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Updated: 15 जून, 2016 08:55 PM
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कांग्रेस के लिए संकट का दौर नया नहीं है. संकट नेहरू के बाद भी आए और इंदिरा और राजीव के बाद भी. ताजा संकट अलग तरीके का है. ये संकट नेतृत्व छोड़ने और सौंपने को लेकर है. इसमें सबसे बड़ा पेंच उलझन है. लेकिन क्या ये इतना ही भर है?

संकट का जिम्मेदार कौन

कांग्रेस के मौजूदा संकट के लिए सीधे सीधे राहुल गांधी को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है. वजह भी है, जयराम रमेश कहते हैं कि राहुल गांधी अध्यक्ष जैसे ही हैं बस घोषणा होना बाकी है - और खुद राहुल गांधी भी ऐसा संकेत दे चुके हैं.

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सोनिया गांधी ने जब से कमान संभाली तब से वो सफलतापूर्वक उसका निर्वहन करती आई हैं. अब भी स्थिति यही है कि कई वरिष्ठ नेता सोनिया के ही अध्यक्ष बने रहने की वकालत करते हैं. ऐसा करके एक तरीके से वो राहुल के नेतृत्व को नकार देते हैं.

इन नेताओं में ज्यादातर वही हैं जिन्होंने आलाकमान के करीब होकर सारे फैसले अपने मन मुताबिक करवाए. अगर शीला दीक्षित और कैप्टन अमरिंदर सिंह को छोड़ दें तो राहुल के अनुभव न होने की बात करने वाले ज्यादातर वही नेता हैं जिनके लिए खुद चुनाव जीत कर आना नामुमकिन हो सकता है. राहुल के बारे में वे जानते हैं कि अगर परफॉर्म नहीं किया तो हाशिये पर चले जाएंगे. इसीलिए जब भी राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की बात आती है किसी न किसी बहाने अड़ंगा लगा देते हैं.

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अब नये एक्सपेरिमैेंट का दौर खत्म...

लेकिन उनके लिए खतरे की घंटी भी है. युवा कांग्रेसियों की एक ऐसी फौज भी इस वक्त तैयार हो गई है जो राहुल के नेतृत्व संभालने का इंतजार कर रही है. यही लॉबी राहुल को अध्यक्ष पद बतौर बर्थडे गिफ्ट दिलाना चाहती है. इसी 19 जून को राहुल गांधी का जन्म दिन है.

तो इस तरह देखा जाए तो कांग्रेस के मौजूदा संकट के लिए सीधे सीधे राहुल गांधी को जिम्मेदार कहना उतना ठीक नहीं होगा. जब तक कि हर फैसला सिर्फ उनके हिसाब से लिया गया हो - चाहे वो टीम सेलेक्शन की बात हो या कुछ और.

उबरने के आसार कितने

कांग्रेस के पुराने और मौजूदा संकट में बड़ा फर्क है. नेहरू के बाद इंदिरा ने अपने बूते कांग्रेस को खड़ा किया. खड़ा क्या किया, अपने नाम से नयी पार्टी ही बना ली - और सारे विरोधियों को किनारे लगा दिया. इंदिरा के बाद राजीव को तत्काल तो भारी सपोर्ट मिला लेकिन बाद में बोफोर्स के बैकफायर में ऐसे उलझे कि सत्ता से दूर होना पड़ा. राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पूरी तरह बिखर चुकी थी.

तभी पीवी नरसिम्हा राव को मौका मिला और सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट के फॉर्मूले में उन्होंने खुद को ऐसे फिट किया कि राजनीति के सारे साम, दाम, दंड और भेद का बेहतरीन इस्तेमाल किया. हालांकि, उनका अंत बुरा रहा. इतना बुरा कि कांग्रेस अब तक उनसे दूरी बनाए हुए हैं.

जब सोनिया ने कमान संभाली तो चीजें ट्रैक पर आईं. जीत कर आने के बाद प्रधानमंत्री खुद न बनने के फैसले ने उन्हें और मजबूत बना दिया. सोनिया ने मनमोहन सिंह के रूप में एक ऐसा प्रधानमंत्री खोजा जो उनके हर पैमाने में फिट बैठता हो. बाकी बातें तो अब जगजाहिर हो ही चुकी हैं. यपीए 1 के बाद यूपीए 2 के साथ सत्ता में वापसी भी कोई मामूली बात नहीं थी. लेकिन यूपीए 2 के शासन में सामने आए भ्रष्टाचार के मामलों ने तो कांग्रेस को किनारे ही लगा दिया.

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फिलहाल कांग्रेस वापसी के लिए कड़ा संघर्ष कर रही है. बेहतर तो ये कहना होगा कि कांग्रेस अपना अस्तित्व बचाने के लिए कड़ा संघर्ष कर रही है. लेकिन संघर्ष के नाम पर क्या वाकई संघर्ष हो बी रहा है? या फिर अब भी ऑटो मोड में कुछ नये एक्सपेरिमेंट हो रहे हैं?

सवाल ये है कि अगर राहुल गांधी की देखरेख में ही सब हो रहा है तो - लगता तो ऐसा ही है कि कुछ भी ठीक नहीं हो रहा है.

हिमंत बिस्वा सरमा की मानें तो राहुल गांधी कार्यकर्ताओं को नौकर की तरह ट्रीट करते हैं. तो क्या इसीलिए जब भी राहुल के अध्यक्ष बनने की बात आती है तो विरोध के स्वर मुखर हो उठते हैं?

अरुणाचल प्रदेश के बाद उत्तराखंड कांग्रेस के नेताओं का पार्टी छोड़ना और अब तेलगांना का मामला आखिर क्या संकेत दे रहा है? कांग्रेस अब सिर्फ छह राज्यों में सत्ता में रह गयी है. जिन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में है वहां आए दिन बगावत के स्वर उठ रहे हैं - और जहां आनेवाले दिनों में चुनाव हैं वहां गुटबाजी चरम पर है.

यही वजह रही कि यूपी और पंजाब-हरियाणा के कांग्रेस प्रभारियों को बदलना पड़ा. यूपी से मधुसूदन मिस्त्री को हटाकर गुलाम नबी आजाद को प्रभारी बनाया गया और पंजाब-हरियाणा से शकील अहमद को हटाकर कमलनाथ को इंचार्ज बनाया गया. मधुसूदन मिस्त्री तो राहुल के बेहद करीबी और पसंदीदा बताए जाते रहे लेकिन वो प्रशांत किशोर को नहीं भाए. शकील अहमद के बारे में भी कहा गया कि वो पार्टी के अंदर गुटबाजी को नहीं रोक पाए. कांग्रेस में गांधी परिवार का नेतृत्व सिर्फ खानदानी विरासत का एक्सटेंशन भर नहीं है - वही एक ऐसा फैक्टर है जो कांग्रेसियों को एक सूत्र में बांधे रखती है. किसी ने किसी कोने से ऐसे सुझाव भी आ रहे हैं कि कांग्रेस को गांधी परिवार से आगे बढ़ना चाहिए. तर्क ये दिया जा रहा है कि कांग्रेस में कई कद्दावर और काबिल नेता हैं जो युवा होने के नाते जोश से भरपूर हैं. पहले तो ये मुमकिन नहीं है, दूसरे व्यावहारिक नहीं है. अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस की भी हालत थर्ड फ्रंट जैसी ही हो जाएगी. ये बात कांग्रेस को वाकई चाहने वालों को जितनी जल्दी समझ में आ जाए बढ़िया है. और अगर राहुल गांधी को भी समझ आ जाए तब तो बहुत ही बढ़िया है.

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