई की जरूरत है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने नागरिकों से अपील की है कि "घबराएं नहीं और शांति बनाए रखें." और उन्होंने कहा कि उनके अधिकारी लगातार क्षेत्रों में रहेंगे. हकीकत में ये नाकाफी है. इसके बजाय अधिकारियों पर पूरी तरह भरोसा करके (आपदा प्रबंधन में प्रशिक्षित या अन्यथा) हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि हर व्यक्ति सुरक्षित रूप से बाहर निकलने में सक्षम हो, या उन लोगों की मदद कर सके जो बाहर न निकल सकते हों.

जैसे स्कूली बच्चों को आग और भूकंप से बचने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, वैसे ही राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) को सुनिश्चित करने की जरूरत है कि हर रेजिडेंट वैलफेयर एसोसिएशन (आरडब्लूए) को प्रशिक्षित किया जाए. लोगों को विशेषज्ञ बनाने के लिए हम अगले भूकंप का इंतजार नहीं कर सकते. लकड़ी के घरों वाले एक ठंडे देश यूनाइटेड किंगडम में आग के खतरों को बहुत गंभीरता से लिया जाता है. यहां तक कि हॉस्टल में अस्थायी व्यवस्था के साथ वहां रहने वालों को बाहर निकलने का अभ्यास कराया जाता है. सभी लोग शांति से लेकिन तेजी के साथ इमारत को छोड़ते हैं. उसके बाद दो या तीन पंक्तियां बना ली जाती हैं, जिसमें हर कोई एक दूसरे से समान दूरी पर खड़ा रहता है. इस तरह से इमरजेंसी के दौरान एक लापता व्यक्ति को जल्द ही ढूंढा और बचाया जा सकता है.

गुड़गांव में कांच और स्टील से बने विशाल ऑफिस से बाहर निकलने के लिए 15 मिनट एक लंबा समय है. मुझे मेरे एक दोस्त ने बताया कि सैकड़ों लोग पागलों की तरह इमारत से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे, इस बीच "मैनें एक चूहे की तरह महसूस किया." ऑफिसों में तत्काल बाहर निकलने के लिए कम से कम दो रास्तों और व्यवस्थित निकासी की योजना के बारे में सोचा जाना चाहिए. इसमें रैंप या अतिरिक्त सीढ़ियां बनाना भी शामिल हो सकता है. इमारतों के भीतर अंदरूनी दरवाजों के आस-पास ऐसी सुरक्षित जगह (जहां गिरते मलबे से रक्षा हो सके) होनी चाहिए. भूकंप के लिए संवेदनशील क्षेत्रों में हमें गंभीरता से इमारतों में नियमों को ध्यान में रखकर बदलाव करने के बारे में सोचना चाहिए. खासकर जिन घरों में लोगों की संख्या ज्यादा है. क्या हम हमेशा कैजुअल नहीं रह सकते. हमारी इमारतों और मन में बदलाव और आपदा के बाद तैयारियां करना हमें खतरे में डाल सकता है. आखिर में, हम में से हर कोई क्या हमारे घरों, स्कूलों और कार्यालयों में ऐसी घटना के दौरान किसी दूसरे व्यक्ति के लिए जिम्मेदार हो सकता है?

***

पिछले महीने मैं मध्य प्रदेश के इटारसी जिले के गोंड गांव में थी. यहां ओलावृष्टि हुई थी, पिछले साल की तरह इस साल भी. इलाके में फसलें बर्बाद हो गई थी. मकान भी क्षतिग्रस्त हो गए थे. काला आखर गांव की एक 45 वर्षीय महिला ने मुझे बताया कि "आधा किलो बड़े" ओले के गिरने से उसके पड़ौसी के घर की छत ढह गई. उस परिवार को घर छोड़ना पड़ा. मैंने उस महिला से पूछा कि अगर आप अपना घर छोड़ कर जाओगे तो क्या साथ ले जाओगे? उसने पलक झपकाए बिना जवाब दिया "मेरी कढ़ाई."

हम सभी कढ़ाई, फोटो, पैसा, फोटो आईडी, टार्च, बच्चों या सेलफोन आदि आवश्यकताओं के रूप में जो कुछ भी साथ ले जाना चाहते हों, उसके लिए बेहतर योजना बनाने की जरूरत है. अब वक्त आ गया है कि एनडीएमए, मुख्यमंत्रियों, नगर पालिकाओं और परिवारों को एक साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है. हर व्यक्ति को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए और हमें तैयार रहना चाहिए.

और आखिर में, प्रार्थना मदद करती है, लेकिन तैयारियां भी.

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लेखक

नेहा सिन्हा नेहा सिन्हा @neha.sinha.3363

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यावरण शिक्षा विभाग में गेस्ट फैकल्टी हैं

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