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Updated: 07 सितम्बर, 2016 03:57 PM
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उन छात्रों के उत्साह और खुशी को सहज तौर पर महसूस किया जा सकता है जो मुखर्जी सर की क्लास में मौजूद रहे होंगे. एक राष्ट्रपति के जन्म दिन पर दूसरे राष्ट्रपति को बतौर टीचर क्लास में देखना किसी भी छात्र के लिए निश्चित रूप से एक खूबसूरत अनुभव है.

मुमकिन है, कई छात्र ऐसे भी होंगे जो इस मौके पर मां-बाप के डॉक्टर-इंजीनियर-आइएएस बनने की सलाह से इतर शिक्षक बनने की भी सोचे होंगे, कम से कम तब तक जितनी देर क्लास चली.

टीचर्स डे के जश्न में कम ही लोग ऐसे होंगे जिनका ध्यान उन शिक्षकों पर भी गया होगा जिन्हें 'एड-हॉक' का टैग मिला हुआ है. उनकी भी जिंदगी ठीक वैसे ही है जैसे पुलिस के साथ कदम से कदम मिलाते होमगार्ड्स की.

इंडियन एक्सप्रेस ने देश के राष्ट्रपति के नाम एक गुमनाम चिट्ठी प्रकाशित की है. ये चिट्ठी लिखी है एक 'एड-हॉक' टीचर ने.

हैपी 'एड-हॉक' डे

इंडियन एक्सप्रेस ने यही टाइटल दिया है जिसमें उस अस्थाई शिक्षक ने सबसे पहले राष्ट्रपति को बताया है, "महोदय, आप मुझे नहीं जानते. आप मुझे या मेरा नाम या मेरे जैसे लाखों लोगों को आप कभी नहीं जान सकते जो आपके विश्वविद्यालयों में बतौर 'एड-हॉक' कार्यरत हैं. आपको क्यों जानना चाहिये कि आपके ज्यादातर विश्वविद्यालयों में हमारा ही बहुमत है? क्या आप अपने कुलपतियों से हमारे बारे में कभी पूछेंगे? आपने कभी जानने की कोशिश की है कि हम कौन हैं और कैसे 'एड-हॉक' बन गये, जबकि हम टीचर बनना चाहते थे? टीचर्स डे के मौके पर जब आप शिक्षकों को सम्मानित कर रहे हैं, शायद ही आपको हमारा ख्याल आये?"

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पत्र में उसने बताया है कि जब वो 25 साल की थी तब उसके पास कार्पोरेट सेक्टर से नौकरियों के अच्छे ऑफर थे, लेकिन उन्हें ठुकराते हुए उसने शिक्षक बनने का फैसला किया, लेकिन दो दशक बाद भी उससे हर साल एक फॉर्म भर कर बताना होता है कि 'हम एड-हॉक बनने को उपलब्ध हैं'.

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मुखर्जी सर की क्लास

"हर साल जुलाई का महीना आने पर हमें इंटरव्यू देना होता है और सवाल होता है - इस साल आप नया क्या करेंगे?" अपनी व्यथा सुनाते हुए ये शिक्षक कहती है, "यूनिवर्सिटी हमे 4-5 महीने की सैलरी एक साथ देती है - लेकिन न तो हमे लाइब्रेरी की सदस्यता मिलती है, न कंप्यूटर पर काम करने की सुविधा न वाई-फाई कनेक्शन और न ही बैठने की कोई जगह."

ये नियुक्ति सिर्फ चार महीने के लिए होती है - और फिर एक दिन का गैप देकर दोबारा एंट्री दी जाती है, "हमारे नियुक्ति पत्र पर साफ साफ लिखा होता है कि हम सिर्फ चार महीने के लिए हैं - जब तक कि नियमित शिक्षक ड्यूटी ज्वाइन नहीं कर लेता, लेकिन हमारे लाखों साथियों के जीवन में वो दिन नहीं आता जब नियमित शिक्षक ज्वाइन करे - ऐसा 15 साल से हो रहा है. ज्वाइन करे तो कौन, कोई हो तब तो? हमारी हालत से हर कोई बखूबी वाकिफ होता है - तभी तो कोर्ई हमे किराये पर कमरा देने के लिए तैयार नहीं दिखता."

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पत्र में सवाल है, "महोदय आपको - समर सैलरी - के बारे में शायद मालूम न हो. अगर नये सेशन के पहले भी हमारी नियुक्ति हो तो हमें गर्मियों की छुट्टी के दिनों में काम करने के पैसे मिलते हैं - इसे ही समर सैलरी कहते हैं."

राष्ट्रपति द्वारा अक्सर देश के विश्वविद्यालयों को वैश्विक स्तर पर टक्कर देने की बात पर उसका सवाल है, "हमने कुलपतियों को भी वेब पोर्टल, यूट्यूब और गूगल के जरिये गुणवत्ता सुधारने की बात करते सुना है - लेकिन इसमें कभी शिक्षकों की बात नहीं होती - और यही बात हमारे प्रतिभाशाली छात्रों को बतौर शिक्षक कॅरिअर चुनने में आड़े आती है..."

