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Updated: 21 अप्रिल, 2017 01:27 PM
मोहम्मद शहजाद
मोहम्मद शहजाद
  @mohammad.shahzad.1654
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एक अर्से से अमेरिका की भूमिका वैश्विक नेतृत्व वाली रही है. ट्रंप प्रशासन को इस मामले में अक्षम माना जा रहा था. कारण वैश्विक मामलों में उनकी दखल न देने की नीति थी लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के चंद महीनों के भीतर ही जिस तरह से उन्होंने पहले सीरिया में क्रूज मिसाइलों से और उसके बाद अफगानिस्तान में महाबम से हमला किया, ऐसे सारे कयास धरे रह गए हैं. अफगानिस्तान के नंगरहार प्रांत के अचिन जिले में आईएस ठिकानों को निशाना बनाकर अमेरिका के द्वारा किया गया ये अब तक का सबसे बड़ा गैर-परमाणु बम हमला है. जीबीयू-43बी नामक इस बम को ‘मदर ऑफ ऑल बम्ब्स’ भी कहा जाता है. लगभग 10 हजार किलो वजनी इस बम ने एक मील के दायरे की हर दिशा में अपनी धमक छोड़ी है. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1945 में अमेरिका के द्वारा जापान के हीरोशिमा में गिराए गए परमाणु बम ‘लिटिल ब्वॉय’ और नागासाकी में गिराए गए ‘फैट मैन’ के बाद इसे अब तक सबसे बड़ा बम धमाका माना जा रहा है.

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बम भारी था तो इसकी गूंज भी दूर तक सुनाई देगी. मुराद महज धमाके के एक मील दायरे और उसके आसपास के इलाके में सुनी इसकी धमक से नहीं बल्कि इसके जरिए पूरे विश्व को दिए गए संदेश से है. इससे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने बारे में उस धारणा को तोड़ने की कोशिश की है कि सैन्य अभियान के मामले में वह अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों से कमजोर हैं. अफगानिस्तान में आईएस के खुरासान माड्यूल को तबाह करके उन्होंने आतंकवाद पर नकेल कसने की अपनी वचनबद्धता जाहिर कर दी है.

अफगानिस्तान में महाबम गिराने से महज एक सप्ताह पहले ही ट्रंप प्रशासन ने सीरिया में एक सैन्य हवाई ठिकाने को निशाना बनाकर 59 टॉमहॉक क्रूज मिसाइलें दागी थीं. यह हमला अमेरिका ने सीरिया के राष्ट्रपति बशर-अल-असद की फौज द्वारा इदलिब प्रांत के शेखहुन शहर में किए गए रसायनिक हमले की जवाब में किया था. इससे बशर-अल-असद की फौजों को समर्थन देने वाले रूस और ईरान जैसे मुल्क तिलमिला गए थे. रूस ने तो अंजाम भुगतने तक की चेतावनी दे डाली थी.

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रूस की नाराजगी से बेपरवाह राष्ट्रपति ट्रंप ने अफगानिस्तान में महाबम गिराकर एक तरह से उसे फिर से चुनौती दे डाली है. बताते चलें कि इनदिनों अफगानिस्तान में रूस और तालिबान के बीच नजदीकियां काफी बढ़ रही है. रूसी राष्ट्रपति पुतिन की मंशा वहां सोवियत संघ के युग वाले बर्चस्व की पुर्नस्थापना है. इसके मद्देनजर रूस तालिबान को हथियार समेत तमाम तरह की सैन्य सहायता मुहैया करा रहा है ताकि वो अमेरिका समर्थित नाटो की फौजों का मुकाबला कर सकें. पाकिस्तान और चीन भी इस काम में उसके सहभागी नजर आ रहे हैं. अफगानिस्तान में अब तक का सबसे बड़ा गैर-परमाणु बम गिराकर अमेरिका ने इस गठजोड़ को सचेत कर दिया. साथ-साथ उसने उत्तरी कोरिया को भी कड़ा संदेश दिया है कि अगर वो बाज नहीं आया तो अगला नंबर उसका होगा. हालांकि उसपर अमेरिकी हमले कोई असर होता नहीं दिखाई दे रहा है और उसके विदेश मंत्रालय के तरफ से प्रतिक्रिया आई है कि अगर उसे उकसाया गया तो कोरियाई तानाशाह किम जोंग उन युद्ध छेड़ने से पीछे नहीं हटेंगे.

