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Updated: 08 अप्रिल, 2015 10:08 AM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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डियर जनरल साहब!
संबोधन में 'रिटायर्ड' शब्द से जानबूझ कर परहेज कर रहा हूं. फौजी कभी रिटायर नहीं होता, मैं तो मानता ही हूं, दूसरे भी जरूर इत्तेफाक रखते होंगे. अभी अभी आपने इस भरोसे को और मजबूती दे दी है.

जनरल साहब, आप फौजी हैं ['फौजी थे' या 'फौजी रहेंगे' जैसी बातें तो बेमानी होंगी]. दुनिया की बेहतरीन फौज - इंडियन आर्मी की आपने अगुवाई की है. जब हालात कंट्रोल के बाहर हो जाता हैं तो सेना के हवाले कर दिया जाता है.

आप हफ्ते भर जिबूती में डेरा डाले रहे. ऐसे मुश्किल हालात में आप मैदान में डटे रहे जहां जाने के लिए सोचना, पहुंचना और टास्क को पूरा करना न जाने कितने नौकरशाहों और नेताओं के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन जैसा हो सकता है. इसके लिए फौजी जैसी हिम्मत और हौसला दोनों चाहिए.

'ऑपरेशन राहत' के तहत आपने सिर्फ भारतीयों ही नहीं बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन और मलेशिया के नागरिकों को भी यमन से बाहर निकाला. ये देख कई अन्य देशों ने भी अपने नागरिकों को निकालने में भारत की मदद मांगी. आपके इस परफॉर्मेंस ने दुनिया को जता दिया है कि समुद्री शक्ति के मामले में भारत की क्या हैसियत है. ये सब फिलहाल तो सिर्फ और सिर्फ आप की बदौलत हुआ है.

फौजी हमेशा ड्यूटी का पाबंद होता है. दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग जाते वक्त भी आपके मन में ये बात रही. बातें और भी रही होंगी, जिनमें से कुछ आपने ट्विटर के जरिए उजागर भी की. यमन रवाना होते वक्त भी आपके मन में बहुत सारी बातें होंगी. उन्हीं बातों में से एक आपकी एक टिप्पणी के रूप में सामने आई, 'यह एक मुश्किल काम है, लेकिन अगर आप रोमांच की बात करें तो मेरे ख्याल से पाकिस्तान उच्चायोग जाने की तुलना में यह कम रोमांचक दिखता है.' निश्चित रूप से ये महसूस करने की बात है. इस बात का अहसास आपके अलावा किसी और को हो भी कैसे सकता है? बातें गणित के फॉर्मूले की तरह नहीं होतीं कि जैसे भी लिखी या बोली जाएं मतलब नहीं बदलता.

मीडिया के भरोसे बहुतों की राजनीति चलती रही है. कुछ पार्टियां तो मीडिया के भरोसे ही जिंदा हैं, जबकि कुछ तो सीधे तौर पर मीडिया की उपज तक मानी जाती हैं. कई नेता ऐसे हैं जो बरसों से महज बयानों की बदौलत फील्ड में बने हुए हैं. मीडिया अटेंशन के लिए ये तमाम तरीके अपनाते हैं - और कुछ न सही तो एक विवादित बयान चर्चा में आने के लिए सौ दूसरी गतिविधियों से ज्यादा कारगर साबित होता है.

ताजा मिसाल तो आपके ही एक साथी मंत्री महोदय की है. हाल तक कभी किसी को पाकिस्तान भेजने की बात करते थे तो कभी कुछ और. फिर राष्ट्रीय नेता बनने के लिए उन्होंने उपाय खोजे. मालूम नहीं ये मन की बात थी या किसी ने सुझाया था. न तो लोकल न इंटरनेशनल - बस ऐसा बोलो कि बयान ही राष्ट्रीय मुद्दा बन जाए. इसीलिए सोच-समझ कर उन्होंने बड़ी शख्सियत को टारगेट किया. जो बोलना चाहते थे बोल दिए. बोलने से पहले एक छोटा सा डिस्क्लेमर लगा दिया - भई, स्टिंग मत करना. और रातों-रात राष्ट्रीय नेता हो गये.

कुछ लोग बातों के धनी होते हैं, कुछ वाकई गरीब, या फिर बदनसीब तक कहे जा सकते हैं. कोई बातों का धनी भी हो और नसीबवाला भी, ऐसा संगम दुर्लभ होता है. ऐसे लोगों की संगत और आभामंडल दोनों बेहद मुफीद होते हैं. इसे भी आपसे बेहतर भला और कौन समझ सकता है.

यमन में अपनी काबिलियत, सूझ-बूझ और अनुभव से आपने साबित कर दिया कि फौजी, हमेशा फौजी ही होता है. यूनिफॉर्म उतार देने से उसके ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ता. मौके पर वो बस एक फौजी होता है.

सिंह साहब आपने नेता का लिबास तो पहन लिया - अब तो नेता बन जाइए. फिर 'ड्यूटी', 'डिस्गस्ट' और 'प्रेस्टिट्युट' मेडल की तरह शख्सियत में स्टार बन कर चमकने लगेंगे.

आपका शुभेच्छु
एक भारतीय

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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