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Updated: 25 जुलाई, 2016 03:26 PM
कुमार कुणाल
कुमार कुणाल
 
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शीला दीक्षित के दिल्ली में 15 साल और मनमोहन सिंह सरकार के केंद्र में 10 साल से ऊब चुकी दिल्ली की जनता क्या आज भी अपनी किस्मत पर रो रही है! दिल्ली को आज भी पता नहीं कि कल क्या होने वाला है. किस सरकार से उन्हें उम्मीद लगानी चाहिए और किस सरकार से नहीं? क्या उहापोह और असमंजस दिल्ली की पहचान हो गए हैं?

दिल्ली में खबरें तो खूब बन रहीं हैं, लेकिन विकास से जुड़ी योजनाएं बननी बंद हो गयीं हैं. जिन उम्मीदों के साथ दिल्ली वालों ने बीजेपी को लोकसभा में 7 की 7 सीटें और आम आदमी पार्टी को विधान सभा में 70 में से 67 सीटें दीं, वो उम्मीद हर रोज़ और धुंधली होती जा रही है. दिल्ली में काम कम और हर रोज़ का सियासी नाटक इतना बढ़ गया है कि लोग की नाकों दम हो गया हैं. क्या राजधानी का बुनियादी ढांचा चरमराने लगा है?

असली मुद्दों की कहीं भी बात सुनने को नहीं मिलती, बस जहां देखो आरोप-प्रत्यारोप और तू तू-मैं मैं ही सुनाई पड़ता है. सुनवाई तो दूर सरकारें अपनी ही सुनाई जा रही हैं. मानो उनसे ग़रीब इस दिल्ली में कोई नहीं बचा. पानी लोगों के घरों में नहीं आ रहा लेकिन पानी पी-पी के कोसने का सिलसिला बदस्तूर जारी है.

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इतनी चिल्लम पों मची है कि अपनी आवाज़ भी कानों में आनी बंद हो चुकी है, शायद सरकारों को भी यही रोग लग गया है. सब जगह अंधी दौड़ है कि दिल्ली के इस झगड़े से सियासी फ़ायदा किसे हुआ और किसे कितना नुकसान. बस इसी गुना भाग में सारी सियासी पार्टियां लगी हैं. दिल्ली का कोई नेता डेढ़ साल का काम दिखा कर पंजाब में वोटरों पर डोरे डाल रहा है, तो कोई 15 साल में दिल्ली में हुए करिश्मे का दावा कर उत्तर प्रदेश में करिश्मा करने की उम्मीद रख रहा है.

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 केजरीवाल Vs मोदी के बीच दिल्ली की जनता कहां है...

ऐसे भी हैं जो रहे सहे जन प्रतिनिधियों को उठा कर जेल में भरते चले जा रहे हैं ताकि दिखा सकें कि दिल्ली में उन्हीं की तूती बोलती है और किसी की नहीं. ले देकर दिल्ली की फ़िक्र किसी को नहीं है, सब दिल्ली को बस एक पायदान समझ कर ऊपर की सीढियां चढ़ना चाहते हैं बस.

क्या दिल्ली पिछड़ती जा रही है?

देश की राजधानी होने के बावजूद दिल्ली यूं तो कभी भी बिज़नेस कैपिटल नहीं रही. न ही दिल्ली में बढ़ते अपराध, यहां की लचर प्लानिंग और बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी ने इसे विश्व स्तरीय शहर ही बनने दिया. कामनवेल्थ गेम्स के दौरान दिल्ली में विकास के कुछ काम जरूर हुए लेकिन कुछ सीमित क्षेत्रों में ही. वो भी भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच.

शीला दीक्षित से भी लोगों का मोह भंग इसलिए हुआ कि भ्रष्टाचार के आरोप उन पर लगे और उससे कहीं ज़्यादा बड़ी वजह ये थी कि दिल्ली में विकास का ढिंढोरा खूब पीटा गया, लेकिन उसका फायदा महज़ कुछ लोगों को मिला. तभी तो 2013 में जब शीला दीक्षित की सरकार गई तो लोगों ने कांग्रेस को दोहरे अंक में लाने के क़ाबिल भी नहीं छोड़ा. गुस्सा वाज़िब भी था और उसमें उस वक़्त क्रेन्द्र में कांग्रेस या UPA-2 सरकार के काम काज की नाराज़गी भी शामिल हो गई.

पहली बार तभी आम आदमी पार्टी का उदय हुआ और वो भी दिल्ली को विश्व स्तरीय शहर बनाने के नारों पर नहीं बल्कि भ्रष्टाचार मुक्त और बेहतर सुविधाओं का शहर बनाने के दावे के साथ. सरकार केजरीवाल ने बनाई भी और 49 दिनों में चली भी गई. लेकिन केजरीवाल दिल्ली वालों के दिमाग में बने रहे, लेकिन तभी तक जब तक उन्होंने दिल्ली छोड़कर बनारस जाने का फैसला नहीं लिया.

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केजरीवाल दिल्ली से बाहर निकले तो दिल्ली वालों ने ठगा सा महसूस किया. उसके बाद का कम बैक तो इतिहास में दर्ज़ है लेकिन ध्यान दें कि दिल्ली ने इस बात का भरोसा किया कि वो दोबारा अपनी महत्वाकांक्षा दिल्ली से बाहर नहीं ले जाएंगे. लेकिन पिछले कई महीनों में केजरीवाल दिल्ली का काम करते कम दिखे और में नरेंद्र मोदी से झगड़ते हुए ज़्यादा नज़र आए. मोदी सरकार ने भी दिल्ली की तरफ देखना इसलिए बंद कर दिया क्योंकि नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोका तो दिल्ली वालों ने.

मतलब, दिल्ली अहम और महत्वाकांक्षा की लड़ाई में पिस रही है और दोनों सरकारों की चिंता एक दूसरे को नीचा दिखने के ज़्यादा और दिल्ली के बारे में सोचने की कम मालूम पड़ती है.

क्या करें दिल्ली वाले

दिल्ली पहले भी कई क्रांतियों की जननी रही है. ज्यादा पीछे नहीं भी जाएं तो अन्ना का आंदोलन तो सबको याद ही होगा. दिल्ली तिरंगा लिए सड़कों पर थी. जब दिल्ली के नेता दिल्ली को अनाथ छोड़ बाहर निकलने की तैयारी कर रहे हैं और लोगों के पास सत्ता परिवर्तन का कोई तुरंत मौका है नहीं, ऐसे में लोगों का गुस्सा क्या फिर से सड़कों पर दिखेगा? या फिर लोग अपनी किस्मत के साथ समझौता कर खामोश रहेंगे? या फिर ये सोच लें कि झगड़ना तो नेताओँ का काम है. उन्हें क्या जब तक सस्ती बिजली और कई इलाकों में न मिलने वाला मुफ़्त पानी मिल रहा है. या ये सोचें कि मोदी सरकार के पास दिल्ली को सुरक्षा देने के अलावा भी कई और महतवपूर्ण काम हैं जिनमे आम आदमी पार्टी के आरोपी विधायकों को जेल भेजना भी शामिल है.

लेकिन एक बात तो तय है कि लोगों का धीरज भी जवाब देने लगा है. वो सोच जरूर रहे हैं कि वो कोसे किसे, केजरीवाल को, मोदी को, नेताओं को पूरी जमात को या फिर अपनी किस्मत को, जिसने उन्हें रोटी की खातिर दिल्ली में पटक रखा है.

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लेखक

कुमार कुणाल कुमार कुणाल

लेखक आजतक में पत्रकार हैं.

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