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Updated: 18 अक्टूबर, 2016 07:44 PM
रोशनी ठोकने
रोशनी ठोकने
  @Roshani.Thokne
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“विश्वविद्यालय का उद्देश्य मानवता, सहनशीलता, तर्कशीलता, चिन्तन प्रक्रिया और सत्य की खोज की भावना को स्थापित करना होता है. इसका उद्देश्य मानव जाति को निरंतर महत्तर लक्ष्य की ओर प्रेरित करना होता है. अगर विश्व विद्यालय अपना कर्तव्य ठीक से निभाएं तो यह देश और जनता के लिए अच्छा होगा.” -पं जवाहर लाल नेहरु, पूर्व प्रधानमंत्री

तो क्या जेएनयू अपना कतर्व्य निभाने में चूक गया? ये सवाल वाजिब है क्योंकि पिछले 10 महीनों में जेएनयू किसी न किसी विवाद की वजह से सुर्खियां बटोरता रहा है. तो क्या इसका मतलब ये है कि जिस मकसद से जेएनयू की स्थापना हुई थी, उस मकसद पर विचारधारा की लड़ाई इस कदर हावी हुई कि देशहित तो छोड़िये, छात्र हित भी अब हाशिये पर है.

जेएनयू फिर विवादों में हैं, इस बार जेएनयू का एक छात्र नजीब अहमद 14 अक्टूबर से कैंपस से गायब है. माही मांडवी हॉस्टल में रहने वाले इस छात्र का जेएनयू के ही विक्रांत नाम के छात्र से झगड़ा हो गया. इस झगड़े ने ऐसा तूल पकड़ा कि बात अब दो छात्रों के बीच आपसी झगड़े की ना होकर लाल सलाम बनाम भगवा की हो गई. लेफ्ट पार्टिंयां नजीब के गायब होने को रोहित वेमुला पार्ट-2 करार दे रही हैं तो वहीं एबीवीपी इसे लेफ्ट की साजिश बता कर बिहार चुनाव से पहले दादरी में हुए दंगे का जामा पहना रही है. दोनों ही दलों ने नजीब अहमद की गुमशुदगी को पूरी तरह सांप्रदायिक रंग देकर जेएनयू कैंपस में तनाव की स्थिति पैदा कर दी है.

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 ऐसे माहौल में छात्रों की पढ़ाई पर बुरा असर पड़ता है

जरा सोचिये जिस कैंपस में तनाव का माहौल हो, भला वो कैंपस या उस कैंपस में पढ़ने वाले छात्र आखिर क्या पढ़ते होंगे.

फिल्म गुलाल का एक दृश्य याद आता है... जब फिल्म का हीरो कॉलेज के सीनियर छात्रों की रैंगिग का विरोध करता है तो उसका ब्रेन वॉश करने के लिए सीनियर छात्र हीरो का सिर कमोड के अंदर डालकर फ्लश कर देते हैं और फिर कहते हैं... लो हो गया ब्रेन वॉश...

लेकिन जेएनयू में ब्रेन वॉश का तरीका थोड़ा अलग है. फरवरी में जब जेएनयू कैंपस में देश विरोधी नारे लगे, विरोध प्रदर्शनों का दौर शुरू हुआ, तो रिपोर्टर होने की वजह से रोजाना जेएनयू कैंपस में सुबह से शाम तक रहना हुआ. कई बार शाम रात में भी तब्दील हुई, उस दौरान कई बार ऐसा हुआ कि जब कोई छात्र नेता भाषण देता तो उसकी हां में हां मिलाते हुए ऐसा महसूस हुआ जैसे वो बिल्कुल सही बोल रहा है. देश में सच में कुछ भी ठीक नहीं है. गरीब दलितों और मुस्लमानों की हिमायत करने वाले छात्र नेता एक से बढ़कर एक तर्क देकर आपके दिमाग को ये मानने पर मजबूर कर देते हैं कि वाकई हम पर अत्याचार हो रहा है. कई मुद्दों पर मैं एक पत्रकार होने के बावजूद जेएनयू के वामपंथ की विचारधारा से सहमत होने लगी.

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लेकिन एक दिन एक छात्र नेता से छत्तीसगढ़ के नक्सल मुद्दे पर बात हुई. उसने तर्क दिए कि किस तरह छ्त्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में, गांव में सीआरपीएफ के लोग, पुलिस के लोग महिलाओं और लड़कियों से बलात्कार करते हैं. विकास के नाम पर छत्तीसगढ़ सरकार कैसे आदिवासियों को लूट रही है. शायद वो जानता नहीं था कि मैं छत्तीसगढ़ से हूं. रायपुर शहर में पली-बढ़ी हूं, लेकिन आदिवासी नक्सल प्रभावित गांवों के लोगों से भी उतनी ही वाकिफ हूं जितनी सीआरपीएफ और पुलिस के जवानों से. इसलिए मैं जानती थी कि छत्तीसगढ़ में नक्सल की समस्या सिस्टम की देन है. ऐसा नहीं है कि आदिवासी या ग्रामीण महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं नहीं होतीं, लेकिन इसे सीधे सीधे सीआरपीएफ और पुलिस के जवानों से जोड़ देना क्या न्यायोचित है. मैं कुछ ऐसे भी नक्सल प्रभावित गांव के लोगों को जानती हूं जो अपने गांव का विकास चाहते हैं. पक्की सड़कें, स्कूल, अस्पताल चाहते हैं. लेकिन नक्सलियों के बंदूक की नोक उन्हें अपने गांव को शहर से जोड़ने की हिम्मत नहीं दे पाती.  

