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Updated: 07 अप्रिल, 2016 02:43 PM
सिद्धार्थ झा
सिद्धार्थ झा
  @sidharath.jha
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आजकल जो सबसे बड़ी सेलेब्रिटी है या सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोर रही है वो है हमारी भारत माता. हाल ही में श्रीनगर एनआइटी के छात्रों को सिर्फ इसलियए दौड़ा दौड़ा कर पीटा गया क्योंकि वो भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे, जैसा की सोशल मीडिया में बताया जा रहा है. कुछ दिनों पहले जेएनयू इसलिए खबरों में आया क्योंकि वहां पाक-परस्तों का जमावड़ा हो रहा है और वो भारत माता की जय जयकार नहीं कर रहे. विवाद थमा नहीं कि औवेसी ने मोर्चा खोल दिया गर्दन पर चाकू रख दोगे तब भी भारत माता की जय नही कहूंगा. जवाब में नज़मा हेपतुल्ला ने कहा कि गर्दन पर चाकू रखने पर भी यही बोलूंगी. और उसके बाद वाद विवाद का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया. खुद को भारत माता का श्रेष्ठ लाल कहलाने की होड़ लग गई. महाराष्ट्र विधानसभा से तो इस मुद्दे पर एक विधायक को निलंबित भी कर दिया.

इन सब बातों से एक सवाल अक्सर मेरे मन में उठता है की आखिर भारत माता से मेरा पहला परिचय कब हुआ. दिमाग पर जोर डालने पर पता चलता है की 80 के दशक में दूरदर्शन में भारत कुमार यानी मनोज कुमार की क्रांति फिल्म के गाने में पहली बार भारत माता के दर्शन हुए थे. शायद लाल बॉर्डर की सफेद साड़ी जंजीर से बंधी कुम्हलाया चेहरा. मनोज कुमार और उनके साथी उनको छुड़ाने के लुए संघर्ष करते हैं. इसके बाद कुछ एक देशभक्ति का तड़का लिए कुछ नाटको में भी दिखा. मगर किसी ने भी सूट स्कर्ट या कोई और वेशभूषा नहीं पहनाए. अगर अमेरिका या यूरोप की माता होती तो वो स्मार्ट मॉम कहलाती. भारतीय माता संस्कारों की धनी है या वो पारंपरिक वेशभूषा है जो किसी उत्तर भारतीय ने बनाई होगी. पंजाबी या हरियाणा का होता तो वाज़िब सी बात है वेशभूषा बदल जाती.

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यहां एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा मेरा जन्म सयुंक्त परिवार में हुआ था जहां मेरी मां को बुआ, भाभी बोलती थी और दादी को मां. अनजाने में मैंने भी उन्हीं शब्दों को चुना और उन्हीं को हम चारों भाई बहनों ने दोहराया भी. उसके बाद बहुत कोशिश की आदत को बदलने की लेकिन नहीं बदल पाया इसलिए हास्य का पात्र भी कभी-कभी बना. हालांकि अब ऐसा कर पाता हूं. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि मां को भाभी कहने की वजह से मेरी पिटाई मेरी अपनी माता ने की हो. हालांकि बहुत से असाहिष्णु पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने उकसाया भी लेकिन इस बात के लिए मेरी पिटाई कभी नहीं हुई. क्योंकि भावनाएं आपके शब्दों की गुलाम नहीं हैं, वो आंतरिक हैं, आपके हृदय और मन मस्तिष्क से उसका गहरा सम्बन्ध है.

