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Updated: 25 मई, 2021 04:15 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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60 के दशक को याद कीजिये नहीं तो फिर घर के बड़े बूढ़ों से पूछिए बताएंगे कि उस वक़्त देश में चेचक के लिए टीकाकरण (वैक्सीनशन) किया जा रहा था. शहरों का तो फिर भी ठीक था गांवों में स्थिति जटिल थी. जैसे ही दल बल के साथ स्वास्थ्य विभाग की टीम आती कहा जाता छपहरा आ गया है. अब जोर जबर कर छापा लगाकर ही जाएगा. लोग वैक्सीन लगवा लें ये अधिकारियों के लिए एक चुनौतीपूर्ण काम था. दौर चाहे 1960 का रहा हो या फिर 2021 भारत में किसी भी महामारी के दौरान वैक्सीनेशन किस हद तक संबंधित अधिकारियों के लिए सिर दर्द होता है गर जो इस बात को समझना हो तो यूपी के बाराबंकी का रुख कर लीजिए जहां एक गांव में वैक्सीन को जहर समझने वाले लोग खौफ़ के चलते नदी में कूद गए. बाद में अफसरों की मान मनव्वल के बाद स्थिति नियंत्रित हुई और 14 ग्रामीणों का वैक्सीनशन हुआ. मामला भले ही हैरत में डालता हो लेकिन इसे देखकर इतना क्लियर हो गया है कि तकनीक और संसाधनों के बावजूद हम में से अधिकांश ऐसे मानसिक जाहिल हैं जो सहूलियतों पर चलते हैं. जब सहूलियत इधर उधर होती है तो हम सही को गलत और गलत को सही कहने से बिलकुल भी नहीं चूकते.

Coronavirus, Covid 19, Corona Vaccine, Vaccine, UP, Barabanki, Fear, Riverवैक्सीन के डर के नाम पर लोगों का नदी में कूदना कोई नयी बात नहीं है पहले भी ऐसा ही होता था

क्या था मामला

मामले के तार याब रोज़ किसी न किसी कारण से चर्चा में रहने वाले यूपी से जुड़े हैं. घटना बाराबंकी की है. यूपी के अधिकांश शहरों की तरह कोविड वैक्सीनेशन को लेकर खौफ़ यूपी के बाराबंकी में भी है जहां वैक्सीनेशन करने आई टीम को देखकर गांव वाले कुछ इस हद तक घबराए कि वैक्सीन लगवाने के बजाए उन्होंने सरयू नदी में कूदना कहीं ज्यादा कारगर समझा.

बाराबंकी की रामनगर तहसील के एक गांव में स्वास्थ्य विभाग की टीम कोविड वैक्सीनेशन के लिए आई थी वैक्सीन के डर से ग्रामीण गांव खाली कर परिवार सहित पास की सरयू नदी के किनारे चले गए. जब स्वास्थ विभाग की टीम नदी किनारे जाने लगी तो उन्हें आते देख महिलाएं और पुरुष समेत सभी लोगों ने नदी में छलांग लगा दी और घंटो नदी में बैठे रहे.

गांव वालों को डर था कि उन्हें जहर का इंजेक्शन दे दिया जाएगा. जैसे ही गांवों वालों का ये कारनामा जिला प्रशासन के पास पहुंचा क्या छोटे क्या बड़े सभी अधिकारियों में हड़कंप मच गया. आनन फानन में एसडीएम राजीव शुक्ला मौके पर पहुंचे और उन्होंने गांव वालों की मान मनव्वल की और 14 गांव वाले वैक्सीन लगवाने के लिए तैयार हुए.

बताया जा रहा है कि टीके के खौफ से नदी किनारे छिपे गांववालों को जहां एक तरफ कोविड का भूत डरा रहा था तो वहीं उन्हें ये भी अंदेशा था कि जो लोग टीका लगाने आए हैं कहीं वो बीमारी भगाने के नाम पर जहर देकर पूरे गांव का खात्मा न कर दें

स्थिति नियंत्रण में आने के बाद स्वास्थ्य विभाग ने की गांववालों की तारीफ

मामले में गांव वाले बुरी तरह डरे हुए थे जिन्हें एसडीएम ने आश्वासन दिलाया तब जाकर स्थिति नियंत्रित हुई और स्वस्थ्य विभाग ने गांव वालों की जमकर तारीफ की. ड्यूटी देने आए स्वास्थ्य विभाग के अफसरों के मुताबिक लोग अभियान का समर्थन कर रहे हैं और कोरोना के लिए खुद का परीक्षण कराने आ रहे हैं. स्वास्थ्य विभाग के अनुसार गांव में उपस्थित टीम एक दिन में एक गांव से 60 के आस पास नमूने एकत्र कर रही है.

वैक्सीनेशन को लेकर हव्वा कोई नई बात थोड़े ही है.

