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Updated: 09 फरवरी, 2016 08:04 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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गुजरात हाईकोर्ट का मानना है कि यदि कोई पुरुष खुले में पेशाब करता है, तो इससे किसी महिला के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचती. हालांकि ऐसा करना असभ्य जरूर है. यदि कोर्ट के अनुसार यह असभ्य है तो भी महिलाएं सड़कों के किनारे ये असभ्यता होते हुए अक्सर देखती हैं या ऐसा करने के लिए मजबूर हैं. भले ही इससे उनका सम्मान बना रहे या नहीं.

वो एक चाय बेचने वाली महिला थी जिसे किसी आदमी को अपनी दुकान के पास पेशाब करना अच्छा नहीं लगा. न तो ये सफाई की दृष्टी से उचित था और न ही शिष्टता थी. उसने खुद को अपमानित महूसूस किया और एक व्यक्ति के खिलाफ खुले में पेशाब कर अपमान करने का मामला दर्ज कराया. कोर्ट ने मामला खारिज करते हुए कह दिया कि खुले में पेशाब करना एक असभ्य हरकत है, इमजेंसी में भी खुले में या सार्वजनिक जगह पर पेशाब करना गलत है लेकिन इससे किसी का कोई नुकसान नहीं पहुंचता है और न इससे किसी महिला के सम्मान को आघात पहुंचता है.

महिलाओं का क्या?

इमरजेंसी होने पर पुरुष तो भी सड़के के किनारे पेशाब कर लेते हैं, लेकिन महिलाएं.. उनके लिए तो सरकार ने कभी सोचा ही नहीं. सरकार को समझना चाहिए कि बस अड्डे और रेलवे स्टेशन के अलावा भी महिलाएं बाहर निकलती हैं, जहां सुविधा के नाम पर कोई स्थान नहीं होता. अपनी पत्नी के साथ बाहर जाते पुरुष भी कई बार पत्नी के लिए टॉयलेट ढ़ूंढते नजर आते हैं. लेकिन शर्त लगा लीजिए कोई मिल जाए तो. रिलायंस के पेट्रोल पंप पर ये सुविधा जरूर है. जहां ज्यादातर लोग सिर्फ इसीलिए जाते हैं कि उनकी महिला साथी को वहां एक सही स्थान उपलब्ध हो जाता है. पर हर जगह तो ये संभव नहीं है. पब्लिक टॉयलेट्स हैं नहीं और महिलाएं पुरुषों की तरह सड़के के किनारे पेशाब नहीं कर सकतीं. लिहाजा कई बार तो बाहर आते जाते इमजेंसी में महिलाओं को अन्जान घर का दरवाजा तक खटखटाना पड़ता है. ये सुरक्षा की दृष्टी से कितना खतरनाक हो सकता है अंदाजा लगाया जा सकता है.

अभी पिछले ही दिनों एक सोशल एक्सपेरिमेंट किया गया. जिसमें एक महिला को सड़के के किनारे पेशाब करते दिखाया गया. उस पर पुरुषों की जो प्रतिक्रियाएं आईं वो बेहद शर्मनाक थीं. देखिए वीडियो-

छोटा शहर हो या महानगर कोई भी जगह ऐसी नहीं है जहां लोग पेड़ के नीचे, झाड़ियों में या फिर सड़क के किनारे खड़े न दिखाई दें. ऐसे ही लोगों से निपटने के लिए मुंबई के एक एनजीओ ने अभियान छेड़ा. वो एक पानी का टैंकर लेकर सड़कों पर निकलते थे और सड़के के किनारे पेशाब करने वालों पर पानी की तेज धार छोड़ते थे. उनका कहना था you stop, we stop. पर इस तरह की योजनाएं कुछ समय तक ही चल पाती हैं. जब तक उसे सपोर्ट करने के लिए सरकार हाथ नहीं बढ़ाती, ये आइडिया काम नहीं आते. 

एक महिला की याचिका पर भले ही सरकार ये कह दे कि सड़कों पर पेशाब करना अशोभनीय है और इससे किसी को नुक्सान नहीं होता और किसी महिला का सम्मान तो बिल्कुल भी आहत नहीं होता. चाय बेचने वाली वो महिला अकेली नहीं जिसके सम्मान को ठेस लगी, यहां हर महिला का सम्मान हर रोज कुचला जाता है. लेकिन क्या अपने सम्मान के लिए हमने कभी आवाज उठाई है. तो यहां बस इतना ही कहना है कि अब आवाज सिर्फ एक नहीं आनी चाहिए, अब आवाज देश के हर कोने से आनी चाहिए.

ये महिलाओं के नहीं, पुरुषों और सरकार के सम्‍मान की बात है

मोदी सरकार ने दो साल से स्‍वच्‍छ भारत अभियान चलाया हुआ है. ताजा आंकड़ा ये है कि इस अभियान के तहत देश में करीब डेढ़ करोड़ शौचालय बनाए गए हैं. लेकिन जो एक अहम कसर बाकी रह गई है, वो है शहरों और कस्‍बों में सार्वजनिक शौचालय की. बड़े शॉपिंग मॉल या सरकारी इमारतों में सुविधाघरों का इंत‍जाम तो होता है, लेकिन इसके अलावा वे कहां हैं किसी को पता नहीं. देश के पुरुषों ने इस अव्‍यवस्‍था में अपनी व्‍यवस्‍था बना ली कि जहां भी उन्‍हें सुविधाजनक महसूस होगा, वे निवृत्‍त हो लेंगे. भले ही देखने वालों(महिलाओं) को ये अच्‍छा लगे या न लगे.

यानी पुरुषों को इस अव्‍यवस्‍था से कोई शिकायत नहीं है. जब कोई शिकायत ही नहीं है तो सरकार पहल क्‍यों करने लगी. अब जबकि एक महिला ने इसके खिलाफ आवाज उठाई है तो कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया है. लेकिन कोर्ट के इस मुकदमे को खारिज कर देने से मामला खारिज नहीं हो जाता.

ये मामला अब सरकार के पाले में आ जाता है. पुरुष हो या महिला, उनका खुले में पेशाब करना या यूं कहें कि इसके लिए सुविधाघरों का इंतजाम न होना भी सरकार या स्‍थानीय निकायों की असफलता है.

लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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