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Updated: 10 अगस्त, 2015 03:39 PM
सुरेश कुमार
सुरेश कुमार
  @sureshkumaronline
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चुनावी शोर में कई मुद्दे यूं ही दम तोड़ देते हैं. लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपनी मौत नहीं मरते भले ही तमाम राजनेता उसे मारने की कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें. बिहार में जातीय कलह, भूमि वितरण, मजदूरी के मामले और ऐसी कई दूसरी समस्याएं भी हैं जिनके नतीजे नरसंहार के रूप सामने आए हैं. आखि‍र यह समस्या क्यों है? और क्या अब तक किसी ने इसे खत्म करने की ईमानदार कोशिश की है?

अमीर दास आयोग

दिसंबर, 1997 में लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार हुआ था. इस नरसंहार में 58 दलितों की हत्या कर दी गई थी. आरोप रणवीर सेना पर लगा था. इस हत्याकांड के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश अमीर दास के नेतृत्व में एक आयोग बनाने की घोषणा की. मकसद था नरसंहार के कारणों का पता लगाना. साथ ही, इस बात का भी पता लगाना कि आखिर ऐसे नरसंहार होते ही क्यों हैं?

अमीर दास ने अपना काम शुरू किया. इस बीच लालू प्रसाद की सत्ता चली गई और नीतीश कुमार सत्ता में दाखि‍ल हो गए. नीतीश ने इस आयोग को ही खत्म कर दिया. बताया गया कि यह आयोग ने समय पर अपना प्रतिवेदन नहीं दिया था. इसी दौरान पटना से प्रकाशित होने वाले एक अखबार के मुख्य पृष्ठ पर एक खबर छपी जिसमें इस बात कर जिक्र था कि '35 बड़े नेता रणवीर सेना के दोस्त हैं. भाजपा, राजद, जदयू और कांग्रेस के कई दिग्गज इसमें शामिल हैं. अगर अमीर दास आयोग की रिपोर्ट आती तो कई नेताओं के भविष्य चौपट हो जाते.'

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दलितों का असली मसीहा कौन?

खैर, नीतीश की गठबंधन सरकार थी और माना जाता था कि इसमें शामिल कुछ रसूखदार लोगों का नाता रणवीर सेना से था. लालू प्रसाद की पार्टी ने भी इस मसले पर वैसा विरोध दर्ज नहीं करा पाई जैसा होना चाहिए था. राजनीतिक हित साधने के चक्कर में राज्य की जनता से इस समस्या से निजात पाने की उम्मीद को तो छीन ली गई, लेकिन नीतीश कुमार के फैसलने ने उनका छद्म दलित प्रेम भी सबके सामने ला दिया.

58 दलितों का हत्यारा कौन

लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार मामले में 7 अप्रैल 2010 को एडिशनल डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज विजय प्रकाश मिश्रा ने 16 को मृत्युदंड और 10 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. अदालत ने इस हत्याकांड को 'समाज के चरित्र पर धब्बा और दुर्लभतम हत्याकांड' बताया था. जब यह मामला पटना हाईकोर्ट में गया तो इस नरसंहार में आरोपी सभी 26 अभियुक्त बरी कर दिए गए. न तो सरकार ने इस मामले में आगे अपील की और न ही जनता को यह जवाब देने की कोशिश की कि 58 दलितों का हत्यारा कौन है?

किस बात के मसीहा

बिहार में शासक कभी सामंती सोच से आगे बढ़ नहीं पाया है. कम से कम इस मामले में तो हर मुख्यमंत्री का चेहरा एक जैसा नजर आता है. और इस मामले में दलितों के नए मसीहा जीतन राम मांझी भी नीतीश अलग नजर नहीं आते. अपने नौ महीने के शासन की जितनी भी उपलब्धियां वो गिनाएं लेकिन अमीर दास आयोग की रिपोर्ट का जिक्र कहीं नहीं मिलेगा. ताजा चुनावी जंग में दोनों एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए हैं.

नीतीश कुमार राज्य में फिर से मुख्यमंत्री हैं और पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद उनके साथ है. तो क्या अब यह उम्मीद की जा सकती है कि अमीर दास आयोग की रिपोर्ट को सामने लाया जाएगा? क्या दलितों के मसीहा बने फिरने वाले लालू प्रसाद और नीतीश कुमार इस रिपोर्ट को कभी जनता के सामने रखेंगे? क्या विपक्ष में खड़े जीतनराम मांझी और पप्पू यादव जैसे नेता इसे चुनाव में मुद्दा बनाएंगे?

लेखक

सुरेश कुमार सुरेश कुमार @sureshkumaronline

लेखक आज तक वेबसाइट के एडिटर हैं.

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