भले ही बाराबंकी के मामले में हैप्पी एंडिंग हो गयी हो और गांव वाले कोरोना का टीका लगाने के लिए राजी हो गए हों मगर ये एंडिंग हर बार हैप्पी हो ये जरूरी नहीं. कहीं बहुत दूर क्या ही जाना चाहे वो इंदौर और भोपाल रहे हों या फिर हैदराबाद और कानपुर 2020 में हम ऐसे तमाम मामले देख चुके हैं जहां कोविड टेस्टिंग के दौरान बात कुछ इस हद तक बढ़ी की नौबत पथराव और पुलिस की आ गयी और कई लोगों पर मुकदमे हुए.

वहीं हमें वो दौर भी याद रखना चाहिए जब देश में पोलियो को दूर करने के लिए सरकार ने कमर कसी थी. देश के इतिहास में तमाम ऐसे मामले दर्ज हैं जहां पोलियो का टीका लगाने/ ड्राप पिलाने आई टीम की घेराबंदी की गई और उन्हें लोगों ने अपने अपने इलाकों से खदेड़ा.

छपहरा आता और जोर जबरदस्ती से छापा लगा देता...

जैसा कि हम शुरुआत में ही 60 के दशक का जिक्र कर चुके थे और बता चुके थे कि तब देश में चेचक ने एक महामारी का रूप ले लिया था. स्थिति हाथ से निकल न जाए इसलिए तत्कालीन सरकार भी गंभीर हुई और पूरे देश में चेचक का टीका लगाने के लिए स्वास्थ्य विभाग की टीमों को भेजा गया. क्या गांव वाले और क्या छोटे शहर में रहने वाले लोग. इन सभी के बीच चेचक का टीका लगाने वाले लोग छपहरा के नाम से मशहूर हुए.

पूछियेगा पुराने लोगों से. आज भी पुराने लोगों के जहन में चेचक के टीकाकरण से जुड़ी एक से एक यादें हैं. लोग बताएंगे कि कैसे उस दौर में हुए टीकाकरण से जुड़ी कहानियों की भरमार उनके पास है. तमाम ऐसे किस्से हैं जिनमें तब जब भी कभी चेचक का टीका लगाने स्वास्थ्य विभाग की टीम किसी छोटे शहर या गांव से गुजरती थी लोग उन स्थानों या ये कहें कि उन कमरों में घुस जाते जहां घरों का राशन रखा रहता. इन जगहों पर छुपे हुए लोगों को पकड़ा जाता वो चींखते चिल्लाते और उनको डांट डपटकर टीका लगा दिया जाता.

आखिर लोगों के खौफ की क्या वजह थी?

सबसे बड़ा सवाल कि आखिर लोग तब टीकाकरण से डरते क्यों थे? क्यों ऐसा होता था कि जैसे ही स्वास्थय विभाग की तरफ से कोई आता लोग दुबक जाते? जवाब है दर्द और ज़िंदगी भर का निशान. अगर आप आज भी घर के किसी पुराने सदस्य से उस टीकाकरण की बात करेंगे तो जवाब यही आएगा कि वो बड़ा कष्टकारी होता था. साथ ही जो उसका प्रोसेस होता था उसमें उस स्थान पर जहां टीका लगता एक निशान पड़ जाता था.

पहले ये टीके हाथों में लगाए जाते जिसके परिणामस्वरूप हाथों पर बड़े बड़े निशान पड़ जाते. तब उस दौर में इस टीके से सबसे ज्यादा परेशानी लड़कियों को होती थी और वो कुरूपता का शिकार होतीं. दिलचस्प बात ये है कि लोगों की इस परेशानी को स्वास्थ्य विभाग ने भी समझा और बाद में ये टीके हाथ की जगह कूल्हों पर लगाए जाने लगे ताकि निशान दिखे नहीं.

इन तमाम बातों के बाद साफ है कि चाहे वो 1960 का समय रहा हो या फिर मई 2021 किसी भी महामारी से बचाने वाले टीकों पर हमारा दृष्टिकोण हमेशा समान ही रहा है. हम बहुत पहले से टीकाकरण का विरोध और उनपर हो हल्ला मचाते आए हैं जिसे शायद हम भविष्य में भी जारी रखेंगे.

खैर भविष्य किसी ने देखा नहीं है तो उसपर किसी तरह की कोई बात अभी जल्दबाजी है. लेकिन जिस तरह वर्तमान में बाराबंकी और दीगर जगहों पर कोविड टीकाकरण का न केवल विरोध हो रहा है बल्कि खौफ के चक्कर में अतरंगी हरकतें की जा रही हैं जिन्हें देखकर महसूस होता है कि इंसान विकासशील से विकसित क्यों न हो जाए लेकिन जो आदतें रहती हैं वो शायद ही जाती हैं.

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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