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Updated: 02 फरवरी, 2016 03:44 PM
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म्यांमार में सत्ता हस्तांतरण का मौका बड़ा ही खुशगवार रहा. कलाकार तो परफॉर्म कर ही रहे थे, अंदर तक खुशी से सराबोर आम लोग भी देर तक थिरकते रहे - और तो और जाते जाते स्पीकर महोदय भी जी खोल कर गाना गाते देखे गये.

वैसे तो पूरी दुनिया ये रंगारंग समारोह लाइव देख रही थी, लेकिन भारतीय राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को ये बहुत खास लगा - और इसकी एक बड़ी वजह रही दोनों मुल्कों की राजनीतिक व्यवस्था की कुछ अजीब सी समानताएं.

बिलकुल भारत जैसे

वैसे तो आंग सान सू की दिल्ली के ही लेडी श्रीराम कॉलेज से पढ़ी हैं और 1987 में कुछ वक्त शिमला के इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी में फेलो के तौर पर भी गुजार चुकी हैं, लेकिन उनकी नई पारी कई मामलों में भारत जैसी दिखती है.

सू की ये पहले ही कह चुकी हैं कि भले ही वो राष्ट्रपति किसी को भी बनाएं, सत्ता की चाबी उन्हीं के हाथ में होगी. ये एक ऐसी व्यवस्था है जो केंद्र की पिछली यूपीए सरकार जैसी दिखती है. अब तो कई किताबें भी आ चुकी हैं जो साफ तौर पर बताती हैं कि केंद्र में जब यूपीए की सरकार रही तो परोक्ष रूप से सत्ता की बागडोर सोनिया गांधी के ही हाथ में रही.

सोनिया और सू की में एक और समानता है. सत्ता और इन दोनों ही के बीच जो कलॉज बाधा बन कर उभरा वो रहा इनका कथित 'विदेशी स्टेटस'. चुनाव में जीत दर्ज करने के बाद सोनिया के विदेशी मूल के होने के नाम पर विवाद खड़ा किया गया. म्यांमार में में भी सैन्य शासकों ने संविधान में ऐसी व्यवस्था कर दी कि बाकी कोई भी राष्ट्रपति बन जाए, लेकिन सू की न बन सकें.

यानी, सू की की पार्टी एनएलडी के राष्ट्रपति की स्थिति भी मनमोहन सिंह जैसे ही एक खामोश प्रधानमंत्री से बेहतर नहीं होने वाली.

जिस तरह मनमोहन सिंह और उनसे पहले उनके हम ओहदा रह चुके अटल बिहारी वाजपेयी गठबंधन की सियासत के शिकार रहे, सू की सरकार का भी कमोबेश हाल वैसा ही रहेगा.

जैसे भारत में सत्तारुढ़ मुख्य पार्टी को सहयोगी दलों के साथ तालमेल बैठाना होता है, वैसे ही सू की सरकार को सैन्य नुमाइंदों के साथ मिल कर काम करना होगा.

इतना ही नहीं, जैसे दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार को बात बात पर केंद्र सरकार का मुहं देखना पड़ता है, सू की के सहयोगियों को सैन्य प्रतिनिधियों की हामी और इनकार के हिसाब से चलना होगा. ये हाल तब तक बना रहेगा जब तक केजरीवाल के 'पूर्ण राज्य' की तरह म्यांमार में 'पूर्ण लोकतंत्र' असल में बहाल नहीं हो जाता.

आधा है आधे की जरूरत है

लगभग आधी सदी बीत जाने के बाद म्यांमार में लोकतंत्र की वापसी हो पाई है. सुनने में भले अच्छी लगे लेकिन ये वापसी अब भी आधी अधूरी है. 80 फीसदी सीटों के साथ सत्ता की बागडोर थाम लेने के बाद भी आंग सान सू के हाथ काफी हद तक बंधे होंगे.

साल 1990 के चुनावों में एनएलडी को जीत हासिल होने के बावजूद सैन्य शासन ने उसे मान्यता देने से इनकार कर दिया. फिर 2010 में चुनाव हुए तो सैन्य शासकों ने सू की को घर में ही नजरबंद कर दिया. इससे नाराज एनएलडी ने चुनावों का बॉयकाट किया. अब 2015 में एनएलडी ने भारी जीत के साथ सू की यहां तक पहुंच पाई हैं.

अब संसद को जल्द ही राष्ट्रपति का चुनाव कराना होगा क्योंकि मौजूदा राष्ट्रपति थेन सेन का कार्यकाल इसी मार्च में खत्म हो जाएगा. मौजूदा नियमों के तहत सू की राष्ट्रपति नहीं बन सकतीं.

2008 के संवैधानिक नियमों के अनुसार किसी विदेशी से शादी करने वाला शख्स देश का राष्ट्रपति नहीं बन सकता. सू की के पति ब्रिटिश नागरिक रहे - और उनके बच्चों के पास भी म्यांमार की नागरिकता नहीं है.

8 फरवरी से अलग अलग राज्यों में सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू होगी. अप्रैल में संसद के दोनों सदनों के सदस्य राष्ट्रपति पद के लिए पार्टी के उम्मीदवार और सेन्य उम्मीदवार में से किसी एक चुनाव करेंगे. चुनाव में जीता हुआ उम्मीदवार राष्ट्रपति और हारा हुआ उम्मीदवार देश का उपराष्ट्रपति होगा.

अब तक सैन्य शासकों ने जो रुख दिखाया है उससे लगता तो ऐसा ही है कि सू की के राष्ट्रपति बनने की राह तैयार हो सकती है. हालांकि, सैन्य शासकों को जितने करीब से सू की जानती होंगी उतना भला और कौन जान सकता है. डेढ़ दशक तक एक एक पल सू की ने सैन्य शासकों की निगरानी में ही गुजारे हैं.

अब सू की की सबसे बड़ी चुनौती है सैन्य शासकों को संविधान में संशोधन के लिए राजी करना. अगर ऐसा मुमकिन हो पाया तो एक सू की परोक्ष नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष रूप से सत्ता की बागडोर संभाल सकेंगी - और तभी म्यांमार में पूर्ण लोकतंत्र कायम हो सकेगा.

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