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Updated: 25 मई, 2020 02:14 PM
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उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackarey) के लिए विपक्षी दलों के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग का अनुभव, लगता है नये दोस्तों के साथ खूब मस्ती वाली पार्टी जैसा ही रहा होगा. महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी सरकार के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के ताजा तेवर तो ऐसे ही इशारे कर रहे हैं. महाराष्ट्र बीजेपी के सियासी अटैक के बाद उद्धव ठाकरे का रिएक्शन स्वाभाविक है. बीजेपी ने राज्य भर में समर्थकों से काला मास्क पहन कर हाथों में तख्ती लिये हुए घरों के बाहर खड़े होने के लिए कहा था और लोगों एक तरीके से ब्लैक फ्राइ़डे ही बना दिया. बीजेपी की ठाकरे सरकार विरोधी मुहिम का तरीका भी वैसा ही रहा जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोगों को कोरोना वॉरियर्स के सपोर्ट में ताली-थाली बजाने से लेकर दीया जलाने जैसे टास्क दिया करते रहे हैं. उसी से प्रेरणा लेकर महाराष्ट्र बीजेपी नेता देवेंद्र फडणवीस और चंद्रकांत पाटिल ने निशाना उद्धव ठाकरे पर साध लिया.

निश्चित रूप से उद्धव ठाकरे को अपने खिलाफ हो रहे हमले पर पलटवार का पूरा हक है, लेकिन जो तरीका शिवसेना नेतृत्व ने अपनाया है उसका कारगर होना तो दूर बैकफायर करने की संभावना ज्यादा लगती है. थोड़ा थोड़ा असर तो दिखने भी लगा है.

उद्धव ठाकरे ने केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर जोरदार हमला बोला है, लेकिन उसकी शुरुआत से उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) सरकार को निशाने पर लेकर किया है. अब कौन बताये कि प्रधानमंत्री पद का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है, प्रधानमंत्री पर हमला बोलने वाला नहीं. कारगर नुस्खों का नुकसान ये होता है कि गलत इस्तेमाल से फायदे की जगह उलटा नुकसान होने लगता है.

क्या उद्धव ठाकरे को नहीं लगता कि बीजेपी के खिलाफ लड़ने के लिए वो अकेले ही काफी हैं - और अगर कांग्रेस (Congress) के चक्कर में पड़े तो वो शिवसेना को भी ले डूबेगी.

उद्धव पहले अपनी लड़ाई लड़ें

उद्धव ठाकरे की सरकार ने मुंबई में घरेलू उड़ानों के लिए रोजाना 25 टेक ऑफ और 25 ही लैंडिंग की अनुमति देने पर सहमति तो दे दी है, लेकिन हर फ्लाइट में मुसाफिरों को दिया जाने वाला मैसेज शायद वो भूल गयी - दूसरों की मदद से पहले अपनी मदद करें.

उद्धव ठाकरे को ये तो मालूम होगा ही कि फिलहाल उनकी कुर्सी जरूर बच गयी है, लेकिन खतरा खत्म नहीं हुआ है. उद्धव ठाकरे की कुर्सी पर मंडराता खतरा टलने या कम होने की जगह बढ़ने लगा है. महाराष्ट्र में आसन्न राजनीतिक संकट को लेकर उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मदद मांगी थी और मिल भी गयी, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि अब वो फिर से दो-दो हाथ के लिए ताकतवर हो गये हैं. जीवनदान तात्कालिक राहत के लिए होता है, लंबी आयु का आशीर्वाद नहीं होता.

uddhav thackeray, sonia gandhiये दोस्ती... ले डूबेगी!

सोनिया गांधी के बुलावे पर विपक्ष के 22 दलों की मीटिंग में शामिल होना वास्तव में अपनेआप ने काफी नया अनुभव दिया होगा. कांग्रेस और एनसीपी के साथ महाराष्ट्र में गठबंधन की सरकार चलाते उद्धव ठाकरे को छह महीने होने को हैं, लेकिन विपक्ष के उन राजनीतिक दलों के साथ बातचीत और जो मुद्दे वे उठा रहे होंगे. जिस तरीके से बातचीत चल रही होगी, ये सब इतने करीब से उद्धव ठाकरे को शायद ही कभी देखने को मिला हो. औपचारिक तौर पर तो हरगिज नहीं.

