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Updated: 27 नवम्बर, 2015 07:26 PM
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राहुल गांधी और कैप्टन अमरिंदर सिंह एक दूसरे को पसंद नहीं करते. फिर भी राहुल के पसंदीदा प्रताप सिंह बाजवा से इस्तीफा लेकर अमरिंदर को कप्तानी सौंपनी पड़ी है.

राहुल पर राय
इसी साल सितंबर में अमरिंदर ने टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए इंटरव्यू में राहुल गांधी के बारे में कहा था, "असलियत अभी तक राहुल को समझ नहीं आई है. कहीं जाना और वहां बैठना, दलित के घर में खाना खा लेना किसी समस्या का समाधान नहीं है, बस नाटक है. इसलिए वो मोदी का मुकाबला नहीं कर सके. मोदी तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं, 20 साल तक संघ के प्रचारक रहे हैं, इसलिए अनुभव एक जैसा नहीं हो सकता."
इसके साथ ही अमरिंदर ने उम्मीद जताई कि राहुल भी सीख लेंगे, लेकिन सोनिया गांधी को तब तक अध्यक्ष पद पर बने रहना चाहिए जब तक बेटा उनकी जगह लेने के काबिल नहीं हो जाता.
हिंसा में मारे गए दो युवकों के परिवार वालों से मिलने राहुल गांधी 5 नवंबर को फरीदकोट गए थे. इस दौरान अमरिंदर और बाजवा दोनों की मौजूदगी को मेलजोल के रूप में देखा गया. राहुल ने कहा भी, "हमें साथ रहना होगा, कांग्रेस पार्टी पंजाब में एकजुट होकर संघर्ष करेगी."
इससे कयास लगाए जाने लगे कि राहुल गांधी दोनों के बीच समझौता कराने में कामयाब रहे हैं - लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं था.

पंजाब अकेला नहीं
पंजाब ही नहीं राजस्थान और हरियाणा में भी राहुल की पसंद के हिसाब से प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए. नए नेतृत्व पुराने दिग्गजों को कहीं रास नहीं आए.
पंजाब की तरह राजस्थान में भी राहुल ने सचिन पायलट और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत में बीच बचाव की कोशिश की.
दोनों नेताओें को अहम बताते हुए राहुल ने कहा, "हम गहलोत के अनुभव को बर्बाद नहीं कर सकते और नहीं पायलट की ऊर्जा को. मैं ऊर्जा और अनुभव का मिश्रण चाहता हूं." राहुल की ये बात भी बेअसर ही रही. सचिन, गहलोत ही नहीं सीपी जोशी के साथ भी कभी तालमेल नहीं बिठा पाए.

पंजाब और राजस्थान की तरह हरियाणा में भी बुरा हाल है. हरियाणा में राहुल ने अपने चहेते अशोक तंवर को सूबे की कमान सौंपी थी. पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा को अशोक तंवर फूटी आंख नहीं सुहाते. हुड्डा और तंवर के तेवर दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई दो रैलियों में साफ साफ देखा गया.
हरियाणा में तंवर को हुड्डा और कुमारी शैलजा के समर्थकों का विरोध झेलना पड़ता है. हुड्डा गुट उनके बेटे दीपेंद्र को नेता बनाए जाने का पक्षधर दिखता है.
कहानी मध्य प्रदेश की भी ज्यादा जुदा नहीं है. कहने को तो अरुण यादव पीसीसी चीफ हैं लेकिन दिग्विजय सिंह, कमल नाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और अजय सिंह जैसे नेता उनकी नाक में लगातार दम किए रहते हैं. 2003 से सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस की नजर और उम्मीद अब 2018 विधानसभा चुनावों पर टिकी है. रतलाम उप चुनाव में जीत ने जख्मों पर मरहम का काम किया है. हो सकता है चुनावों से पहले कमान सिंधिया को सौंप दी जाए.

दबाव की सियासत
बाजवा ने एक बार आरोप लगाया कि अमरिंदर अपनी नई पार्टी बनाने की तैयारी कर रहे हैं. बाजवा ने नाम भी बता दिए - पंजाब विकास पार्टी. अमरिंदर शायद यही चाहते भी थे. जब खुल कर बात सामने आ ही गई तो अमरिंदर ने नई पार्टी की बात भी कबूल कर ली. नाम को लेकर उनका कहना रहा कि उन्हें इसके लिए 49 नाम सुझाए गए थे जिसमें से पंजाब विकास पार्टी भी एक रहा.
अमरिंदर के खिलाफ अपना पक्ष मजबूत करने के लिए बाजवा ने विधायकों की ओर से आलाकमान को एक प्रस्ताव भी भिजवाया. प्रस्ताव में कहा गया, "कांग्रेस विधायक दल सर्वसम्मति से मानता है कि मीडिया में आई खबर कि कुछ कांग्रेस विधायक अलग पार्टी बना रहे हैं, कांग्रेस को कमजोर करने के लिए शरारतपूर्ण तरीके से प्लांट की गई है. पूरा कांग्रेस विधायक दल हाई कमान के नेतृत्व तले हं  और अकाली दल-बीजेपी सरकार के राजनीतिक आतंक से एक सुर में और एक साथ लड़ने का संकल्प लेता है." इस प्रस्ताव पर 44 में से 30 विधायकों ने दस्तखत किए थे.

बाजवा को केंद्र की राजनीति में शुमार किया जा सकता है. गहलोत को लेकर भी जब तब ऐसी ही चर्चा रही है. मध्य प्रदेश से जुड़े ज्यादातर नेता पहले से ही केंद्रीय राजनीति में सक्रिय हैं. अमरिंदर ने जो रास्ता अख्तियार किया और अपनी बात मनवा कर ही रहे - इसका दूसरे राज्यों पर असर पड़ना लाजिमी है. खास कर तब जब अमरिंदर की अगुवाई में कांग्रेस को पंजाब के लगातार दो विधान सभा चुनावों - 2007 और 2012 - में शिकस्त झेलनी पड़ी हो.   

राहुल के नेतृत्व पर सवाल खड़ा करने वाले नेताओं में अमरिंदर सिंह को आगे आगे देखा गया. राहुल की ताजपोशी टाले जाने में ऐसे विरोध की भी भूमिका मानी जाती है.
राजनीति में मजबूत वही होता है जिसका जनाधार होता है. जिसके समर्थकों की तादाद अच्छी खासी होती है. कांग्रेस को ये बात ठीक से समझना होगा. मनमोहन सिंह जैसा मौका बार बार नहीं मिलता.

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