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Updated: 31 अक्टूबर, 2022 06:44 PM
Mohit Dwivedi
  @tmpianmohit
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अमृता प्रीतम का नाम सुनते ही, अमृता साहिर व इमरोज़ की प्रेम कहानी तुरंत सामने आ जाती है. लेकिन अमृता इन सब से कहीं आगे एक ऐसी शख्सियत थीं जिन्होंने त्याग, दुःख, पीड़ा ,इश्क बहुत ही नज़दीक से महसूस किया है. कहा जाता है जिस जमाने में पंजाब पहलवानी और जिहालत से जूझ रहा था उस वक़्त अमृता ने लड़कियों को पंख खोल कर आसमान में उड़ने का हौसला दिया. एक सच्चा इंसान ही एक सच्चा लेखक हो सकता है और इस वाक्य को सार्थक करती है अमृता की लेखनी. आप अमृता को जितना पढेंगे उतना ही ज्यादा अमृता के सोच और साहित्य की गहराई में समातें जायेंगे.

Amrita Pritam, Imroz, Sahir Ludhianvi, Writer, Literature, Language, Hindi, Punjabiएक है अमृता कनाटक के जरिये कुछ इस तरह याद किया गया अमृता प्रीतम को

अमृता प्रीतम ने रसीदी टिकट में अपनी ज़िंदगी के बारे में लिखा है, 'यूं तो मेरे भीतर की औरत सदा मेरे भीतर के लेखक से सदा दूसरे स्थान पर रही है. कई बार यहां तक कि मैं अपने भीतर की औरत का अपने आपको ध्यान दिलाती रही हूं. सिर्फ़ लेखक का रूप सदा इतना उजागर होता है कि मेरी अपनी आंखों को भी अपनी पहचान उसी में मिलती है. पर ज़िंदगी में तीन वक़्त ऐसे आए हैं, जब मैंने अपने अंदर की सिर्फ़ औरत को जी भर कर देखा है. उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अंदर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया. वहां उस वक़्त थोड़ी सी भी ख़ाली जगह नहीं थी, जो उसकी याद दिलाती.

यह याद केवल अब कर सकती हूं, वर्षों की दूरी पर खड़ी होकर. पहला वक़्त तब देखा था जब मेरी उम्र पच्चीस वर्ष की थी. मेरे कोई बच्चा नहीं था और मुझे प्राय: एक बच्चे का स्वप्न आया करता था. जब मैं जाग जाती थी. मैं वैसी की वैसी ही होती थी, सूनी, वीरान और अकेली. एक सिर्फ़ औरत, जो अगर मां नहीं बन सकती थी तो जीना नहीं चाहती थी. और जब मैंने अपनी कोख से आए बच्चे को देख लिया तो मेरे भीतर की निरोल औरत उसे देखती रह गई.

दूसरी बार ऐसा ही समय मैंने तब देखा था, जब एक दिन साहिर आया था, उसे हल्का सा बुख़ार चढ़ा हुआ था. उसके गले में दर्द था, सांस खिंचा-खिंचा था. उस दिन उसके गले और छाती पर मैंने विक्स मली थी. कितनी ही देर मलती रही थी, और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खड़े-खड़े मैं पोरों से, उंगलियों से और हथेली से उसकी छाती को हौले-हौले मलते हुए सारी उम्र ग़ुजार सकती हूं. मेरे अंदर की सिर्फ़ औरत को उस समय दुनिया के किसी काग़ज़ क़लम की आवश्यकता नहीं थी.

और तीसरी बार यह सिर्फ़ औरत मैंने तब देखी थी, जब अपने स्टूडियो में बैठे हुए इमरोज़ ने अपना पतला-सा ब्रश अपने काग़ज़ के ऊपर से उठाकर उसे एक बार लाल रंग में डुबोया था और फिर उठकर उस ब्रश से मेरे माथे पर बिंदी लगा दी थी. मेरे भीतर की इस सिर्फ़ औरत की सिर्फ़ लेखक से कोई अदावत नहीं. उसने आप ही उसके पीछे, उसकी ओट में खड़े होना स्वीकार कर लिया है. अपने बदन को अपनी आंखों से चुराते हुए, और शायद अपनी आंखों से भी, और जब तक तीन बार उसने अगली जगह पर आना चाहा था, मेरे भीतर के सिर्फ़ लेखक ने पीछे हटकर उसके लिए जगह ख़ाली कर दी थी.'

पंजाबी के लेखक बलवंत गार्गी ने अमृता का रेखा चित्र लिखा तो उसमें अमृता से लाहौर में हुई आख़िरी मुलाकात का जिक्र किया है. जब शहर में बढ़ रही हिंसा के बारे में बता कर बलवंत गार्गी ने अमृता से कहीं जाने के बारे में पूछा तो जवाब मिला, 'मैं लाहौर छोड़ कर नहीं जाऊंगी. लाहौर के साथ मेरी बहुत सी यादें जुड़ी हैं. यहां की गलियों के मोड़, अनारकली, रावी, लॉरेंस बाग़ से मुझे प्यार है. लाहौर छोड़ कर मैं नहीं जाऊंगी.'

