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Updated: 05 नवम्बर, 2017 06:00 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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साहित्य को लेकर चर्चा का कोई निश्चित दायरा नहीं है. आप लोगों से मिलिए इस पर उनके अलग मत होंगे. कुछ लोगों का मानना होगा कि अच्छा साहित्य तब निकालता है जब पेट भरा हो, सुख सुविधाओं के बीच जीवन चल रहा हो, अच्छे पब्लिशर मिलें, रचना पर लोगों की वाह-वाह मिले. वहीं कुछ ऐसे भी होंगे जिनका भिन्न मत होगा. ऐसे लोगों का मानना है कि अच्छा साहित्य वो है जब लेखक वाह-वाह के लिए नहीं बल्कि उन चीजों पर लिखे जो उसके पास हैं. ऐसे लोगों का मानना है कि अच्छी रचना के लिए ये बेहद ज़रूरी है कि लेखक चीजों को अनुभव करे और परिस्थितियों का लुत्फ़ लेते हुए लिखे.

भूत से लेकर वर्तमान तक और वर्तमान की पगडंडियों पर चल भविष्य में जाते हुए हमें कई साहित्यकार और कवि मिलें हैं मगर शायद ही कोई साहित्यकार या कवि ऐसा हो जो बाबा नागार्जुन जैसा हो, जो उनको छू पाए. सभ्य समाज और राजनीति के मुंह पर आज भी बाबा की कविताएं करारा तमाचा हैं. हां वो बाबा नागार्जुन जिनकी आज पुण्यतिथि है. हिन्दी, मैथिली, बांग्ला, संस्कृत के अप्रतिम लेखक बाबा नागार्जुन उन चुनिंदा रचनाकारों में हैं जिनके द्वारा रचित रचनाओं का दायरा बड़ा विस्तृत है.

बाबा नागार्जुन, कविता, साहित्य   बाबा नागार्जुन की कविताओं को देखकर कहा जा सकता है वो तब जितना प्रासंगिक था उतना ही आज भी है

जहां एक तरफ इन्होंने राजनीति पर पैनी नजर रखी तो वहीं इन्होंने अपने आस पास के बिन्दुओं को उठाया और उन्हें अपनी रचना के धागे में पिरोया. बाबा लिखते हैं कि 'जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है, भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है' या फिर 'बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के, सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के' इन दोनों ही रचनाओं से साफ है कि हम उनकी कही बातों को हरगिज़ हल्के में नहीं ले सकते.

बात अगर बाबा नागार्जुन की कविताओं पर हो तो चाहे अपने बच्चों को दूध पिलाती मादा सूअर पर बाबा ये कहना हो कि, 'धूप में पसरकर लेटी है/ मोटी - तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर... जमना किनारे, मखमली दूबों पर/ पूस की गुनगुनी धूप में/ पसरकर लेटी है/ यह भी तो मादरे हिंद की बेटी है/ भरे - पूरे बारह थनोंवाली ! लेकिन अभी इस वक़्त/ छौनों को पिला रही है दूध/ मन - मिजाज ठीक है/ कर रही है आराम/ अखरती नहीं है भरे - पूरे थनों की खींच - तान/ दुधमुहें छौनों की रग - रग में/ मचल रही है आख़िर माँ की ही तो जान ! जमना किनारे/ मखमली दूबों पर पसरकर लेटी है/ यह भी तो मादरे हिंद की बेटी है ! पैने दाँतोंवाली' हो या फिर पेड़ में लटकता कटहल उन्होंने सब पर लिखा. और इस तरह लिखा जिसे शायद ही कोई कवि कभी सोच पाए. इस बात को समझने के लिए आपको बाबा नागार्जुन की उस कविता को समझना होगा जब वो आसमान में बादल देख रहे थे. नागार्जुन लिखते हैं कि 'छोटे-छोटे मोती जैसे, उसके शीतल तुहिन कणों को, मानसरोवर के उन स्वर्णिम, कमलों पर गिरते देखा है, बादलों को घिरते देखा है'.'

