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Updated: 25 फरवरी, 2019 08:46 PM
अनुज मौर्या
अनुज मौर्या
  @anujkumarmaurya87
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काफी मशक्कत के बाद आखिरकार राष्ट्रीय युद्ध स्मारक बनकर तैयार है, जिसका पीएम मोदी ने उद्घाटन भी कर दिया है. इस स्मारक को बनाने की मांग सबसे पहले करीब 59 साल पहले 1960 में सेना ने ही उठाई थी. उसके बाद इस पर विचार किया जाना शुरू हुआ और अब जाकर ये बनकर तैयार हो पाया है. जब भी किसी को ये पता चलता है कि इतने सालों से इस स्मारक का काम अटका था, तो एक सवाल जो सबसे पहले मन में आता है वो ये है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्यों इस स्मारक को जल्द से जल्द नहीं बनाया गया? और अगर काम अटका था तो उसके पीछे की असल वजह क्या है?

इस स्मारक का काम अटके होने की वजह भी वही है, जो बाकी काम अटकने की होती है. सरकार. यूपीए के दौरान इस पर काम शुरू करने की योजना बनाई गई. 2006 में यूपीए ने प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में कुछ मंत्रियों के एक समूह का गठन किया और राष्ट्रीय युद्ध स्मारक का आकलन करने के लिए कहा. तय हुआ कि इंडिया गेट के क्षेत्र में ही इसे बनाया जाएगा, लेकिन यूपीए में ही इस कदम का विरोध भी शुरू हो गया. बस फिर तो मामला अटकना ही था. आज लोग कांग्रेस से ये सवाल भी पूछ रहे हैं कि आखिर उनकी प्राथमिकताओं में सेना के जवान इतनी पीछे क्यों हैं.

राष्ट्रीय युद्ध स्मारक, मोदी सरकार, कांग्रेस, नरेंद्र मोदीइस स्मारक को बनाने की मांग सबसे पहले करीब 59 साल पहले 1960 में सेना ने ही उठाई थी.

...तो कांग्रेस की उपलब्धियों में दर्ज होता ये स्मारक

राष्ट्रीय स्मारक के बनने में इतनी देरी होने की असल वजह बता रहे हैं इंडिया टुडे के कार्यक्रम में आए रिटायर्ड मेजर जनरल मेहता. उन्होंने बताया कि इस स्मारक के निर्माण के लिए बहुत सारी पार्लियामेंट्री कमेटी बनीं, लेकिन कोई भी अपना काम पूरा नहीं कर सकी. उनके अनुसार, 2012-13 में तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने इसका बीड़ा उठाया और मंत्रियों के समूह के साथ मिलकर इंडिया गेट के पास की वो जमीन निर्धारित की, जहां पर इस स्मारक को बनाया गया है.

इसकी मांग उठने के करीब 52 सालों बाद जब रक्षा मंत्री एके एंटनी ने जमीन फाइनल की तो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित उस फैसले के खिलाफ हो गईं. उन्होंने तर्क दिया कि अगर इंडिया गेट के क्षेत्र में इसे बनाया जाएगा तो इससे वहां के माहौल पर असर पड़ेगा. वहां बहुत से लोग घूमने जाते हैं, लेकिन राष्ट्रीय युद्ध स्मारक बनने से लोगों की आवाजाही पर कई तरह के प्रतिबंध लग जाएंगे. शीला दीक्षित के विरोध के चलते एक बार फिर से स्मारक बनाने का मामला अटक गया. अगर शीला दीक्षित ने 2012 में विरोध नहीं किया होता, तो शायद इस स्मारक की उपलब्धि कांग्रेस के नाम दर्ज हो जाती.

मोदी सरकार ने किया तेजी से काम

रिटायर्ड मेजर जनरल मेहता बताते हैं कि इसे बनाने में काम में तेजी तब आई, जब जनरल दलबीर सुहाग ने इस मांग को आगे बढ़ाया. उन्होंने इस बारे में वित्त मंत्री अरुण जेटली से बात की, जिसके बाद इसे लेकर पीएम मोदी से भी बात हुई. उनके ही घर पर दो मीटिंग भी हुईं और आखिरकार राष्ट्रीय युद्ध स्मारक को बनाने का फैसला किया गया. इस स्मारक के लिए 2015 में जमीन का आवंटन हुआ और फिर तेजी से काम शुरू हो गया. काम में कितनी तेजी थी, इस बात का अंदाजा इसी से लगता है कि जिस स्मारक का निर्माण 54 सालों में शुरू भी नहीं हो सका, उसे मोदी सरकार ने सत्ता में आने के करीब साल भर में ही शुरू कर दिया और अगले चुनाव से पहले ये स्मारक देश के सौंप दिया.

राष्ट्रीय युद्ध स्मारक, मोदी सरकार, कांग्रेस, नरेंद्र मोदीमोदी सरकार ने सत्ता में आने के करीब साल भर में ही स्मारक बनाने का काम शुरू कर दिया.

कुछ खास बातें, जो आपको जाननी चाहिए

रिटायर्ड मेजर जनरल मेहता ने इस स्मारक में 2 बेहद खास बातें देखीं, जो आपको भी जाननी चाहिए.

1- अगर आप रायसेना हिल पर खड़े हों, जहां कैमल रीट्रीट होता है तो वहां से इंडिया गेट पर लगी कैनोपी के बिल्कुल सामने अशोक चक्र दिखता है. यानी सब कुछ एक दम सीधी लाइन में है.

2- यहां की दूसरी बड़ी खासियत है डिजिटलाइजेशन. जैसा कि पीएम मोदी हमेशा ही डिजिटल इंडिया पर जोर देते हैं, तो उसका ख्याल उन्होंने यहां भी रखा है. सब कुछ डिजिटल है. यानी अगर आपको किसी खास रेजिमेंट या शहीद जवान के बारे में पता करना है कि वह इस पूरे स्मारक में कहां है, तो महज चंद बटन दबाने भर से आपको पूरी जानकारी मिल जाएगी.

पीएम मोदी ने आज राष्ट्रीय युद्ध स्मारक देश के सौंप दिया है. ये स्मारक कांग्रेस भी देश के लिए बना सकती थी, लेकिन उनके विचार तो आपस में ही मेल नहीं खाए. पीएम मोदी ने हमेशा ही देश को सर्वोपरि रखा और सेना के जवानों का सम्मान किया. यही वजह है कि उन्होंने बिना देर किए सेना के उन जवानों की एक छोटी सी मांग पूरी कर दी, जो हमारी सुरक्षा के लिए दिन रात सीमा पर तैनात रहते हैं. आज भले ही कांग्रेस कितना भी कहे कि इस स्मारक को बनाने की शुरुआत उनके समय में हुई, लेकिन उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि उनके लिए सेना के जवान शायद उनकी प्राथमिकताओं में ही नहीं थे. अगर ऐसा नहीं होता तो इतने सालों तक राष्ट्रीय युद्ध स्मारक का काम अटका नहीं रहता.

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