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Updated: 27 अप्रिल, 2021 09:45 PM
प्रीति 'अज्ञात'
प्रीति 'अज्ञात'
  @preetiagyaatj
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जैसे ही नए ऑक्सीजन प्लांट लगने और उसकी आपूर्ति के समाचार आने शुरू हुए, भक्त लहालोट होने लगे हैं और उन्होंने 'मोहैतोमुहै' कहकर अपनी खींसे निपोरना शुरू कर दिया है. हां, हर बार की तरह इस बार भी वे भूल जाना चाहते हैं कि ये रायता माननीय का ही फैलाया हुआ है और अब वे उसे समेटने में लगे हैं. पर क्या करें? दरअसल गलती उनकी नहीं बल्कि 'सिस्टम' की है.

सरकारी आंकड़ों का काला सच इससे भी पता चलता है कि जिन मरीज़ों की मृत्यु अस्पताल में हुई, बस उन्हें ही गिना जा रहा है. यानी यदि आप अस्पताल की देहरी पर बैठ इलाज़ के इंतज़ार में, एम्बुलेंस में या घर में इस बीमारी के चलते मृत्युलोक सिधार जाते हैं तो आप कोरोना के शिकार नहीं माने जाएंगे. परिजनों को ये मान लेना होगा कि आप हृदयाघात से मरे, मस्तिष्क रक्तस्राव (ब्रेन हेमरेज) से मरे या क्या पता, आत्महत्या ही कर ली हो.

Coronavirus, Covid 19, Disease, Narendra Modi, Prime Minister, Health, Central Governmentऑक्सीजन को लेकर जैसे हालात हैं पूरे देश में अफरा तफरी का माहौल है

मैं ये तो नहीं कहूंगी कि घर में बैठने की सलाह इसलिए ही दी जा रही है कि आंकड़े कम शर्मनाक हों और हम दुनिया को मुंह दिखाने के क़ाबिल रह सकें लेकिन इतना जरूर कहूंगी कि सतर्क रहिए क्योंकि आपदा प्रबंधन के नए पैमाने गड़े जा चुके हैं.

आवश्यकता से अधिक उत्सव प्रेमी

कोरोना ने जब इस देश में प्रवेश किया था तो थाली, ताली और मोमबत्ती के आयोजन किये गए, जिसमें हम सभी ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. साथ ही 'आपदा में अवसर' का सूत्र भी थमा दिया गया था. जिसे पहली लहर में मरीजों के अंग निकालकर बेचने, उनके गहने लूटने और दूसरी लहर में दवा और इंजेक्शन की कालाबाज़ारी ने एक शर्मिंदगी भरे जुमले में बदल दिया है. अब यह वाक्य नकारात्मक समाचार के साथ जुड़ चुका है.

जब महामारी का असर कम होने लगा तो ये नहीं देखा कि बाकी देशों में दूसरी लहर का आगमन हो चुका है. यहां कोरोना को हराकर विश्व गुरु बनने का ताज पहना जाने लगा, वैक्सीन बनने की खुशियां मनाई जाने लगीं और इस गंभीर तथ्य को भूल गए कि हम कोरोनमुक्त देश तब बनेंगे जब 135 करोड़ भारतीयों को ये टीका लग जाएगा.

लेकिन चुनाव की जल्दबाज़ी और विजेता के मद में, न तो टेस्टिंग बढ़ाने पर जोर दिया गया और न ही अन्य चिकित्सकीय व्यवस्थाओं को प्राथमिकता!

वैसे तो अपुनिच भगवान है

जहां श्रेय लूटने की बात आती है, सरकार छाती ठोक 'हमने किया, हमने किया' का गीत गाने लगती है.

मानो, वैसे तो ये काम किसी और का रहा होगा लेकिन हाय रे हमारा सौभाग्य! कि इन्होंने कर दिखाया. लोग तो इस खुशी में ही बावले हुए फिरते हैं. जनता नतमस्तक हो जाती है कि प्रभु!