नागार्जुन की एक और खासियत थी वो उन कुछ एक कवियों में हैं, जो अपनी कविताओं से एक पाठक के लिए चुनौती पेश करते हैं. बाबा नागार्जुन की रचनाओं में सबसे अहम पक्ष ये थे कि भले ही वो साहित्य मर्मज्ञों के लिए अपनी कविताओं के जरिए चुनौती पेश करते हों, लेकिन खुद साहित्य में नहीं जीते थे. इस बात को आप मंत्र कविता से बेहतर ढंग से समझ पाएंगे. इस कविता के लिए बाबा ने को चुना है. बाबा ने ॐ पर लिखा है कि 'ॐ स‌ब कुछ, स‌ब कुछ, स‌ब कुछ ॐ कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं' ये पंक्तियां ये बताने के लिए काफी हैं कि, बाबा ईश्वर में आस्था तो रखते थे मगर कभी उसके पीछे लाठी लेकर भागे नहीं.

बाबा नागार्जुन, कविता, साहित्य   बाबा नागार्जुन की रचनाएं आम आदमी की रचनाएं हैं

एक कवि कैसा होना चाहिए यदि आपको ये समझना है तो फिर बाबा की उस पंक्ति पर नजर डालिए जो कालजयी है.जहां कवि की योग्यता बताते हुए बाबा ने कहा कि, ‘जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊं जनकवि हूं साफ कहूंगा. क्यों हकलाऊं’. 

बाबा का व्यंग्य ही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी और व्यंग्य आसान नहीं है. कहा जाता है कि बाबा को इस दिशा में महारथ हासिल थी. व्यंग्य का इससे अच्छा स्वरुप क्या होगा कि जब कोई आपसे मिलने आए तो आप मेहमान का स्वागत व्यंग्य से करिए. स्वागत और व्यंग्य पर भी बाबा से सम्बंधित एक प्रसंग जुड़ा है. कहते हैं कि जब आजादी के बाद ब्रिटेन की महारानी अपने भारत के दौरे पर आई तो उनके स्वागत में बाबा ने एक कविता लिखी थी जिसमें उन्होंने तब के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर निशाना साधा था. बाबा ने कहा था कि 'रानी आओ हम ढोयेंगे पालकी / यही हुई है राय जवाहर लाल की./ रफू करेंगे फटे पुराने जाल की / आओ रानी हम ढोएंगे पालकी’बाबा नागार्जुन को एक कड़वा कवि माना जा सकता है. आपातकाल के वक्त उन्होंने इंदिरा गांधी को संबोधित करते हुए लिखा था कि 'इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको? तार दिया बेटे को, बोर दिया बाप को' इन पंक्तियों को पढ़िये तो आपको मिलेगा कि इन पंक्तियों के जरिये एक कवि अपनी प्रधानमंत्री पर नेहरू की विचारधारा, सपने से हट जाने का आरोप लगा रहा है.  

इसमें कोई संदेह नहीं कि बाबा नागार्जुन की कवितों का मूल स्वर जनतांत्रिक है, जिसे उन्होंने लोक संस्कार, मानवीय पीड़ा और करुणा से लगातार सींचा है. वे ऐसे कवि थे जो अपने स्वरों को खेतों-खलिहानों, किसानों–मजदूरों तक ले गए हैं. जिसने उनके दर्द को जिया और उसे कागज पर उकेरा. बाबा अपनी रचनाओं से बार बार हम पर चोट करते दिखे. उन्होंने बार- बार हमारी मरी हुई संवेदना को जगाने का प्रयास किया. एक रचना में उन्होंने लिखा है कि 'वे लोहा पीट रहे हैं / तुम मन को पीट रहे हो... वे हुलसित हैं / अपने ही फसलों में डूब गए हैं / तुम हुलसित हो / चितकबरी चांदनियों में खोए हो.... उनको दुख है नए आम की मंजरियों को पाला मार गया है / तुमको दुख है काव्य संकलन दीमक चाट गए हैं.'