नयी नयी चीजें निश्चित रूप से जोश से भर देती हैं और कुछ दिनों तक उसका असर भी ज्यादा होता है. विपक्ष की मीटिंग में शामिल होने के 24 घंटे के अंदर ही उद्धव ठाकरे ने एजेंडा आगे बढ़ाना शुरू कर दिया. दरअसल, सोनिया गांधी की मीटिंग में केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ एक 'कॉमन एक्शन प्लान' की कोशिश हुई - जिसमें कोरोना वायरस को लेकर लॉकडाउन और 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज पर सरकार को कठघरे में खड़ा करे के उपाय खोजे जायें और फिर एक कॉमन एजेंडा के साथ सारे विपक्षी दल आगे बढ़ें.

उद्धव ठाकरे ने तो आव न देखा ताव एजेंडा आगे बढ़ा दिया. शिवसेना के पास तो बरसों से बना बनाया राजनीतिक हथियार भी है ही - सामना. फिर क्या था, शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत ने यूपी की योगी सरकार को लेकर लिख मारा. धड़ाधड़. टॉपिक भी हॉट ही चुन लिया - बसों के लेकर हुई राजनीति वैसे भी गर्मागर्म मुद्दा तो है ही.

सामना में बिलकुल संजय उवाच वाले अंदाज में संपादकीय छपा. समझाने की पूरी कोशिश रही कि एडॉल्फ हिटलर ने यहूदियों के साथ जो सलूक और अत्यायचार किये थे, यूपी में योगी आदित्यनाथ की सरकार देश भर से लौटने वाले मजदूरों के साथ वैसा ही व्यवहार कर रही है. मजदूरों को उन इलाकों में जाने की अनुमति नहीं मिल रही हैं जहां से वे आते हैं.

संजय राउत का ये कहना कि योगी सरकार अपने ही लोगों को उत्तर प्रदेश में घुसने नहीं दे रही है, बसों को लेकर हुई हाल की राजनीति की तरफ इशारा कर रहा है. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने यूपी के मजदूरों को उनके घरों तक छोड़ने के लिए 1000 बसों का इंतजाम किया था, लेकिन तीखी राजनीतिक नोक-झोंक के बावजूद जब एंट्री नहीं मिली तो 24 घंटे तक बॉर्डर पर खड़ा रहने के बाद वापस भेज दिया.

उद्धव ठाकरे कांग्रेस के भरोसे न रहें तो बेहतर होगा

योगी आदित्यनाथ के साथ उद्धव ठाकरे हिसाब पहले ही बराबर कर चुके हैं. अब और जरूरत नहीं है. ज्यादा कुछ हुआ तो फजीहत ही होगी. योगी आदित्यनाथ पर हमला बोल कर उद्धव ठाकरे की अयोध्या यात्रा कभी कामयाब नहीं हो सकती. इसलिए नहीं कि नाराज होने पर योगी आदित्यनाथ शिवसेना प्रमुख को स्टेट गेस्ट नहीं बनाएंगे, बल्कि इसलिए क्योंकि ऐसा हुआ तो वो हिंदुत्व की राजनीति में हाशिये पर चले जाएंगे.