हम पर आपके द्वारा ये जो एहसान कर दिया गया है, उससे उऋण कैसे होंगे! भैया, ओ भैया! आपको काम करने के लिए ही बेहद विश्वास और बहुमत के साथ चुना गया है. तो जब नाकामी हाथ लगे तो इसका ठीकरा 'सिस्टम' पर मत फोड़ो! क्योंकि ये 'सिस्टम' आपके कहे पर ही चलता आ रहा है.

जरूरत से सौ गुना अधिक मीडिया प्रबंधन

सारे चैनल दिन-रात किसकी बंसी बजा रहे, अब ये कोई राज की बात रह नहीं गई है. कभी-कभार आत्मा धिक्कारे, तो सच बोलने की कोशिश भी करते हैं पर उनकी टर्मिनोलॉजी बदल जाती है. अब माननीय का नाम बदलकर 'सिस्टम' कर दिया जाता है. वैसे अन्य संदर्भों में सिस्टम वो शय है जिसे नेहरू जी ने खराब कर रखा है.

बेचारा, मजबूर 'सिस्टम', स्तुतिगान का पक्षधर है और इस संगीत का भरपूर आनंद लेता है पर उसका दिल बड़ा नाजुक है जी! इसलिए सुर बदलते देख संबंधित विषय की पोस्ट पर प्रतिबंध लगा देता है. बोले तो, 'न रहेगा बांस.. न बजेगी बांसुरी'.

तभी तो, जब हालात बिगड़ने लगे और दुनिया भर में थू-थू होने लगी तो ऑक्सीजन पहुंचाने का ऑर्डर देने से पहले सोशल मीडिया पर कोरोना से सम्बंधित पोस्ट करने वालों पर कार्यवाही करने का ऑर्डर आ गया. अपने आलोचकों का मुंह बंद करने का यही एकमात्र खिसियाना और बचकाना तरीका रह गया है.

हालांकि ये यूपी वाले बाबूजी के ठोकने और गाड़ी पलटाने के तरीके से कहीं बेहतर और अहिंसक है. अब भई, इतनी तारीफ़ तो करनी ही पड़ेगी. काश! ऐसे ही आपदा प्रबंधन भी कर लिया होता.

जनता की नब्ज़ पर तो हाथ रखा पर दिल टटोलना भूल गए!

वो जनता जो शिक्षा और रोज़गार की बात करती थी, जो भ्रष्टाचार और गरीबी से मुक्ति चाहती थी, जिसने अव्यवस्थाओं के आगे घुटने टेक दिए थे और 2014 से अपनी आंखों में तमाम सपने भर एक बदलाव की अपेक्षा करने लगी थी, उस जनता की आंखें मूंद दी गईं. उन्हें देशभक्त और देशद्रोही की शिक्षा दी गई. आपस में भिड़ाया गया.

फिर एक जगमगाते मंदिर की नींव रख ये यक़ीन दिलाया गया कि तुम यही तो चाहते थे. राष्ट्रवादी जनता फिर दीवानी हो उठी. आज वही जनता रोते-बिलखते हुए अस्पताल की मांग करती है, चरमराई चिकित्सा व्यवस्था को देख दिन रात तड़पती है पर शिकायत करे भी तो किस मुंह से? हमने अस्पताल कब मांगे? मंदिर ही तो मांगा था, सो मिल गया.

हां, आप इसे भारतीयों की आस्था से न जोड़ लीजिएगा, यहां बात केवल और केवल प्राथमिकता की है 'अयोध्या की तो झांकी है/ मथुरा, काशी बाकी है' कहने वालों से मुझे कोई आपत्ति नहीं, न ही राम मंदिर या लौह पुरुष की भव्य मूर्ति से. ये हमारे देश और संस्कृति की पहचान हैं लेकिन अगली बार जब चुनाव हों तो भले ही यही लोग सत्ता में रहें पर आप उनसे अपना हक़ जरूर मांगना.

अच्छे अस्पताल और शिक्षा की बात जरूर करना और ये भी याद दिलाना न भूलना कि जीवन चाहे कितना भी कठोर क्यों न हो, पर इस सिस्टम के हाथों ऐसी निर्दयी मौत कभी न हो.

