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Updated: 27 जनवरी, 2018 11:02 AM
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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल की लोकप्रियता में जबरदस्त उछाल दर्ज किया गया है. इंडिया टुडे और KARVY इंसाइट्स के सर्वे से मालूम होता है कि गुजरात चुनाव के बाद राहुल गांधी की लोकप्रियता बहुत ज्यादा बढ़ी है. खास बात ये है, सर्वे के अनुसार, नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की लोकप्रियता का फासला 24 फीसदी कम हो गया है.

राहुल गांधी को लेकर ताजा चर्चा उन्हें गणतंत्र दिवस समारोह में पीछे की लाइन में बैठाये जाने को लेकर है. अच्छी बात ये है कि राहुल गांधी ने खुद इस पर कोई बयान नहीं दिया है - और भी अच्छी बात होती जब वो अपने साथ हुए भेदभाव को इग्नोर करते हुए कार्यकर्ताओं को कोई खास संदेश देते. गुजरात चुनाव के बाद राहुल गांधी को लेकर लोगों की धारणा बदलने लगी थी, लेकिन एक बार फिर वो बैकफुट पर जाते हुए लगते हैं. भला ऐसा क्यों?

दिग्विजय से तुलना क्यों?

अमेठी से चुनाव लड़ने के साथ ही जब राहुल गांधी यूपी की राजनीति में सक्रिय हुए तो उनके पहले पॉलिटिकल-टूरिस्ट-गाइड दिग्विजय सिंह ही रहे. कई बरस तक राहुल गांधी की राजनीतिक गतिविधियों में दिग्विजय सिंह का दखल हुआ करता था. दिग्विजय को यूपी से हटाकर दूसरे राज्यों का प्रभार दिये जाने के बाद भी राहुल गांधी शुरुआती सबक ठीक से भुला नहीं पाये.

यूपी की किसान यात्रा के बाद सर्जिकल स्ट्राइक पर राहुल गांधी के 'खून की दलाली' वाले बयान में भी दिग्विजय सिंह की छाप दिखी. बाद के दिनों में वो ऐसी बातों से परहेज करत दिखे हैं. राहुल गांधी के इस बयान पर गौर करें तो दिग्विजय सिंह की उन गैरजिम्मेदाराना बयानों से मेल खाता लगता है जो उन्होंने प्रधानमंत्री के लिए ट्विटर अपमानजनक ट्वीट में कही. 'ओसामा जी' और 'पाक अधिकृत कश्मीर' जैसी बातें दिग्विजय सिंह के मुहं से सुनने के लोग आदी हो चुके हैं, लेकिन राहुल सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता हैं, इसलिए ये बातें शायद ही किसी को हजम हों. दिग्विजय की बातों को भी लोग उसी अंदाज में एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देते हैं जैसे साक्षी महाराज जैसे दूसरे बीजेपी नेताओं के बयान. राहुल गांधी के मामले में तो ऐसा बिलकुल नहीं चलेगा.

rahul gandhiलाइन से कितना फर्क पड़ता है?

राहुल गांधी को कोई भी बात कहते वक्त अपने कद और पद का ख्याल तो रखना ही चाहिये. राहुल गांधी को न तो जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद खुद बयान देने की जरूरत थी - और न ही करणी सेना को लेकर उन्होंने जो कुछ कहा उसकी कोई खास जरूरत थी. ऐसा लगता है जैसे राहुल को यही समझ नहीं आ रहा कि कौन सी बात उन्हें खुद कहनी चाहिये और कौन कांग्रेस प्रवक्ताओं के माध्यम से.

पद्मावत हिंसा पर पहले तो राहुल गांधी चुप रहे, वैसे ही जैसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में भी अवधारणा बनी. जब बोले तो राहुल ने करणी सेना के बहाने बीजेपी को भी लपेट लिया.

अपने ट्वीट में राहुल ने कहा, “बच्चों के खिलाफ हिंसा को जायज ठहराने की कोई वजह नहीं हो सकती. हिंसा और नफरत कमजोर लोगों के हथियार हैं. भाजपा नफरत और हिंसा की राजनीति कर पूरे देश आग में लगा रही है.”

