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Updated: 20 जुलाई, 2015 08:37 PM
कमलेश सिंह
कमलेश सिंह
  @kamksingh
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अच्छे दिन कब आएंगे? बड़ा मजा देता है ये सवाल. बीजेपी वाले बतियाने से कतराते हैं. विपक्षी मजे ले ले के पूछते हैं. कई महकती शामों को चहकाता है ये सवाल. लोग चबेना चबाते चबाते पूछ जाते हैं और महफिल ठहाकों से गूंज जाती है. अच्छे दिन कब आएंगे? एक समाचारपत्र ने अमित शाह के जबान से कहलवा दिया कि पच्चीस साल में. कॉलमनिगारों ने दनादन अपने विचार दागे. विपक्षवाले तो भारतीय जुमला पार्टी पर चढ़ बैठे कि पांच का वादा और पच्चीस का इरादा. अमित शाह ने कहा कि हमने ऐसा कुछ कहा ही नहीं. हम तो भारत के विश्वगुरू हो जाने का टाइमलाइन बता रहे थे. अखबार ने खेद प्रकाशित किया. पर भारतीय जुमला पार्टी के चरित्र का छेद भी प्रकाशित हो गया. मोदीजी ने वादा किया था पांच सालों में. जनताजी ने वादा निभाया. मोदीजी क्या निभा पाएंगे? ये अच्छे दिन कब आएंगे?

मेरे अंदाज़े से कम-अज़-कम 100 साल लगेंगे. मैं तो जीते-जी नहीं देख पाऊंगा, आप भी नहीं. पर आशावान होने में बुराई क्या है. अच्छे दिन क्या होते हैं? अगर नहीं तो फिर हम जिनसे गुजर रहे हैं वो बुरे दिन हैं क्या? ये कब आए? कुछ लोग विकसित पश्चिमी देशों की ओर इशारा करते हैं, हमसे उनकी तुलना करते हैं. जब पश्चिम के लोग नंग-धड़ंग या खाल पहने बिलबिलाते थे, तब भारत सभ्यता की गोद में खिलखिलाता था. जब पश्चिम कौए मारकर खाता था, भारत सोने की चिड़िया कहलाता था. हज़ारों साल के विसभ्यीकरण के बाद हम यहां पहुंचे हैं. 21वीं सदी में घुस गए, जब कि समाज का बड़ा तबका सोलहवीं से बाहर निकलने को राजी नहीं.

सरकारें या पार्टियां या नेता अच्छे दिन नहीं लाते. जनता लाती है. नागरिक लाते हैं. राष्ट्र लाता हैं. राष्ट्र क्या है? नागरिकों का समूह है. देश वैसा होता है जैसे हम समूह में होते हैं. समूह में हम कैसे होते हैं आपको तो मालूम ही है. भीड़ होते हैं हम. सड़क जाम कर देते हैं. कभी चाह कर, कभी अनचाहे. अकेले में एक से एक दिग्गज. सचिन जैसा क्रिकेटर पर क्रिकेट पर नजर डालिए. अभी अभी दो बेहतरीन टीमों को आईपीएल से बाहर करना पड़ा क्योंकि महान खिलाड़ियों के पीछे खेल के शव से सड़ांध आ रही थी. जिसने आईपीएल बनाया वो लंदन में बैठा ट्वीट कर रहा है. प्रवर्तन निदेशालय उसे ढूंढ रहा है, वह निदेशालय को. पर ये लेख क्रिकेट के बारे में नहीं है. यह हमारे बारे में है, जब हम साथ-साथ होते हैं.

एक नदी में डुबकी लगाने हजारों आते हैं. 27 वापस नहीं आते. भगदड़ में हमारे पैरों तले आ जाते हैं. क्योंकि पंक्ति में हो जाना हमारे नेचर में नहीं है. जब तक डंडे या रस्सी से लाइन ना लगवाएंगे, भारतीय लाइन में खड़े नहीं होंगे. हम सब जंजीर के अमिताभ बच्चन हैं अगर जेरे जंजीर न हों. हेलमेट पहनते हैं मजबूरी में. अपनी सुरक्षा के लिए सीटबेल्ट नहीं पहनते, फाइन से बचने के लिए पहनते हैं. लंबा चक्कर ना पड़े तो हम उल्टी दिशा में हाइवे तक पर गाड़ी दौड़ा देते हैं. दूसरों को मुसीबत हो, जान पर आफत हो पर नहीं, नियमों का पालन तब तक नहीं करेंगे जब तक कोई डंडा लेकर करवाए ना. जिन शहरों में ट्रैफिक लाइट की इज्जत है अभी, वहां भी खड़े पुलिसवालों को हटा लीजिए और देखिए इस महान मुल्क की महान जनता को. गैरत नाम की रग नहीं और मेरा भारत महान.
निर्भया के लिए भीड़ उग्र हुई तो सरकार तक हिल गई, अन्ना के साथ अनशन पर बैठी तो रायसीना चाक हो गया. पर वही भीड़ निर्भया को चादर तक नहीं दे रहा था जब वह अधमरी अर्धनग्न ठिठुरी पड़ी थी सड़क किनारे. तमाशबीन चालीस मिनट तक उसे निहारते रहे या एक दूसरे का मुंह कि कोई पहल करे.