खैर गंगा मैय्या से शैशव काल से गहरा नाता रहा है इसलये यदा कदा गंगा मैया निकला मुंह से. कुछ समय बाद जब दिल्ली के सरकारी स्कूल में दाखिला लिया तो यहां के लौंडों की असहिष्णुता का बात बात पर पात्र बना भी और उनको बनाया भी. होता ये था कि सही या झूठ का लिटमस टेस्ट देने के लिए वो लोग बात बात पर धरती माता और विद्या माता की कसम खिला देते थे. उन्हें यकीन होता था की अब झूठ पकड़ा जाएगा. अगर यकीन नहीं होता तो हाथ लगाकर कसम खिलाते थे. हालांकि कितना सच या झूठ का फैसला हो पाता था याद नहीं, मगर उनका बस चलता तो जलती मोमबत्ती पर चंद्रशेखर आज़ाद की तरह कसम खिलाने में बाज नहीं आते. उन्ही दिनों एक और माता से परिचय हुआ पता चला ये भी मां हैं, गौ माता. हालांकि मैंने मानने से इनकार किया क्योंकि मेरा दूध तो मदर डेरी में पच्चीस पैसे नुमा टोकन डालने पर सोयाबीन मिश्रित आता था. फिर भला मैं क्यों मानूं गौ को माता, जिसका दिमाग फिर जाता तो दौड़ा देती मुझे. हालांकि एक बात जरूर कहूंगा उन दिनों मैं शाकाहारी था और सभी जानवरों के लिए समान प्यार और सहानुभूति थी, गाय, कुत्ता, मुर्गा, भैंसा या बकरा भी. खैर जब तक स्कूल में रहा विद्या माता के साथ आंख मिचोली लंबी चली. इस बीच बसंत पंचमी में एक बार बिहार गया सरस्वती जी की भव्य पूजा अर्चना देख कर लगा बॉस इनकी कसम को सीरियसली लेना होगा, वरना कहीं चना चबेना बेचना पड़ेगा लेकिन तब तक देर हो गई थी और उनकी पूर्ण कृपा आज भी नहीं बरस रही. रसगुल्ले के साथ हरी चटनी खाने का नुस्खा भी आजमा डाला लेकिन उनकी नाराज़गी दूर नहीं कर पाया.

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मुस्लिम और ईसाइयों के लिए अच्छा है, लिमिटेड एडिशन में उनके आराध्य होते हैं. इसलिए सबको खुश करने की मजबूरी नहीं होती. धरती माता के उद्भाव के लिए तो लोहिया जी की भी कम ज़िम्मेदारी नहीं बनती. अपनी एक किताब में उन्होंने धरती को माता बताया है. पहले मुझे लगता था भारत माता की अवधारणा वेद उपनिषद काल से होगी जो हमारी संस्कृति में रच बस गई होगी. लेकिन शायद 150 साल से पहले ये शब्द अस्तित्व में नही आया था. और शायद किसी नाटक के द्वारा भारत माता की संकल्पना ने मूर्त रूप लिया. बंकिमचंद्र का वंदे मातरम भी शायद इसी से प्रेरित था. और इसके बाद चित्रकारों की कल्पना ने भारत माता का चित्र तैयार किया जिसमें फेर बदल निरंतर होते रहे हैं. सिस्टर निवेदिता ने भारत माता की अष्ट भुजाएं और दुर्गाजी का स्वरूप दिया.

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1905 में अबनिंद्रनाथ टेगोर द्वारा बनाया गया 'भारत माता' का चित्र

आज भारत माता के देश के कई हिस्सों में मंदिर हैं लेकिन पहले मंदिर का उद्घाटन महात्मा गांधी ने किया और उसके बरसों बाद विहिप के मंदिर का उद्घाटन इंदिरा गांधी ने किया. भारत माता को शायद साम्प्रदायिक एकता के मद्देनजर आजादी का प्रतीक बनाया, लेकिन आज यही शब्द इस सोहार्द के बिखराव की वजह बनता जा रहा है. कुछ लोगों की आपत्ति भारत के स्त्रीलिंग या पुलिंग को लेकर है. भारत माता है या पिता. हो सकता है भविष्य के बच्चों को बांग्लादेश और पाकिस्तान को हम अपनी बिछड़ी हुई मां, सौतेली मां या मौसी भी कहें जिसे विभाजन के बाद हमसे दूर कर दिया. क्योंकि बाल की खाल निकालने में हम अव्वल हैं.

लेखक

सिद्धार्थ झा सिद्धार्थ झा @sidharath.jha

स्वतंत्र लेखक और लोकसभा टीवी में प्रोड्यूसर

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