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Updated: 15 सितम्बर, 2018 05:54 PM
विकास त्रिपाठी
विकास त्रिपाठी
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देश में केंद्र सरकार के खिलाफ गठबंधन की राजनीति की शुरूआत 1977 में हुई. उस दौर में इंदिरा गांधी और कांग्रेस इतना मजबूत थे कि किसी भी एक पार्टी के लिए उन्हें हराना लगभग असंभव था. लेकिन 1977 में अपने इतिहास में पहली बार कांग्रेस हारी और गठबंधन की सरकार बनी. 1989 से लेकर 2014 तक किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और गठबंधन की सरकारें बनती रहीं. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में पहली गैर कांग्रेसी गठबंधन सरकार थी जिसने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया. लगातार 3 चुनावी हार से सबक सीखते हुए 2004 में सोनिया गांधी ने गठबंधन के जरिये ही वाजपेयी की भाजपा को शिकस्त दी थी.

2014 में कांग्रेस को अपने इतिहास में सबसे बुरी शिकस्त मिली. पहली बार कांग्रेस को 20 प्रतिशत से कम वोट और 50 से कम सीटें मिली. लेकिन उससे भी ज्यादा चिंता का विषय यह है कि जिस तरह से पिछले 4 सालों में एक के बाद एक राज्यों के चुनाव मे कांग्रेस हारी है उससे भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा साकार होने की तरफ बढ़ता दिख रहा है.

दरअसल जिस तरह से भाजपा ने पिछले 4 सालों में देश के अलग-अलग राज्यों में जीत हासिल की है उससे जो भाजपा 2014 में 7 राज्यों में थी वो अब 18 राज्यों में सरकार में है. भाजपा के इस विस्तार से सभी पार्टियां काफी चिंतित हैं. खासतौर से यूपी में भाजपा की जबरदस्त जीत के बाद देश की ज्यादातर राजनैतिक पार्टियां अपने राजनैतिक जनाधार को बचाये रखने को लेकर अलग-अलग राजनैतिक गठजोड़ की संभावनाओं को तलाश रही हैं.

allianceभाजपा के विस्तार से सभी पार्टियां काफी चिंतित हैं

भाजपा के इस विजयी अभियान से अन्य दलों की चिंता को इस बात से समझा जा सकता है कि गोरखपुर और फूलपुर के उप चुनाव में प्रदेश की दो धुर विरोधी पार्टियों, सपा और बसपा ने अपनी राजनैतिक जमीन बचाने के लिए हाथ मिला लिया. चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले रहे. मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री की सीट भाजपा हार गई और गठबंधन की जीत हुई. इस जीत ने देश की तमाम पार्टियों को ऑक्सीजन देने का काम किया. ये गठबंधन का ऐसा अनोखा प्रयोग था जो सफल रहा. देश में संदेश गया कि गठबंधन के जरिये भाजपा को उसके गढ़ में भी मात दी जा सकती है. उसके बाद कैराना और नूरपुर के चुनावी नतीजों ने ये तय कर दिया कि भाजपा के विजयी रथ को रोका जा सकता है.

देश की अलग-अलग पार्टियों के बीच भाजपा को हराने के लिए एक राष्ट्रव्यापी गठजोड़ बनाने को लेकर विचार-विमर्श शुरू हो गया. कर्नाटक चुनाव में जब किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो एक दूसरे की विरोधी पार्टी कांग्रेस-जेडीएस के गठजोड़ ने भाजपा को सत्ता से बाहर रखा. कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान जिस तरह से देश की तमाम विपक्षी पार्टियों ने शिरकत करके एकता दिखाई उससे लगा कि पार्टियां अपने आपसी मतभेद और महत्वाकांक्षा को अलग रखकर एक महागठबंधन बनाने को तैयार हैं.