बाबा नागार्जुन, कविता, साहित्य   एक कवि एक लिए ये बेहद ज़रूरी होता है कि पहले वो उन मुद्दों को देखे जो उसके परिवेश से जुड़े हों

तो वहीं इसके विपरीत उन्होंने प्राकृतिक आपदा को ध्यान में रखकर उनका कहना कि, कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास. कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास/ कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त. कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त/  दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद. धुआं उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद/ चमक उठी घर-घर की आंखें कई दिनों के बाद. कौवे ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद. ये साफ दर्शाता है कि उनमें वो आंख थी जो वो देख पाई जिसे हमारी आंखों ने कभी देखा ही नहीं.  

आजकल प्रश्नों से सबको परेशानी है इसपर भी बाबा ने क्या खूब कहा है. प्रश्न करने वालों पर बाबा कहते हैं कि, 'रोज़ी-रोटी, हक की बातें, जो भी मुहं पे लायेगा, कोई भी हो, निश्चित ही वो एक कम्युनिस्ट कहलायेगा.'

बहरहाल, बाबा की शख्सियत कैसी थी अगर हमें ये समझना हो तो हमें वो कविता ज़रूर पढ़नी चाहिए जहां यमराज एक प्रेत से सवाल कर रहे हैं. कविता कुछ यूं है कि "ओ रे प्रेत -" कडककर बोले नरक के मालिक यमराज/ -"सच - सच बतला ! कैसे मरा तू ? भूख से , अकाल से ? बुखार कालाजार से ? पेचिस बदहजमी , प्लेग महामारी से ? कैसे मरा तू , सच -सच बतला !"/ खड़ खड़ खड़ खड़ हड़ हड़ हड़ हड़/ काँपा कुछ हाड़ों का मानवीय ढाँचा/ नचाकर लंबे चमचों - सा/ पंचगुरा हाथ/   रूखी - पतली किट - किट आवाज़ में /  प्रेत ने जवाब दिया - " महाराज ! / सच - सच कहूँगा, झूठ नहीं बोलूँगा/  नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के  पूर्णिया जिला है , सूबा बिहार के सिवान पर/  थाना धमदाहा ,बस्ती रुपउली/ जाति का कायस्थ / उमर कुछ अधिक पचपन साल की/  पेशा से प्राइमरी स्कूल का मास्टर था/ -"किन्तु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका/ ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको/  सावधान महाराज , नाम नहीं लीजिएगा / हमारे समक्ष फिर कभी भूख का !!" / निकल गया भाप आवेग का/   तदनंतर शांत - स्तंभित स्वर में प्रेत बोला - / "जहाँ तक मेरा अपना सम्बन्ध है / सुनिए महाराज ,तनिक भी पीर नहीं/  दुःख नहीं , दुविधा नहीं/  सरलतापूर्वक निकले थे प्राण /  सह न सकी आँत जब पेचिश का हमला .." सुनकर दहाड़ / स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के / भुखमरे स्वाभिमानी सुशिक्षक प्रेत की/ रह गए निरूत्तर  महामहिम नर्केश्वर"

अंत में इतना ही कि हम अपने आस पास, अपने अगल  बगल बहुत सारी चीजों को देखते हैं और उन्हें नकारते या नजरअंदाज करते हुए निकल जाते हैं मगर एक कवि ऐसा नहीं कर पाता वो भी तब जब वो बाबा नागार्जुन जैसा कवि हो, जिसने आम आदमी के बीच बैठकर उनकी पीढ़ा को महसूस किया हो और उनकी व्यथा को जिया हो और फिर उसे अपनी कलम को माध्यम बनाकर कागज पे उकेरा हो. आज बाबा नागार्जुन उन लोगों के मुंह पर करारा तमाचा हैं जो सिर्फ वाह वाही या फिर इनाम पाने के उद्देश्य से लिखते हैं और बाजारवाद की मोह- माया से घिरे हैं.  

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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