मसीहा बनने का चस्का

'मोहैतोमुहै' का नारा यूं ही नहीं बना है. अच्छी खासी रेसिपी है इसकी. पहले किसी समस्या को इतना बढ़ने दो कि देश में त्राहिमाम मच जाए. फिर 'अंधेरी रातों में, सुनसान राहों पर... एक मसीहा निकलता है' की धुन पर इठलाते हुए ठीक 8 बजे टीवी पर अवतरित हो जाओ. फिर एक ऐसी बात कह दो कि जनता स्वयं को धन्य महसूस करने लगे और सारे गिले शिकवे भूल जाए.

ये ठीक ऐसा ही ही है कि 99 लोगों को मरने दो और 100 वें का नंबर आते ही हीरो स्टाइल में एंट्री लो और उसे बचा लो. फिर बचाने के महान उपकार का वर्णन कुछ इस तरह करो कि जनता अपने भाग्य को सराहने लगे. और जो ये प्रश्न पूछे कि उन 99 मौतों का हिसाब कौन देगा? तो उसे देशद्रोही कहकर अपमानित करने के लिए आईटी सेल पहले से ही चाक-चौबंद है. प्रजातंत्र का ऐसा अपमान पहले कभी नहीं देखा.

कथनी और करनी में अंतर

आप गमछा बांधकर टीवी पर तो खूब आए और बहुत ज्ञान भी बांटा लेकिन अफ़सोस कि स्वयं उसे अपनाने में बुरी तरह से विफल हुए. 'दो गज की दूरी, मास्क जरूरी और सोशल डिस्टेंसिंग' का ब्रह्मवाक्य, बंगाल चुनाव की किसी भी रैली में आपके मुखमंडल से एक बार भी उच्चरित नहीं हुआ. क्योंकि आपको तो ठसाठस भरी भीड़ को देखने का सुख लेना था, उनकी तालियों की गड़गड़ाहट से अपनी छाती को और चौड़ाना था.

आप हों या आपके बाल सखा, सभी अहंकारी मुस्कान लिए, बिना मास्क लोगों के बीच घूमते रहे. उस समय ऐसा लग रहा था जैसे आप किसी कोरोना मुक्त ग्रह पर विचरण कर रहे हों. हां, ये बात अलग है कि वहां के आंकड़े जब आएंगे तो सारा ठीकरा दीदी के सर फोड़ दिया जाएगा.

'छोड़ो दो गज की दूरी, अब चुनाव है जरूरी' के व्यवहार ने ये भी बता दिया कि आपने देश हित से ऊपर स्वयं को रखा. यही नहीं बल्कि इसके साथ-साथ कुंभ में लाखों लोगों को एकत्रित कर जनता की आस्थाओं को भी सहलाते रहे. जनता ने पहले लॉक डाउन में आपके कहे अनुसार सब किया तो अब वो आपको यूं भीड़ में बोलता देख स्वयं भीड़ बनने से क्योँ सकुचाए?

'आत्मनिर्भर भारत' अब जुमला कम, श्राप अधिक लगता है!

मात्र कोविड महामारी ने ही हम भारतीयों को दुख नहीं दिया बल्कि कई परिवारों ने उस दर्द को भी सहा है जिसका एहसास उनकी आने वाली पीढ़ियों तक शेष रहेगा. ये लोग पहले एम्बुलेंस की तलाश में दर-दर भटके, फिर अस्पताल की देहरियों पर माथा टेका, उसके बाद बेड की तलाश में नाक रगड़ते रहे, फिर दवाई और ऑक्सीजन सिलिन्डर के लिए गिड़गिड़ाए.

कुछ ऐसे अभागे भी रहे जो सारी पूंजी खर्च करने के बाद भी किसी अपने की अर्थी लिए, श्मशान की प्रतीक्षा पंक्ति में टोकन लिए खड़े हो खून के आंसू बहाते रहे. 'आत्मनिर्भर भारत' के ऐसे अश्लील रूप की कभी कल्पना तक न की थी हमने.

हम वाकई इस सिस्टम से हार चुके हैं!

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लेखक

प्रीति 'अज्ञात' प्रीति 'अज्ञात' @preetiagyaatj

लेखिका समसामयिक विषयों पर टिप्‍पणी करती हैं. उनकी दो किताबें 'मध्यांतर' और 'दोपहर की धूप में' प्रकाशित हो चुकी हैं.

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