इस गुमनाम खत में ये भी बताने की कोशिश है कि अगर कोई छात्र टीचर बनने के बारे में सोचे भी तो हालत देख कर कैसे उसका मन सिहर उठता है, "वे जब भी हमे कॉरिडोर में अपमानजनक इंटरव्यू के लिए इंतजार करते देखते हैं - अच्छे शिक्षक की जिंदगी को लेकर उनकी धारणा बदल जाती है." पत्र में इस बात का भी जिक्र है कि हाल ही में देश के मुख्य न्यायधीश ने अदालतों में जजों की कमी का मुद्दा उठाया था, लेकिन मिसिंग-टीचर्स की बात करने वाला उसे कोई नहीं दिखता.

पत्र में गुमनाम रहने की वजह भी बताई गई है, "हमारा साथ होकर आगे आना बेकार है क्योंकि हम एड-हॉक हैं. हमारा अकेले आगे आना खुदकुशी करने जैसा होगा. आखिरकार, मैं एड-हॉक ही तो हूं - और चार महीना बीतने में वक्त ही कितना लगता है?"

एड-हॉक जिंदगी

कई 'एड-हॉक' टीचर को मैं भी जानता हूं. उनमें एक तो ऐसा है जिसे अभी जो तनख्वाह मिलती है उससे कहीं ज्यादा छात्र जीवन में स्कॉलरशिप मिलती थी. तब गरीबी हटाओ पर जोर था और अब अच्छे दिनों पर, लेकिन इससे उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. अगर इंटरव्यू बोर्ड में बुलाया जाए तो शायद ही कोई एक्सपर्ट हो जो उसके चेहरे या कम से कम नाम से अपरिचित हो. दर्जन भर से ज्यादा छात्र तो डिक्टेशन लेकर अपनी पीएचडी की थिसिस पूरी कर चुके हैं, लेकिन हकीकत ये है कि वहां भी 'एड-हॉक' का ठप्पा लगा हुआ है.

ये 'एड-हॉक' टीचर हर सुबह घर से निकल कर दौड़ते हुए बनारस से जौनपुर जाने वाली बस में सवार होते हैं. फिर वहां से कोई और साधन ढूंढ कर कॉलेज पहुंचना होता है जो आजमगढ़ में पड़ता है. एक तरफ से कम से कम दो घंटे सिर्फ आने जाने में जाया होते हैं वो भी अक्सर खड़े होकर. शायद ही कोई ऐसा दिन बीते जब उन्हें अपने विभागाध्यक्ष और प्रिंसिपल के जाहिलियत भरे सवालों से दो चार न होना पड़ता हो.

बावजूद इसके उन्होंने कॉलेज परिसर में जी हल्का करने का उपाय खोज निकाला है. क्लास में छात्रों को 'राग दरबारी' पढ़ाने के दौरान ही सारी भड़ास निकाल लेते हैं.

'अपमान दिवस!'

टीचर्स डे के मौके पर बिहार के 'एड-हॉक' शिक्षक अपमान दिवस मना रहे हैं. उनका कहना है कि उन्हें होली, दिवाली ईद और दशहरे पर ही वेतन तो मिल जाता है, लेकिन बाकी दिनों में इंतजार ही करना पड़ता है.

बीबीसी से बातचीत में ऐसे ही एक टीचर ने अपनी पीड़ा साझा किया है, "बिहार सरकार ने संघ के साथ हुई वार्ता में कई बार यह भरोसा दिलाया कि शिक्षकों को महीने के पहले सप्ताह में सैलरी मिल जाएगी. लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो पाया है. ऐसा कर सरकार लगातार शिक्षकों को अपमानित कर रही है. इसलिए इस बार हमने शिक्षक दिवस के दिन अपमान दिवस मनाने फैसला लिया."

जब फ्रांसीसी लेखक अल्बर्ट कामू को नोबेल पुरस्कार मिला तो सबसे पहले उन्हें अपनी मां का ख्याल आया और उसके बाद अपने टीचर का. अपने टीचर को भेजे पत्र में कामू ने लिखा भी, "जब मुझे ये खबर मिली मुझे पहले मां और उसके बाद आपका ख्याल आया. आपके बगैर. अगर आपने उस नन्हे गरीब बच्चे की तरफ आपके स्नेहिल हाथ नहीं बढ़ाए होते. आपने पढ़ाया न होता, तमाम मिसालें न दी होतीं, तो ये सब कभी मुमकिन नहीं हो पाता." एक टीचर ऐसी शिक्षा देता है कि छात्र आगे चल कर नोबेल पुरस्कार हासिल करता है और कोई टीचर देश का राष्ट्रपति बनता है. फिर भी उस 'एड-हॉक' टीचर को डर है कि उसकी हालत देख कर उसके छात्र बड़ा होकर टीचर बने में संकोच करते हैं.

लेखक की गुजारिश पर इंडियन एक्सप्रेस ने उसका नाम नहीं दिया है. वैसे ठीक ही तो कहा है - जिसकी पहचान भी एक-हॉक हो उसके पास जाहिर करने को भी क्या होगा?

मुखर्जी सर, सुन रहे हैं न आप? कुछ कीजिए, प्लीज! वरना, न जाने कितने गुमनाम यूं ही हर साल 5 सितंबर को 'हैपी एड-हॉक डे' बोलने लगेंगे.

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