हमारी सड़कें, हमारे बाजार महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं क्योंकि जब तक अपनी मां-बहन ना हो तो हम दूसरों के मामले में दखल नहीं देते. लड़कियों को छेड़ते छिछोरों की हरकतों से खून खौलता है पर मुंह कुछ नहीं बोलता है. इसलिए सरेबाजार एक मीनाक्षी को चाकू से गोद देते हैं दो भाई, और पचासों मूकदर्शक बने रहते हैं. हमेशा ऐसा नहीं होता, कभी कभी एक आदमी खड़ा हो जाता है एक लड़की और दरिंदों के बीच. जान हथेली पर लेकर. पर अक्सर वह एक होता है. भीड़ निहारती है. एक भारतीय सब पर भारी, पर भीड़ हो गए तो उसी एक का इंतजार रहता है.

अच्छे दिन की तरह स्वच्छ भारत भी एक नारा बन कर रह गया. हम गलाजत की कुछ ऐसी आदत लगी है कि सफाई में रहने का मजा ही नहीं आता. दुनिया के सबसे सुथरे शहरों को वहां की नगरपालिका साफ नहीं रखती. वहां के लोग रखते हैं. यमुना हर साल खुद को धोती है. हम उसे बाढ़ कहते हैं. फिर हम उसे नाला बना देते हैं. हजारों करोड़ बह गए यमुना तीरे. अब गंगा के लिए नमामि गंगे. राजनीति भी चालू हो गई है. सांप्रदायिक रंगों वाली भी. राम तेरी गंगा मैली हो गई पापियों का पाप धोते धोते. हकीकत ये है कि पूजने वालों ने गंदा कर दिया सब कुछ. हमने मैया कह दिया और वही सुलूक किया जो मैया के साथ करते हैं. गाय को देखिए. बड़े शहरों के चौराहों पर पॉलीथीन की जुगाली कर मर जाती है. पर अगर उसकी मौत में किसी समुदाय विशेष का हाथ साबित हो जाए तो बीसियों सचमुच के मानुस मारे जाएंगे, किसी काल्पनिक ईश्वर के लिए. भीड़राष्ट्र का अद्भुत उन्मुक्त रूप और दंगा, बहती गंगा.

जब हम एक दूसरे को मार काट रहे नहीं होते, तब धोखा दे रहे होते हैं, ठग रहे होते हैं. नेता झूठ बोल कर, दुकानदार कम तौल कर, मिलावट के दूध से लेकर जानलेवा दवाएं, यह जानते हुए कि इसमें जहर मिला है, हम बेच देते हैं मिठाइयां. अगर मुनाफा हो तो हम पड़ोसी तक की फिक्र नहीं करते. अपराध, भ्रष्टाचार, मिलावट या मुनाफाखोरी. दुनिया का कोई मुल्क इनसे अछूता नहीं पर जिस कदर हम इनसे बेजार बैठे हैं और जिस हद तक हम इन्हें स्वीकार कर लेते हैं उस हद तक बेगैरती किसी मुल्क में नहीं है. हमारे लिए अच्छे दिन चमचमाते एअरपोर्ट, दमकते मेट्रो कॉरीडोर और विशालकाय, घुमावदार फ्लायओवर हैं. अच्छे दिन कंक्रीट और क्रोम से नहीं बनते. अच्छे दिन राष्ट्रनिर्माण से आते हैं. भारत निर्माण में सब भूल गए हम. हम देश से प्रेम नहीं करते. हमारा देशप्रेम देश से प्रेम नहीं है. हम देशप्रेम में जान दे देंगे. ये सच है. पर देश जमीन का एक रेखांकित टुकड़ा नहीं. देश उस टुकड़े में बसने वाले लोग हैं. जब तक हर देशवासी दूसरे देशवासी की सुविधा और सुरक्षा का खयाल नहीं रखे, देश के कानून और मर्यादा का सम्मान नहीं करे, तब तक उसका देशप्रेम जमीन से प्रेम है. जिस दिन हमारा देश प्रेम जमीन को लांघ जाएगा, अच्छे दिन आ जाएंगे.

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