मान भी लेते हैं कि पालघर मॉब लिंचिंग पर योगी आदित्यनाथ का फोन रिसीव करना उद्धव ठाकरे को बुरा लगा होगा, लेकिन बुलंदशहर पर फौरन ही नसीहत देकर हिसाब तो बराबर कर ही लिया था. भला और क्या चाहिये. नसीहत भी करीब करीब वैसी ही रही जैसे उमर अब्दुल्ला लॉकडाउन को लेकर लोगों को टिप्स देते रहते हैं - ये कहते हुए कि मेरे पास लंबा अनुभव है. शिवसेना के मुखपत्र सामना में एक लेख प्रकाशित हुआ है और टाइटल है - 'बाबा मन की अंकुर खोल'. लिखा है - 'यूपी सरकार जो कर रही है वो अमानवीय है. वो अपने ही लोगों को राज्य में घुसने नहीं दे रही है. वाराणसी में प्रधानमंत्री ने दलितों के पैर धोये थे और बताया था कि मानवता क्या होती है. लेकिन आज उस मानवता का क्या हुआ?' संजय राउत ने लगे हाथ महाराष्ट्र बीजेपी पर भी पलटवार किया है. लिखते हैं, 'महाराष्ट्र में बीजेपी लोगों को बता रही है कि ठाकरे सरकार ठीक से काम नहीं कर पा रही है - असल में तो गुजरात और यूपी सरकार असफल रही है.'

सामना के लेख पर योगी आदित्यनाथ के ऑफिस के ट्विटर हैंडल से जवाब दिया गया है, 'अपने खून पसीने से महाराष्ट्र को सींचने वाले कामगारों को शिवसेना-कांग्रेस की सरकार से सिर्फ छलावा ही मिला. लॉकडाउन में उनसे धोखा किया, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया और घर जाने को मजबूर किया. इस अमानवीय व्यवहार के लिए मानवता उद्धव ठाकरे को कभी माफ नहीं करेगी.' योगी आदित्यनाथ की तरफ से इस सिलसिले में कई ट्वीट किये गये हैं - और शिवसेना के साथ साथ कांग्रेस को भी लपेटा गया है. साफ है बीजेपी भी उद्धव ठाकरे की ताजा मंशा अच्छी तरह समझ रही है.

उसी बात को उद्धव ठाकरे ने आगे बढ़ाया है और उसके तार दिल्ली से जोड़ दिये हैं. महाराष्ट्र के लोगों से मुखातिब, उद्धव ठाकरे ने कहा है, 'केंद्र सरकार की तरफ से अभी तक प्रवासी मजदूरों को उनके गांव भेजने के लिए एक फूटी कौड़ी तक नहीं आई है, जबकि राज्य सरकार ने करोड़ों रुपये खर्च किये हैं.'

उद्धव ठाकरे ने नाम तो नहीं लिया, महाराष्ट्र बीजेपी के हमले का दर्द साफ साफ नजर आ रहा था. बोले, 'जो लोग ऐसे महासंकट में ओछी राजनीति करने पर उतारू हैं, वे शौक से करें लेकिन मेरी सभ्यता और संस्कृति मुझे ऐसे समय में राजनीति करना नहीं सिखाती - मैं अपनी पूरी लगन से जनता की सेवा करता रहूंगा.'

कोई दो राय नहीं कि उद्धव ठाकरे कांग्रेस के सपोर्ट से मुख्यमंत्री बने हैं, लेकिन अभी तो उनको खुद की ही लड़ाई लड़नी है. अपनी लड़ाई जीतने से पहले ही अगर वो कांग्रेस का बचाव और मदद करने की कोशिश करेंगे तो पता चला खुद की लड़ाई ही गवां बैठेंगे.

कांग्रेस के सपोर्ट से मुख्यमंत्री बन गये, इतना भर काफी है. अब बस ये बनाये रखें कि कांग्रेस विधायक भी साथ बने रहें - ऐसा न हो कि साथ छोड़ कर एक वे बीजेपी में जा मिलें. उद्धव ठाकरे की सबसे बड़ी ताकत शिवसेना ही है. बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में जो ताकत उद्धव ठाकरे को शिवसेना मुहैया कराएगी वो कांग्रेस के वश की बात नहीं है. कहीं ऐसा न हो कांग्रेस अपने साथ साथ उद्धव ठाकरे को भी ले डूबे. उद्धव ठाकरे के लिए बेहतर तो यही होगा कि वो शिवसेना के ही भरोसे रहें, कांग्रेस के तो कतई नहीं.

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