उन दिनों जेएनयू के एड ब्लॉक पर नेशनलिज्म की भी क्लास हुआ करती थी. जहां जेएनयू के नामी प्रोफेसर छात्रों को लेक्चर दिया करते थे. एक ऐसा ही लेक्चर था प्रोफेसर निवेदिता मेनन का. सैकड़ों छात्रों के साथ मैं भी लेक्चर सुन रही थी. कश्मीर की आजादी के मुद्दे पर बोलते हुए निवेदिता मेनन ने कहा कि भारतीय फौज ने कश्मीर पर जबरदस्ती कब्जा जमाया हुआ है. मेरा दिमाग ठनका क्योंकि जब मैं स्कूल-कॉलेज में पढ़ती थी तो मेरे शिक्षकों ने मुझे हमेशा ही ये पढ़ाया कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान में भी है. जिस पर पाकिस्तान ने जबरदस्ती कब्जा किया हुआ है. लिहाजा मेरा दिल दिमाग तो ये मानने को तैयार ही नहीं हुआ कि भारतीय फौज ने कश्मीर पर कब्जा किया हुआ है. तो क्या मेरी पढ़ाई गलत थी, या ये जेएनयू के अध्यापकों का तरीका था ब्रेन वाश करने का, मन में अजीब दुविधा थी.  

कॉलेज के जमाने में मैं एनसीसी की कैडेट हुआ करती थी इसलिए मेरे कई दोस्त हैं जो आज आर्मी या एयरफोर्स में बतौर ऑफिसर तैनात हैं. जेएनयू में कवरेज के दौरान मेरे ऐसे ही एक दोस्त का फोन आया जो कश्मीर के संवदेनशील इलाकों में तैनात था. जेएनयू पर बात करते हुए उसने मुझसे सिर्फ इतना कहा, कि जरा मौका मिले तो 50 मिनट का भाषण देने वाले और आजादी के नारे लगाने वाले कन्हैया कुमार से पूछना कि आजादी की बात करने वाले ये सारे नेता सरीखे जेएनयू के छात्र फौज में क्यों नहीं जाते ??? उसके सवाल ने मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया. खैर, कन्हैया कुमार का जबाव मैं जानती थी, लिहाजा ये सवाल मैंने कभी पूछा ही नहीं. क्योंकि जेल से छूटने के बाद दिए गए 50 मिनट के भाषण में कन्हैया कुमार ये कह चुका था कि देशभक्त या देश की सेवा सिर्फ सेना के जवान नहीं है बल्कि वो किसान भी है जो अन्न पैदा करता है. सच है अपने-अपने स्तर पर हम सब जो कुछ भी करते हैं वो देश प्रेम ही है, देश सेवा ही है. लेकिन अगर मेरी कलम देश को खंड-खंड करने के लिए चले तो क्या ये देशभक्ति होगी.

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विचारधारा की लड़ाई के नाम पर अगर देश का युवा हर बात का विरोध सिर्फ इसलिए करें क्योंकि उसे अपनी सियासत चमकानी है तो क्या ये देशहित में होगा.

गांव, गरीब, किसान, दलित से लेकर कश्मीर तक हर छोटे-बड़े मुद्दे पर अपनी स्पष्ट राय रखने वाले जेएनयू के मेरे वामपंथी मित्रों ने सर्जिकल स्ट्राइक पर पूरी तरह से खुद को तटस्थ रखा... इसे कैसे देखा जाए....??? समझ से परे है.

नेशनल एजुकेशन पॉलिसी का ड्राफ्ट तैयार करने वाली कमेटी का सुझाव था कि विश्वविद्यालयों में होने वाली छात्र राजनीति को सीमित किया जाए. ये अलग बात है कि फाइनल ड्राफ्ट में इस प्वाइंट को सरकार ने शामिल नहीं किया. लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि छात्र राजनीति की आड़ में युवा विरोधाभास की वो राजनीति कर रहा है जो ना देश हित में है और ना ही खुद छात्र के हित में. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जेएनयू जहां विचारधारा की हवा किस दिशा में बह रही है, ये समझना बहुत जरूरी है.

लेखक

रोशनी ठोकने रोशनी ठोकने @roshani.thokne

लेखिका आज तक में पत्रकार हैं

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