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Updated: 19 सितम्बर, 2016 03:22 PM
संतोष चौबे
संतोष चौबे
  @SantoshChaubeyy
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विशाल भरद्वाज की फिल्म हैदर, जो कश्मीर में अशांति की पृष्ठभूमि पर बनी थी, काफी विवादों में रही. एक बड़ा विवाद इस बात पर था कि फिल्म ने AFSPA (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट) को निहायत ही बुरे रूप में पेश किया. फिल्म के मुख्य किरदार के अनुसार, AFSPA कश्मीर में 'चुत्जपा' बन चुका है और कश्मीरियों की जिंदगी को नरक बनाने में इसका मुख्य योगदान है. चुत्जपा हिब्रू का शब्द है जिसका मतलब है बेशर्म दुस्साहस या धृष्टता.

AFSPA एक विशेष अधिनियम है जिसके द्वारा सैन्य बलों को अशांत क्षेत्रों में विशेष अधिकार दिए जाते हैं. ये कानून फिलहाल पूर्वोत्तर के राज्यों तथा जम्मू और कश्मीर में लागू है. AFSPA हमेशा से एक विवादस्पद अधिनियम रहा है और सैन्य बलों पर आरोप लगता रहा है कि सेना AFSPA की आड़ में मानवाधिकार उल्लंघन और बर्बरता में लगीं हुईं है. सुप्रीम कोर्ट ने भी सैन्य बलों द्वारा मनवाधिकार उल्लंघन पर चिंता जताते हुए सरकार से सवाल किया है कि आखिर AFSPA लगाने के दशकों बाद भी उन इलाकों में सुधार क्यों नहीं हो पाया है.

ऐसे विवादों के लिए AFSPA चुत्जपा है लेकिन उरी जैसे आतंकवादी घटनाएं बताती हैं कि जब भी कश्मीर से AFSPA हटाने की बात होती है तो सेना क्यों पुरजोर विरोध करती है. आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं.

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साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल से उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक उरी की घटना सहित 2016 में कश्मीर में 61 जवान शहीद हो चुके हैं. ये काफी बड़ी संख्या है. वहीं, इस साल अब तक 115 आतंकवादी मारे गए हैं. यानी हर दो आतंकवादियों पर हमारा एक जवान शहीद हो रहा है. और वो उन नागरिकों को बचाने में शहीद हो रहें हैं जो AFSPA को चुत्जपा या ऐसा ही कुछ और कहते हैं, पाकिस्तान का झंडा फहराते रहते हैं या भारत को गाली देते रहते हैं.

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 तार्किक है AFSPA को जारी रखना

चाहे कितना भी बड़ा आतंकवादी हमला हो, कश्मीर के राजनीतिक दलों और नेताओं की तरफ से कभी पाकिस्तान की कड़े शब्दों में आलोचना नहीं सुनाई देती. फिर चाहे वो उरी हमला हो या फिर 2002 का कालूचक संहार जिसमें सुरक्षा बलों सहित 36 लोग मारे गए थे. या फिर वो अनगिनत आतंकवादी हमले ही जिनमें अब तक हज़ारों जवान शहीद हो चुके हैं.

पाकिस्तान में सोशल मीडिया पर ये प्रचारित किया जा रहा है कि भारत ने ये हमला खुद ही करवाया है ताकि वो संयुक्त राष्ट्र और विश्व में खुद को पीड़ित साबित कर सके और दुनिया का ध्यान कश्मीर में जारी अशांति से हटा सके. ये भी तर्क दिया जा रहा है कि जारी अशांति के मद्देनज़र कश्मीर में कड़ी सुरक्षा है और सुरक्षा बल चप्पे चप्पे पर तैनात हैं. ऐसे में विदेशी आतंकवादी भारतीय सेना के कैंप तक नहीं पहुंच सकते. पाकिस्तान भी कल यही राग अलापेगा. लेकिन इन्ही तर्कों में छुपा है के क्यों सेना कश्मीर में तैनाती के लिए AFSPA की मांग करती है, और वो है कश्मीर में जारी उग्रवाद की स्थानीय लोगों द्वारा मदद.

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कश्मीर की जनसंख्या का एक हिस्सा, जो पाकिस्तानी प्रोपेगंडा पर चलता है, वो खाता भारत का है, लेकिन गाता पाकिस्तान का है. अलगाववादी या सलाहुद्दीन जैसे आतंकी तो सबकी निगाह में लेकिन उनका क्या जो आम जनता के बीच रहते हैं. भारतीय सेना और सुरक्षा बल कश्मीर के लगभग हर हिस्से में तैनात है लेकिन उन्हें ये नहीं पता है कि कब कौन हमला कर देगा और किस घर में आतंकवादी छिपे हुए हैं.

आतंकवादियों के जनाज़े में हज़ारों की भीड़ का जुटना ये दिखता है कि आप हमेशा संशय में रहेंगे कि किसपर भरोसा करें और किस पर नहीं. सीमा पार से घुसपैठ के मामलों में काफी कमी आयी है फिर भी यदि कश्मीर में दो महीने से ऊपर अशांति का दौर जारी है तो इसके पीछे कहीं न कहीं स्थानीय मदद ही है.

भारतीय सुरक्षा बलों को अविश्वास के इन विषम परिस्थितियों में कार्य करना पड़ता है जहां उनका दुश्मन किसी भी घर से और किसी भी कोने से निकल सकता है. अगर इसके लिए सेना AFSPA की मांग करती है तो ये तार्किक है.

रही बात AFSPA के दुरूपयोग की तो हमारा सुप्रीम कोर्ट तक उसका संज्ञान ले चुका है. AFSPA को कश्मीर से हटाना कोई सीधा हल नहीं हो सकता. हां, हमें गंभीरता से इसके दुष्परिणामों और दुरूपयोग पर कार्य करना चाहिए और इस दशकों पुराने कानून में जो बदलाव हों, करने चाहिए. कश्मीर में सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के कुछ मामलों में कार्यवाही हुई है लेकिन और सख्ती करने की जरूरत है.

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लेखक

संतोष चौबे संतोष चौबे @santoshchaubeyy

लेखक इंडिया टुडे टीवी में पत्रकार हैं।

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