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Updated: 08 नवम्बर, 2015 10:30 AM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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दिल्ली की सल्तनत नहीं हुई तो क्या हुआ? मगध भी नहीं मिला तो क्या हुआ? आगे बढ़ते हैं. मां, माटी और मानुष की धरती बंगाल तो है. और बंगाल भी नहीं, तो भी मलाल किस बात का. अपना यूपी तो है ना. आखिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर भी तो यूपी ही बैठाता है. है कि नहीं?

जिनकी मां नहीं होती उनके लिए भी तो इंतजाम होते हैं. है कि नहीं. वो गाय के दूध पर ही तो पलते बढ़ते हैं. जब गाय है तो फिर डर किस बात का.

डरना तो उन्हें चाहिए जिन्हें पाकिस्तान में पटाखे फूटने से गिला नहीं. मगर अब क्या होगा? दिवाली ने भी दगा दिया - दूसरे की हो गई! पटाखे तो फूटेंगे ही. पटाखे हैं, पटाखों का क्या? कौन रोक सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने भी तो बैन लगाने से मना कर ही दिया है. है कि नहीं?

पहले की बात और थी. कहा करते थे असली पहलवान वही होता है जो धूल झाड़ कर अगले मुकाबले के लिए आगे बढ़ जाए. नए दौर में न तो धूल चढ़ती है न झाड़ने की जरूरत पड़ती है. बस आगे बढ़ना होता है - वैसे ही जैसे रिलेशनशिप के मामलों में 'मूव-ऑन' काउंसेलिंग का मूल तत्व होता है. है कि नहीं?

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ऐसा नहीं है कि राजधर्म की याद दिलाने वाला अब कोई नहीं बचा. ये बात अलग है कि उनकी हैसियत इतनी नहीं कि अपनी बातों को निजी राय के दायरे में समेटे जाने से रोक सकें. मगर उनकी नजर पर कोई चश्मा थोपा भी तो नहीं जा सकता. उनके नजरिये से अगर लोग इत्तेफाक रखने लगें तो उन्हें भी तो रोका नहीं जा सकता.

अगर अरुण शौरी को लगता है कि मोदी बयानबाजी के मामले में लालू लेवल पर उतर आए हैं. और नीतीश कुमार खुद को मेंटेन रखते हुए स्टेट्समैन नजर आने लगे हैं. तो इसमें किसका कसूर है. जिसे नजर आ रहा है उसका या जो नजर आ रहा है उसका? चुनावों से पहले तो ऐसा नहीं था.

साहेब की छोड़िए, अमित भाई का क्या होगा? चर्चा है उनके दसवें घर में राहु बैठा है. ऐसा राहु चोटी पर तो पहुंचा तो देता है, लेकिन ज्यादा दिन टिकने नहीं देता. अब इसमें कौन सी नई बात है. अरे, एवरेस्ट पर फतह ही तो फकत बनता है. अब वो कोई घर बनाने की चीज भी है क्या? बाकी दिन गुजारेंगे गुजरात में. है कि नहीं?

वैसे भी अमित भाई की अब गुजरात में ही ज्यादा जरूरत है. सारे रणबांकुरे तो दिल्ली पहुंच चुके हैं. अहमदाबाद में बेचारी आनंदी बेन अकेले जूझ रही हैं. अब वहां भी तो कोई भरत जैसा कोई भाई चाहिए जो खड़ाऊं न सही व्हाट्सएप के सहारे सत्ता चला सके. एक हार्दिक इच्छा तो जैसे तैसे शांत कराई गई - न जाने ऐसी हजारों ख्वाहिशें भी हों. हर बार खामोशियां आबरू नहीं रख पातीं. है कि नहीं?

नसीब की बदौलत बंगाल में मुकुल रॉय भी मांझी बन कर उभर ही रहे हैं. बस यूपी में एक अदद मांझी की तलाश बाकी है, जो वैतरणी पार करा दे. है कि नहीं?

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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