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Updated: 31 दिसम्बर, 2015 07:48 PM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
  @rmisra
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कोलकाता में सीपीएम की चार-दिवसीय अहम बैठक में मुद्दा रहा कि आगामी विधानसभा चुनावों में वह पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी की सरकार को उखाड़ने के लिए कांग्रेस से गठबंधन कर सकती है. हालांकि इस फैसले पर मुहर जनवरी में प्रस्तावित पोलित ब्यूरो की बैठक में ही लगेगी लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस से करार की कोशिश इसलिए की जा रही है क्योंकि राज्य में उसे ममता से बड़ी चुनौती बीजेपी से मिलने की उम्मीद है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि ममता बनर्जी ने 2011 के विधानसभा चुनावों में अपने मां, माटी और मानुष के दावे पर पश्चिम बंगाल से वामदलों का सफाया कर दिया था. इस मुकाम के लिए ममता ने 1997 में कांग्रेस छोड़ने के बाद त्रिनमूल कांग्रेस को लांच किया और कभी बीजेपी का सहारा लेकर अपना वोट प्रतिशत बढ़ाया तो कभी कांग्रेस का दामन थामकर विधानसभा और लोकसभा में अपनी सीटों में इजाफा किया. इसके बावजूद अप्रैल 2015 में सीपीएम की 21वीं कांग्रेस में पारित रेजोल्यूशन में पार्टी ने बीजेपी को अपना सबसे बड़ा दुश्मन बताया और दूसरे नंबर का दुश्मन कांग्रेस को घोषित किया है. लिहाजा अब सीपीएम जनरल सेक्रेटरी ने अपने बयान ‘राजनीति में हां और नहीं का कोई मतलब नहीं होता है’ से यह साफ कर दिया है कि उसकी राजनीति में कांग्रेस, बीजेपी और टीएमसी को दुश्मन या दोस्त बोलने का भी कोई मतलब नहीं है.

अप्रैल 2016 में होने वाले पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनावों को मद्देनजर रखते हुए कोलकाता की इस बैठक में जहां सभी सदस्यों की मोजूदगी रहती है, पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने एक खास दलील रखी. पार्टी का मानना है कि देश और राज्य में मौजूदा राजनीतिक हालात बीजेपी के पक्ष में है लिहाजा राज्य के चुनावों में बीजेपी की किसी लहर को पश्चिम बंगाल में रोकने के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह अपने कुछ दुश्मनों को दोस्त बनाने का काम करे. इसलिए यह जरूरी है कि उसे अपने हां और नहीं के फर्क को हटाना होगा.

सीपीएम की 21वीं कांग्रेस ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया था कि यूपीए-2 के कार्यकाल में हुए व्यापक भ्रष्टाचार के चलते पार्टी कांग्रेस से न तो चुनाव के पहले और न ही चुनाव के बाद किसी तरह का गठजोड़ करेगी. लिहाजा प्रकाश करात के बयान का मतलब हुआ कि भले पार्टी के हजारों-लाखों कार्यकर्ताओं को एकत्रित कर करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद यह प्रस्ताव पारित किया, लेकिन अब उसकी राजनीति में इस प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है. वहीं इसी 21वीं कांग्रेस में यह भी तय हुआ था कि वह सांम्प्रदायिक शक्तियों को रोकने के लिए गैर-कांग्रेसी सेक्युलर पार्टियों के साथ तालमेल बैठाने की जुगत में रहेगी लेकिन करात के बयानों के बाद अब गैर-कांग्रेसी सेक्युलर पार्टियों का भी कोई मतलब नहीं रह गया है.

ऐसे में यह साफ है कि वामदलों को पश्चिम बंगाल के मौजूदा राजनीतिक हालात से यह लगने लगा है कि आगामी चुनावों में बीजेपी एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर सकती है. लिहाजा जरूरी है कि कांग्रेस और टीएमसी का गठजोड़ तोड़ा जाए जिससे चुनावों के लिए ममता बनर्जी के पास सत्ता बचाने के लिए महज दो गठजोड़ों का विकल्प बचे. पहला, गैर-कांग्रेसी सेक्युलर दलों का या कह लें बिहार जैसा कोई महागठबंधन जिसमें कांग्रेस शामिल न हो. दूसरा, वह बीजेपी के साथ गठबंधन करे जिससे बिहार जैसे महागठबंधन में कांग्रेस और वामदल शामिल हो सकें. अब पहली स्थिति में ममता बनर्जी को मुलायम, लालू और नीतीश जैसे नेताओं को साथ लेना होगा जिससे उन्हें हमेशा से परहेज रहा है. ऐसा होने पर वामदल ममता बनर्जी को राजनीतिक तौर पर अलग-थलग करने में कामयाब हो जाएगी. वहीं दूसरी स्थिति में अगर ममता एक बार फिर बीजेपी के साथ करार कर लें तो बिहार जैसे महागठबंधन से वह बीजेपी को पश्चिम बंगाल में सिर उठाने से रोक सके. अब रहा सवाल कांग्रेस का तो सीपीएम यह पहले ही साफ कर दे रही है कि उसका हां और ना में कोई फर्क नहीं है.

लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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