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Updated: 29 दिसम्बर, 2015 06:06 PM
आईचौक
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ठीक ही कहते हैं. कारोबार उनके खून में है. कारोबार के मकसद से वो पूरी दुनिया घूमते हैं. अमेरिकियों के बारे में भी आम राय यही है कि बिजनेस उनकी फितरत है. अमेरिकी जानते हैं कि बिजनेस कैसे किया जाता है. कारोबारी मिजाज के चलते मोदी को भी ये बात बखूबी मालूम होगा. काफी हद तक ये कारोबार ही है जो कॉमन कॉज बन कर मोदी और बराक की दोस्ती को ज्यादा मजबूत बनाता है.

मोदी की ताजा लाहौर यात्रा में भी बिजनेस कनेक्शन ही सामने निकल कर आ रहा है. कहते हैं कि एक कारोबारी सज्जन ही एक लंबे सफर में अल्प विराम के सूत्रधार बने.

सज्जन सूत्रधार या...

एक बड़ा सवाल है? जिस कारोबारी सज्जन का नाम 12 साल के एक युग के बाद ऐसी यात्रा में इतनी शिद्दत से शुमार हो रहा है वो कितने प्रभावी हैं? क्या इतने असरदार कि दो पड़ोसी लेकिन दुश्मन दाखिल मुल्कों के प्रधानमंत्रियों की डंके की चोट पर मुलाकात भी करा पाएं?

मान लेते हैं कि सज्जन जिंदल और नवाज शरीफ के बेटों से ताजा कारोबारी रिश्ते और पीढ़ियों से व्यापारिक संबंध हैं. ये भी मान लेते हैं कि अगर दोनों देशों के बीच कारोबारी माहौल बनता है तो शरीफ और जिंदल दोनों परिवारों को फायदा और सरहद के दोनों तरफ कुछ न कुछ आर्थिक भला भी जरूर होगा. लेकिन क्या ये सिर्फ सज्जन जिंदल की कोशिश है? या नवाज शरीफ के बेटे भी यही चाहते हैं? या नवाज शरीफ भी बेटों के बेहतर भविष्य के लिए भारत के साथ बढ़िया कारोबार चाहते हैं?

खबर तो ये भी थी कि नेपाल में सार्क सम्मेलन के दौरान सज्जन मोदी-शरीफ की गुपचुप मुलाकात के सूत्रधार थे. हालांकि, दोनों ही मुल्कों ने ऐसी किसी मुलाकात को गलत करार दिया. वैसे मोदी के शपथग्रहण के वक्त सज्जन जिंदल की टी-पार्टी भी कम चर्चित नहीं रही थी.

जहां तक इस मामले में भारत के रुख का सवाल है तो मोदी ने उफा से पहले नवाज शरीफ को फोन किया था. उफा की मुलाकात के लिए शरीफ ने 'इंशाअल्लाह' कहा भी और रूस पहुंच कर 'आमीन' भी किया. लेकिन उसके बाद क्या हुआ? हुर्रियत गले की हड्डी बन गया.

इन सबके बीच एक स्वाभाविक सवाल उभर रहा है. क्या सूत्रधार सज्जन दिल्ली, नेपाल और लाहौर के सिर्फ इवेंट मैनेजर रहे या उससे कहीं ज्यादा?

दोस्ती का कितना दबाव

मोदी के करीबियों के हवाले से आई खबरों में कहा गया है कि लाहौर यात्रा में अमेरिका की कोई भूमिका नहीं रही. बल्कि, इसे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय इंटरेस्ट को ध्यान में रखते हुए अंजाम दिया गया.

हां, एक बात का जिक्र जरूर है कि मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान बराक ओबामा ने पाकिस्तान के साथ रिश्तों में आगे बढ़ने की सलाह दी थी. पाकिस्तान के मामले में एक और जगजाहिर बात है जिससे से शायद ही कोई इत्तेफाक न रखता हो. कुछ भी हो जाए वहां फौज की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता. तो क्या मोदी की लाहौर यात्रा में पाकिस्तानी फौज की भी कोई भूमिका है?

अब तक यही देखा जाता रहा कि भारत पाक बातचीत में या तो पाक फौज की कोई भूमिका नहीं होती या फिर उसकी कोई रुचि नहीं होती रही? इंडो-पाक रिलेशन से संबंधित खबरों को खंगालने पर मालूम होता है कि पाकिस्तान के स्टैंड में तब्दीली आई आर्मी चीफ राहील शरीफ की वाशिंगटन यात्रा के बाद.

अमेरिकी अधिकारियों के साथ हुई बातचीत और मुलाकातों में शरीफ को ये मैसेज तो देने की कोशिश हुई ही वो भारत के साथ बातचीत में एक्टिव रोल निभाए. अब इसे अमेरिका अमेरिका का दबाव माना जाए या दोनों देशों के एक कॉमन फ्रेंड की सलाह, सिर्फ समझने की बात है. कोई इंकार करे या इकरार करे, हर बात के दो मायने तो यूं भी होते हैं.

पाकिस्तान के मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नासिर जांजुआ फौजी पृष्ठभूमि से हैं. जांजुआ और राहील शरीफ की अच्छी अंडरस्टैंडिंग भी बताई जाती है.

ऐसे में भारत और पाक के बीच होने वाली बातचीत में फौज की सीधी भूमिका देखी जा सकती है. इसे सहमति के रूप में भी देखा जा सकता है और दखल के तौर पर भी.

बहाना जो भी हो, बात हो रही है इससे अच्छी बात कोई और नहीं हो सकती. मोदी ने शरीफ को तोहफे में एक साफा भेंट किया था. नवासी की शादी में शरीफ वही गुलाबी साफा पहने नजर भी आए.

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शुकराने ये शरीफ अदा

अब लाहौर यात्रा के पीछे दो शरीफों की शराफत समझा जाए या बराक से दोस्ती का रिटर्न गिफ्ट? फर्क क्या पड़ता है. घी का लड्डू थोड़ा टेढ़ा भी हो तो उससे जायका तो बदल नहीं जाता?

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