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Updated: 30 अगस्त, 2017 06:05 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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और कोई रास्ता भी नहीं सूझ रहा. अब तो एक ही तरकीब बची लगती है - क्यों नहीं योगी सरकार गोरखपुर के अस्पताल का नाम 'शिशु श्मशान गृह' रख देती? किसी भी सड़क या संस्थान का नाम बदलना सरकार के लिए मामूली सी बात होती है. अभी कितने दिन हुए जब मुगलसराय को दीन दयाल नगर करने की खबर आयी थी.

यकीन मानिये अगर सरकार ने ऐसा किया तो विरले ही कोई इस बात का बुरा भी मानेगा. वैसे भी अस्पताल में बच्चों की मौत को लेकर अब तक जो भी सरकारी बयान आये हैं उससे से तो धारणा बन ही रही है कि बच्चों की जिंदगी उनके लिए कोई खास मायने नहीं रखती. जैसे बरसात आती है और चली जाती है. जैसे अगस्त का महीना आता है और चला जाता है - उसी तरह बच्चे पैदा हैं, रोते हैं, चिल्लाते हैं, कराहते हैं और सांस थमते ही उनका शरीर शांत हो जाता है. कम से कम गोरखपुर अस्पताल के इर्द गिर्द की तो यही कहानी है.

ये तो बस आम बात है. बहुत ही सामान्य बात है. अफसर से लेकर मंत्री तक सब के सब यही समझा रहे हैं. अब तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी बची खुची कसर पूरी कर दी है - ताजा बयान सुन कर तो ऐसा लगता है कि वो दिन भी दूर नहीं जब सरकार बच्चों की मौत की जिम्मेदारी भी उनके मां-बाप पर ही न डाल दे.

कोई सरकार भरोसे न रहे!

अगस्त बहुत भारी पड़ रहा है. जाते जाते भी कहर बरपा रहा है. एक बार फिर 61 बच्चों की मौत हो चुकी है. ये पिछले तीन दिन के दरम्यान हुआ है - और अगस्त में अभी दो दिन और बचे हैं. अगस्त में बच्चे मरते ही हैं. ये बात योगी सरकार के मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने भरी प्रेस कांफ्रेंस में कही थी. गोरखपुर के उसी अस्पताल में मौत ने एक बार फिर कहर बरपायी है. 61 में से 42 बच्चों की मौत तो पिछले 48 घंटे में ही हुई है. लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? यही सवाल जब बीबीसी ने बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल से पूछा तो जवाब मिला - अचानक ज्यादा मौतें भले ही हो गई हैं लेकिन इस मौसम में ये कोई असामान्य बात नहीं है.

yogi adityanathसच में सरकार बच्चे संभालेगी तो...

ठीक ही कहते हैं डॉक्टर साहब. इतने बच्चों की मौत तो मामूली ही बात है. कहें भी क्यों नहीं. जब सूबे के मंत्री ये बात कह चुके हैं तो उनका ओहदा तो मुकाबले में बहुत ही छोटा है.

फालतू में लोग ऑक्सीजन न होने की बात पर बवाल करते हैं. क्या फर्क पड़ता है. अगस्त के महीने में ऑक्सीजन की सप्लाई हो या न हो. जिनकी मौत आई है उन्हें तो मरना ही है.

अब तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी साफ कर दिया है, "मुझे तो कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि एक समय बाद कहीं ऐसा न हो कि लोग बच्चों को 1-2 साल पालने के बाद सरकार के भरोसे न छोड़ दें कि सरकार इन बच्चों का पालन पोषण करेगी."