लेकिन ये राजनीति की विडंबना है कि अक्सर जो दिखाई देता है हकीकत उससे अलग होती हैं. कर्नाटक चुनाव के दौरान जब राहुल गांधी ने अपने प्रधानमंत्री बनने की बात कही तो संभावित महागठबंधन के किसी भी दल ने इसे सहजता से स्वीकार नहीं किया.

इस महागठबंधन की कई महादिक्कतें भी हैं आइये उसे समझने की कोशिश करते हैं

1- सबसे पहले ये कि, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ महा विपक्ष का चेहरा कौन होगा. यानी महाविपक्ष किस पार्टी और नेता की अगुवाई में चुनाव लड़ेगा.

2- इस संभावित महागठबंधन में कई ऐसी पार्टियां हैं जिनके नेता खुद को भविष्य के प्रधानमंत्री के तौर पर देखते हैं. उनकी महत्वाकांक्षा इस संभावित गठबंधन के लिए एक बड़ा खतरा है.

3- दरअसल ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों की राजनैतिक इमारत कांग्रेस के अवशेष पर खड़ी है, यानी जैसे-जैसे कांग्रेस इन राज्यों में खत्म होती गई वैसे-वैसे इन पार्टियों का जनाधार और राजनैतिक विस्तार होता गया. अब ये पार्टियां कांग्रेस से गठबंधन करके अपने राजनैतिक आधार को दांव पर नहीं लगाना चाहतीं. इन्हें ये डर है कि भाजपा को हराने के चक्कर में कांग्रेस से गठबंधन करने से कहीं इनका राजनैतिक आधार खिसक ना जाए और कांग्रेस की जड़ें मजबूत ना हो जाएं.

4- इस महागठबंधन का उद्देश्य कोई वैकल्पिक नीति, नेतृत्व या विचारधारा नहीं बल्कि सिर्फ भाजपा को सत्ता से बाहर रखना है.

महागठबंधन के पिछले कुछ दिनों का आकलन

अब अगर हम लगभग पिछले 50 दिन का आकलन करें तो महागठबंधन 3 महत्वपूर्ण अवसरों पर पूरी तरह बिखरा नजर आया.

- 20 जुलाई को विपक्ष के द्वारा लाये गये अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार को 325 वोट की तुलना में विपक्ष को महज 126 वोट मिले. बहस के दौरान भी विपक्ष सरकार को घेरने में भी असफल रहा.

- 9 अगस्त को राज्य सभा के उप सभापति के चुनाव में भाजपा ने अपने सहयोगी दल जेडीयू के उम्मीदवार को अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया. कोई भी विपक्षी दल अपना उम्मीदवार तक खड़ा करने को तैयार नहीं था. अंत में कांग्रेस को अपना उम्मीदवार खडा करना पड़ा. और चुनाव में जहां जेडीयू प्रत्याशी को 125 वोट मिले वहीं इस महागठबंधन को महज 105 वोट मिले. 41 सालों के बाद पहली बार राज्य सभा में कांग्रेस का उप सभापति नही था.

- 10 सितंबर को पेट्रोल-डीजल के दामों के विरोध में बुलाए गये भारत बंद में तमाम विपक्षी दलों ने कांग्रेस का साथ देने से इंकार कर दिया. उन्होंने महंगाई के विरोध में अपना विरोध आंदोलन अलग से किया. सपा, बसपा जैसी पार्टियों ने अपने आपको इस विरोध से अलग रखा. मायावती ने भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस पर भी हमला बोला और दोनों पार्टियों को इस मंहगाई के लिये जिम्मेदार बताया.

अब सवाल ये उठता है कि जो विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव, राज्य सभा के उप सभापति और महंगाई जैसे मुद्दे पर एकजुट नहीं हो सकता वो तमाम विरोधाभास और महत्वाकांक्षा को ताक पर रखकर 2019 में कैसे भाजपा का मुकाबला करेगा.

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लेखक

विकास त्रिपाठी विकास त्रिपाठी @vikas.tripathi.18488

लेखक आजतक में पत्रकार हैं

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