एक तरफ तो राहुल गांधी सीधे प्रधानमंत्री मोदी से सवाल पूछते रहते हैं, दूसरी तरफ बीजेपी को ऐसे अप्रभावी तरीके से निशाना बनाते हैं. नौजवानों के लिए रोजगार, किसानों की आत्महत्या का मामला उठाना और ऐसे मुद्दों पर मोदी सरकार से सवाल पूछना, निश्चित तौर पर राहुल गांधी को गंभीर बनाएगा, लेकिन हर छोटी मोटी बात पर साउंडबाइट के लिए उपलब्ध रहना उनकी सेहत के लिए कहीं से भी ठीक न होगा.

नया अवतार सिर्फ गुजरात के लिए?

गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी छोटी छोटी बातों पर बयान देते रहे. बात बात पर मीडिया से मुखातिब होते रहे. आम अवाम से कनेक्ट होने की कोशिश करते रहे. ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा प्रेस से दूरी बनाने और राहुल गांधी के करीब होने जैसी तुलना भी होने लगी थी. कुछ इस तरह कि मोदी को मीडिया की परवाह नहीं लेकिन राहुल गांधी हर वक्त प्रेस से मुलाकात कर रहे हैं. वैसे चुनावों की बात और होती है. प्रधानमंत्री मोदी भी चुनावों में 'काम और कारनामे' या फिर 'कब्रिस्तान और श्मशान' जैसी बातें किया करते हैं, लेकिन बाकी दिनों में उनकी स्पीच का कंटेंट बदल जाता है.

राहुल गांधी अगर प्रधानमंत्री मोदी का लेवल मेंटेन करने की कोशिश करते हैं तो उन्हें हरदम इस बात का ख्याल रखना होगा कि कब और क्या बोलना चाहिए. किस मुद्दे पर बोलना और किस पर चुप रह जाना चाहिये. आखिर मुख्य प्रवक्ता और तमाम दूसरे वकालत से राजनीति में आये नेताओं की फौज किस दिन काम आएगी भला.

इस पैमाने पर तौलें तो जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद आया राहुल गांधी का बयान भी उनके खिलाफ जाता है. अव्वल तो इस मुद्दे पर उनके खुद बयान दिये बगैर भी काम चल जाता. अगर बोलना ही था तो जरा ठोक बजा कर बोलते. राहुल गांधी ने आनन फानन में ऐसा बयान दे डाला जिससे तथ्य मेल नहीं खाते. राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद सीबीआई के स्पेशल जज जस्टिस लोया की मौत का मुद्दा उठाया. इसके लिए उन्होंने जजों की प्रेस कांफ्रेंस को ही आधार बनाया. जजों की प्रेस कांफ्रेंस से जो बात उन्होंने उठायी उसके बारे में तब तो ये भी कंफर्म नहीं था कि जज लोया का ही मामला था या फिर किसी और बात पर 'येस' कहते सुना गया था. राहुल को 'अश्वत्थामा मरो...' जैसे अभियानों का हिस्सा बनने से बचना होगा.

ऐसा क्यों लगता है कि गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी का नया अवतार नजर आया था, अब वो बैक टू पैवेलियन नजर आ रहा है. वैसे राहुल गांधी ने गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्र के नाम संदेश भी दिया है.

विरोधी होने के कारण ये तो बीजेपी का हक है कि वो उन्हें वैसे ही ट्रीट करे जिस तरह की धारणा उनके बारे में गुजरात चुनाव से पहले सोशल मीडिया पर बनायी जाती रही.

बाकी बातें अपनी जगह है जैसे राहुल गांधी ने जैसे गुजरात चुनाव में प्रधानमंत्री पद के सम्मान की बातें कहीं, वैसे ही अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को उन्हें समझाना चाहिये कि वो देश के बारे में सोचें - बीजेपी सरकार उन्हें चौथी लाइन में बैठा रही है या फिर छठी लाइन में, ऐसी बातों को नजरअंदाज करें.

कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए ही सही राहुल गांधी को कोई ऐसा संदेश देना चाहिये जिससे उन्हें लगे कि लाइन वहीं से शुरू होती है - जहां राहुल गांधी बैठे नजर आते हैं.

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