चलिये योगी सरकार ने साफ कर दिया कि कुछ भी हो जाये वो नार्वे जैसी नौबत तो नहीं ही आने देंगे. आपको याद होगा मई 2011 में नार्वे में तीन साल के अभिज्ञान और एक साल की ऐश्वर्या को नार्वे सरकार से जुड़ी एक संस्था के लोग उनके घर से उठा ले गये. इससे पहले वे लोग घर आकर बच्चों के मां बाप को उनके प्रोफेशनल पालन पोषण की ट्रेनिंग भी दे गये थे. जब मां बाप उनके मानदंडों पर खरे नहीं उतरे तो बच्चों को उनसे छीन कर फोस्टर होम में रख दिया.

सच में गजब का ये संसार है और गजब की सरकारें. एक तरफ यूपी सरकार है और दूसरी तरफ नॉर्वे की सरकारी व्यवस्था. आखिर ये सरकारें सब अपने हिसाब से क्यों सोचती हैं कभी लोगों के हिसाब से भी तो सोचना चाहिये. संविधान कहता है कि जीने का अधिकार मूल अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट भी संविधान की बातों को लोगों के हित में परिभाषित कर रहा है, सरकार भले ही उसमें घालमेल की कोशिश करती रहे.

लेकिन योगी सरकार एक काम क्यों नहीं करती - गोरखपुर के अस्पताल का नाम क्यों नहीं बदल देती. ठीक वैसे ही जैसे बाकी चीजों के गोरखपुर में बदले गये. जैसे ऊर्दू बाजार को बदलकर हिंदी बाजार किया गया, हुमायूंपुर को हनुमान नगर, मीना बाजार को माया बाजार और अलीनगर को आर्यनगर कर दिया गया.

नाम नहीं बदलना हो तो गौशाला ही बना दें

नाम बदलने का सबसे बड़ा तो यही है कि वो बुरी यादों को मिनटों में मिटा देता है. अगर मुगलसराय में किसी के साथ कुछ बुरा हुआ होगा तो नाम बदले जाने के साथ ही उसकी मेमोरी फॉर्मैट हो जाएगी. अगर कभी भूला भटका वो दोबारा वहां पहुंच भी गया तो फ्रेश फीलिंग के साथ दीनदयाल नगर में डेरा जमा सकता है.

a child patientसरकार कोई भगवान थोड़े ही है...

हो सकता है कि किसी का कोई करीबी मुगलसराय में गुम गया हो या किसी के बच्चे की मुगलसराय में मौत हो गयी हो. अगर ये वाकये कुछ दिन पहले के भी हैं तो अगली बार वहां पहुंचने पर ऐसा कुछ महसूस होगा ही नहीं. वहां तो सब कुछ दीन दयाल के नाम से जाना जा रहा होगा.

अगर गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल का नाम भी बदल दिया जाये तो बहुत सारी समस्याएं खत्म हो सकती हैं - खास तौर पर सूबे की सरकार के लिए. अस्पताल के लिए एक अच्छा नाम - शिशु श्मशान गृह भी हो सकता है. हां, श्मशान के साथ कब्रिस्तान होना जरूरी हो तो एक हिस्सा उसके लिए भी डेडिकेटेड हो सकता है.

फिर किसी बच्चे की मौत होती है तो कोई किस मुहं से कह पाएगा कि कैसा अस्पताल है. फिर तो कोई खबर भी नहीं बनेगी. कोई अखबार या टीवी चैनल ये खबर तो देगा नहीं कि श्मशान गृह में बच्चों की मौत हो गयी. जब वो श्मशान ही है तो मौत नहीं होगी तो क्या जिंदगी आएगी.

अगर ये सब मुश्किल लगे तो एक आसान उपाय भी लगे हाथ सुझा देते हैं - बीआरडी अस्पताल को 'गौशाला' ही बना दिया जाये. अगर प्रयोग सफल रहा तो बाकी अस्पतालों पर भी आजमाया जा सकता है. ये तो शायद डबल बेनिफिट स्कीम होगी - न बच्चों की मौत की कोई खबर आएगी, न गौरक्षकों को अहिंसा के रास्ते पर चलने की अपील करनी पड़ेगी.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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