इसके बाद बलवंत गार्गी की अमृता प्रीतम से अगली मुलाक़ात देहरादून में हुई. अचानक पहुंचे बलवंत गार्गी को अमृता प्रीतम ने 'अज्ज आखां वारिस शाह नूं' सुनाई. बलवंत गार्गी लिखते हैं, 'वह कविता पढ़ रही थी. कविता में उभरते चित्रों की परछाइयां उसके चेहरे पर थीं. ...प्यार के मुंह पर नफरत के दाग़ थे. मज़हब के मुंह से कौन ख़ून धोएगा?'

अमृता ने अपनी जिंदगी में मौत को बहुत करीब से देखा था और उन्हें मौत भी बेहद आरामदायक मिली थी शायद. 31 अक्टूबर 2005 को अमृता नींद में ही चल बसी थीं.लेकिन उनके मौत के बाद दिल्ली के जिस घर में रहतीं थी उस घर को बेच दिया गया वो हमेशा अपने घर में एक लाइब्रेरी और म्यूजियम बनाना चाहतीं थीं जहां उनकी किताबें और उनसे जुडी वस्तुएं रखीं जा सकें.

कहते है अगर प्यार इंसान की शक्ल लेता तो उसका चेहरा अमृता प्रीतम के जैसा होता एक है अमृता उसी प्यार की बात करता है. यह नाटक अमृता प्रीतम के बचपन की गलियों से होते हुए बांकपन में झांकते हुए उम्र के ऐसे पड़ाव पर पहुंचती है जहां अमृता ने अपना जिस्म छोड़ कर रूह साहित्य के हवाले करदी. एक ऐसी रूह जिसकी चादर ओढ़ कर अगर सोया जाए तो आने वाली नींद और ख्वाब उससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता.

यह नाटक अमृता की ज़िंदगी के अहम पहलुओं को छूता है. उनके हर महत्वपूर्ण समयकाल को छूता है जैसे साहिर से उनकी मुलाक़ात. तकसीम का दर्द जो उन्होंने 1947 में महसूस किया, या फिर 1960 जब उन्हें अवसाद ने घेर लिया था. अमृता प्रीतम की इमरोज़ से दोस्ती और उनका एक साथ रहना. एक है अमृता में अमृता का साहित्य जगत में क्या दर्जा है यह बताने की कोशिश की गई है. उनका यह सफरनामा उनकी किताब रसीदी टिकट लिए गए हैं.

इस नाटक का मंचन बीते दिनों बुंदेलखंड लिट्रेचर फेस्टिवल में 14 अक्टूबर को , बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी के सभागार में हुआ, जिसके निर्देशक मोहित द्विवेदी जी थे और कार्यक्रम में अमृता प्रीतम का किरदार निभाया पल्लवी महाजन जी ने, अक्शा वहीं अमृता प्रीतम की बेटी व अमृता जी के बचपने के किरदार में नज़र आईं. साहिर लुधियानवी के किरदार में अनस खान व सूत्रधार और अमृता प्रीतम जी के पिता का किरदार अंशुल ने निभाया, नाटक में एक नृत्य व नाट्य प्रस्तुति भी संजोयी गई जो कि आज अख्खा वारिश शाह नूं नज़्म पर शिफाली शर्मा द्वारा दी गई जिसने की दर्शकों को भाव विभोर करने पर मजबूर किया . वहीं इमरोज़ के किरदार में निर्देशक मोहित उनके मज़ाकिया अंदाज़ व अमृता के प्रति समर्पण को उजागर किया.

नाटक के निर्देशक मोहित का मानना है कि अमृता प्रीतम के जीवन के अनछुए पहलुओं में बहुत से फ़लसफ़े छुपे हुए है जिन्हें दर्शकों तक पहुंचाना है. 'मैं तेनु फिर मिलांगी' से इस नाटक को दर्शकों के हवाले कर दिया गया कि वो अमृता का कितना हिस्सा अपने साथ घर ले जाएंगे. इमरोज़ कहते थे 'उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं' अमृता प्रीतम की रूह हमारे साथ है और उसी रूह को दिखाने का यह एक सफ़ल प्रयत्न रहा.

इस नाटक की सराहना वहां मौजूद अतिथि, जैसे कि आरिफ़ शहडोली जी, गीतिका वेदिका जी व अन्य ने भी किया. आज 31 अक्टूबर को अमृता प्रीतम जी की पुण्यतिथि है और आज भी ऐसा लगता है मानों वह हमारे बीच ही मौजूद हैं अपने किस्से, कविताओं व अपने प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के साथ, उन्ही के शब्दों में कहें तो

जहां भी आज़ाद रूह की झलक पड़े

समझना वो मेरा घर है.

लेखक

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