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Updated: 08 जून, 2016 06:17 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
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फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ को लेकर जो महाभारत छिड़ी हुई है, थमती नहीं दिख रही. अभिषेक चौबे के निर्देशन में बनी यह फिल्म’ 17 जून को रिलीज होनी है. सेंसरबोर्ड ने इसके 89 सीन कट करने और फिल्म से पंजाब शब्द हटाने को कहा है. इस आदेश के बाद फिल्म के निर्माता अनुराग कश्यप ने तो सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी की तुलना उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन से कर दी है. लेकिन, जिस नैतिकता का हवाला देकर पहलाज निहलानी सेंसरशिप की बात कर रहे हैं, उन्होंने खुद कभी उसका पालन किया?

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पंजाब में नशे के बढ़ते कारोबार पर आधारित है 'उड़ता पंजाब'. सेंसरबोर्ड ने इसके 89 सीन पर कैंची चलाई है और फिल्म से पंजाब शब्द हटाने को कहा है. 

सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष बनने के बाद, पहलाज निहलानी के व्यक्तित्व में जो परिवर्तन आया है, वो वाकई काबिले तारीफ है. आजकल पहलाज हमारे देश की संस्कृति के रक्षक बन गए हैं, उन्हें वास्तव में ख्याल है कि भारतीय दर्शकों को फिल्मों के माध्यम से कुछ भी ऐसा न दिखाया जाए जो हमारी संस्कृति के खिलाफ हो. कुछ अश्लील नहीं होना चाहिए, सब कुछ फिल्टर हो. सब बेकार ही आपके पद को दोष दे रहे हैं, लेकिन आपकी भावनाओं को हम समझते हैं, वो क्या है कि इस इस उम्र में अक्सर लोग मोह माया छोड़, आध्यात्मिक हो जाते हैं. 'भक्ति' में लीन हो जाते हैं. वो बात और है कि आपने अपने जमाने में अश्लीलता फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

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1993 में गोविंदा और शिल्पा शिरोडकर को लेकर फिल्म 'आखें' बनाई थी आपने, उसका गाना ‘अंगना में बाबा दुवारे पे मां, कैसे आएं गोरी हम तोहरे घर मा’, के बोल तो क्या डांस भी वाकई कमाल है. हां, परिवार के साथ नहीं देख सकते तो क्या..

1994 में  अनिल कपूर और जूही चावला को साथ लेकर फिल्म 'अंदाज' बनाई, जिसका एक द्वि्अर्थी गाना 'खड़ा है, खड़ा है' निहायती वाहियात था.

अब अश्लीलता खुल कर की जाए या फिर गानों के माध्यम से, उसका एकमात्र उद्देश्य तो दर्शकों का मनोरंजन करना ही है. और निहलानी साहब तो मनोरंजन के नाम पर इस तरह की अश्लीलता परोसते रहे हैं. लेकिन देखिए तब के सेंसर बोर्ड अध्यक्ष ने अगर आपकी इस अश्लीलता पर कैंची चलाई होती तो शायद आप भी बौखला रहे होते. लेकिन बीस साल पहले का सेंसर बोर्ड शायद आपसे ज्यादा खुले विचारों का था.

समाज ने अब तक बर्दाश्त किया है

कहते हैं फिल्में समाज का आईना होती हैं, सेंसर बोर्ड ने भी अब तक समाज का हर रूप दर्शकों को दिखाने में निर्माता निर्देशकों का साथ दिया है. 'उड़ता पंजाब' भी एक राज्य का कड़वा सच है, जिसे लोगों के सामने लाने की कोशिश की जा रही है, तो इसमें सेंसर बोर्ड को भला आपत्ति क्यों? क्या पंजाब का नाम हटाने मात्र से, ड्रग्स में डूब रहा पंजाब इस नशे से उबर जाएगा?

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पहलाज निहलानी को लगता है कि पेड़ों के इर्द-गिर्द नाच गा रहे हीरो हीरोइन ही दर्शकों के मनोरंजन का एकमात्र सहारा हैं, भारत के दर्शक सच बर्दाश्त नहीं कर सकते, लेकिन आज का दर्शक आपकी फिल्मों और इस तरह के गानों को देख देखकर काफी मैच्योर हो गया है. इसलिए अब इस तरह के बेबुनियाद कारण देकर फिल्मों पर कैंची चलाना इरिटेट करता है. सच छुपाने की नियत से 'उड़ता पंजाब' जैसी फिल्मों पर लगा एक एक कट हमें कई साल पीछे ले जाएगा. खाने में नमक, मिर्च और खटास से ही खाना स्वादिष्ट बनता है. लेकिन निहलानी साहब सिर्फ मीठा ही खिलाना चाहते हैं.

'ए' सर्टिफिकेट का झुनझुना देकर 'क्या कूल हैं हम' और 'मस्तीजादे' जैसी फिल्मों को दर्शकों के सामने रखा दिया जाता है, जब हम ये वाहियात कॉमेडी बर्दाश्त कर सकते हैं तो सच बर्दाश्त करना कितना मुश्किल है. ऐसा ही एक झुनझुना 'उड़ता पंजाब' को दीजिए और खत्म कीजिए मामला. 

लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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