यहां सवाल ये उठता है कि क्या राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दूसरे देशों में दखलअंदाजी न करने के अपने चुनावी वादे से पलट गए हैं या फिर अमेरिका सेना पर उनका जोर नहीं चल रहा है? ज्ञात रहे कि 2016 में राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने ‘अमेरिका फर्स्ट’ अर्थात ‘अमेरिका सर्वप्रथम’ या यूं कहें ‘अमेरिका सर्वोपरि’ का नारा दिया था. इसके तहत उनका पूरा जोर अमेरिका पर था न कि विदेश पर. अपने भाषणों के दौरान वह ईराक और अफगानिस्तान में चल रहे अमेरिकी सैन्य अभियान की धुर आलोचना करते थे. इसके लिए उन्होंने अपनी ही पार्टी रिपब्लिकन के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश को जिम्मेदार ठहराया था और कहा था कि ये उनकी गल्तियों का नतीजा है. उनका कहना था कि अब अमेरिका इन सैन्य अभियानों को नैतिक और भौतिक तरीके से सहन करने की स्थिति में नहीं है. यही वजह है कि उन्होंने ईराक और अफगानिस्तान से अमेरिका सेना की वापसी की बात कही थी. उनके इन्हीं युद्ध विरोधी विचारों ने मतदाताओं का रुख उनकी तरफ मोड़ा और उनकी जीत में यही बातें काफी हद तक सहायक सिद्ध हुईं.

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राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी से पहले भी वह इन नीतियों के घोर आलोचक रहे हैं. 2011 में भी उन्होंने कहा था कि ईराक और अफगानिस्तान में अमेरिका अपने सैनिकों की जिंदगियों और धन की बर्बादी कर रहा है. उसके अगले ही साल उन्होंने कहा कि अब सैनिकों के घर वापसी का समय आ गया है. फिर 2013 में उन्होंने कहा कि अमेरिका इन जंगों पर बिलियन डॉलर्स की बर्बादी कर रहा है.

हालिया अफगान हमले में गिराए गए महाबम की कीमत कहीं 16 मिलियन डॉलर तो कहीं 314 मिलियन डॉलर बताई जा रही है. ऐसे में कहना बेजा न होगा कि क्या यह अमेरिकी धन की बर्बादी नहीं है. फिर सवाल यह भी उठता है कि चुनाव प्रचार के दौरान की गई युद्ध-विरोधी और दूसरे देशों के मामले में हस्तक्षेप न करने की बातों का क्या हुआ? क्या वे महज चुनावी जुमलेबाजी थी या फिर ट्रंप ने वोटरों से झूठ बोला था?

ऐसा भी नहीं है कि ये हमले ट्रंप की मर्जी के बिना किए गए हों. हां! ये जरूर है इसपर यूएस कांग्रेस की सहमति नहीं ली गई. फिर अगर अफगान सैन्य अभियान के अमेरिकी कमांडर जॉन निकोल्सन की यह बात मान भी लें कि महाबम गिराने का निर्णय अमेरिकी सैन्य मुख्यालय पेंटागन का था तो भी इसमें ट्रंप की सहमति नजर आती है. हमले के फौरन बाद इसे ‘गौरान्वित क्षण’ करार देना इसकी दलील है.

असल में कट्टरता फैलाने वाले मुस्लिम देशों पर प्रतिबंध लगाने की विवादास्पद सूची, आव्रजन नीतियों जैसे मामलों पर चौतरफा आलोचनाओं से घिरे डोनाल्ड के लिए ये हमले ट्रंप का इक्का साबित हुए हैं. कल तक जो अमेरिकी मीडिया, राजनीतिक दल और उनके नेता उनका जबरदस्त विरोध करते नजर आ रहे थे, सीरिया और अफगान हमले के बाद उनके समर्थन में खड़े नजर आ रहे हैं. भारतीय मूल के सीएनएन के पत्रकार फरीद जकरिया तक ने कह दिया डोनाल्ड ट्रंप अब राष्ट्रपति बन गए हैं. इस तरह देखा जाए तो ट्रंप ने इन हमलों के जरिए घरेलू और बाहरी, दोनों फ्रंट पर बड़ी कामयाबी अर्जित कर ली है.

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लेखक

मोहम्मद शहजाद मोहम्मद शहजाद @mohammad.shahzad.1654

लेखक पत्रकार हैं

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