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Updated: 28 नवम्बर, 2015 01:18 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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एक जीत का जश्न था, दूसरा जन्म दिन का. न मुलायम सिंह ने शिरकत कर मुबारकवाद देने की जहमत उठाई, न लालू प्रसाद ने पहुंच कर बधाई देने की जरूरत समझी. न मुलायम पटना पहुंचे और न लालू सैफई.

अमर और आजमसमाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव के जन्म दिन पर इस बार समारोह उनके पैतृक इलाके सैफई में आयोजित था. इस खास मौके पर मुलायम की पार्टी के पूर्व महासचिव अमर सिंह का सैफई पहुंचना भी चर्चा में रहा. अमर सिंह मुलायम के साथ ही कार से सैफई पहुंचे. जन्म दिन की ढेरों बधाइयां दीं. मुलायम ने इस अवसर पर 76 किलो का केक काटा - और एक टुकड़ा अपने हाथों से अमर सिंह को खिलाया. फिर अमर सिंह लौट गए. देर रात आजम खां भी मुलायम को बधाई देने सैफई पहुंचे. अमर और आजम के पहुंचने में वक्त का फासला काफी रहा. आमना सामना होने की कोई गुंजाइश नहीं समझ आई.मुलायम के बर्थडे पर अमर सिंह और आजम खां की अलग अलग मौजूदगी सुर्खियों का हिस्सा तो बनी ही, चर्चा इस बात की रही कि बर्थडे का असली केक मुलायम ने किसके साथ काटा. अमर सिंह के साथ या आजम खां के साथ?

जैसे जानी दुश्मनजब आजम से अमर सिंह के सैफई दौरे की बाबत पूछा गया तो उनका कहना था, "अब आंधी-तूफान के साथ कीड़े मकोड़े तो आ ही जाते हैं."अमर सिंह से जब आजम की चर्चा हुई तो हर नेता की तरह आजम को भी उन्होंने अपना दोस्त बताया था. इस पर आजम बोले, "हमने उनसे दलाली का कोई पैसा नहीं लिया है, तो हमसे कोई दोस्ती भी नहीं है."फिर भी बातचीत के टॉपिक अमर बने रहे, तो आजम बोले, "वो जब खुद मुलायम के साथ हो जाते हैं, तो नेताजी भगा तो देंगे नहीं. गाड़ी में तो ड्राइवर और बॉडीगार्ड भी होता है."मीडिया आजम से अमर सिंह के पहुंचने का मकसद जानना चाहता था - मसलन, पार्टी में अमर की वापसी हो रही है क्या?आजम खां इस सवाल पर कुछ ज्यादा ही तीखे नजर आए, "अमर सिंह अपनी औकात को समझें. वो नेताजी के प्यार का गलत फायदा ना उठाएं."लेकिन यही बातें जब अमर के सामने उठीं तो उनका भी जवाब हमेशा की तरह शायराना रहा, "हम तो उनके दिल में रहते हैं, दल में नहीं."

लालू या अमर-आजमबिहार चुनाव से पहले जनता परिवार की कोशिशें नाकाम जरूर रहीं, पर महागठबंधन को खड़ा करने में मुलायम की भूमिका जरूर रही. नेता के रूप में नीतीश के नाम की घोषणा भी मुलायम ने ही की - लेकिन सीटों का बंटवारा होते ही वो निकल लिए. नीतीश से गहरी नाराजगी जताई लेकिन लालू की बात भी नहीं माने. यहां तक तो गनीमत भी होती, मुलायम ने तो बिहार में बदलाव और नीतीश को वोट न देने तक की अपील कर डाली. जिस महागठबंधन की जीत के लिए लालू ने जहर तक पीने की बात कही उसी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार को हराने की अपील.  लालू जी जान से लड़े - और जीते. पटना के गांधी मैदान का जलसा लालू-राबड़ी की जिंदगी का कोई आम जलसा नहीं था. दोनों पूर्व मुख्यमंत्री अपने दो दो बेटों को मंत्री पद की शपथ लेते देखे - ये उनके जीवन का कोई मामूली मौका नहीं था - अब मुलायम सिंह या अखिलेश यादव ने उसे चाहे जिस रूप में लिया हो. तमाम बातें अपनी जगह मुलायम लालू की जीत के जश्न से दूर रहे. लिहाजा लालू ने भी जन्म दिन की पार्टी से भी दूरी बना ली. मुलायम बेटेवाले होंगे, लालू लड़की वाले हैं तो क्या हुआ. रिश्तेदारी अपनी जगह और राजनीति अपनी जगह.तो क्या 2017 में होने जा रहे यूपी विधानसभा चुनाव में मुलायम को लालू की जरूरत नहीं पड़ेगी? पड़ेगी ही, ऐसा नहीं है. हां, पड़ सकती है.फिर मुलायम के लिए अमर सिंह और आजम खां की कितनी अहमियत है?मुलायम के लिए अमर और आजम दोनों की खूब अहमियत है. अमर की जरूरत मुलायम को पार्टी की फंडिंग के लिए हो सकती है तो आजम की वोट बैंक के लिए. लेकिन नोट और वोट में से कोई एक चुनने की बात हो तो? फिर तो वोट का ही पलड़ा भारी रहेगा. फंडिंग के लिए तो बहुत से कतार में होंगे. पहले भी यही हुआ था. आजम अड़ गए तो अमर को निकालना पड़ा. मुलायम की राजनीति फिर एक बार उसी मोड़ पर आ खड़ी है, अगर अमर की वापसी की बात को लेकर वो वाकई गंभीर हैं तो. अमर सिंह को राज्य सभा में भेजने की बात और है. अगर आजम का कयास सही है तो.ऐसे में लालू, अमर और आजम में मुलायम को सबसे ज्यादा किसकी जरूरत है? सबकी बारी बारी, जरूरत के हिसाब से. और जरूरत के हिसाब से हर किसी का इस्तेमाल कर लेना ही तो राजनीति है. अब इसके लिए चाहे कितनी ही बार केक क्यों न काटना पड़े?

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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