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Updated: 28 नवम्बर, 2016 03:29 PM
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संघ मुक्त भारत का नारा देने वाले नीतीश कुमार ने मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले का सपोर्ट किया है. बिहार के मुख्यमंत्री के इस बयान को बीजेपी से संभावित नजदीकियों से जोड़ कर देखा जाने लगा है.

तो क्या नीतीश कुमार अपने महागठबंधन के साथी लालू प्रसाद से दूर और पुराने यार बीजेपी नेता सुशील मोदी के करीब होने जा रहे हैं?

नोटबंदी का सपोर्ट

नीतीश बड़े ही मंझे हुए राजनेता हैं, इसलिए उन्हें चाणक्य तक भी कहा जाता है. अगर नोटबंदी के पक्ष में उन्होंने बयान दिया है तो इसके पीछे भी कोई बड़ा कारण जरूर होगा - वरना, मोदी विरोध को लेकर तो नीतीश की भी अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी के साथ होड़ मची रहती है. फिर ऐसी क्या वजह हो सकती है कि जब ज्यादातर मुद्दों पर उन्हें सपोर्ट करने वाले केजरीवाल और ममता बनर्जी नोटबंदी के खिलाफ सड़क पर उतर आये हों तो भी नीतीश उनसे अलहदा लाइन लें.

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ये नीतीश की सियासी मजबूरी रही कि उन्होंने एक गहरे दोस्त को छोड़ कर एक कट्टर दुश्मन से हाथ मिला लिया. वैसे भी अपनी राजनीति का एक बड़ा हिस्सा तो नीतीश कुमार ने एनडीए के साथ ही गुजारा है - और मुख्यमंत्री की कुर्सी भी उसी दौरान मिली. इतना लंबा रिश्ता बगैर वैचारिक मेल के चल तो सकता नहीं.

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नोटबंदी पर नीतीश का 'एकला चलो रे...'

ऐसा भी तो हो सकता है कि जिस तरह उन्होंने बिहार में शराबबंदी लागू करने के बाद पूरे देश में उस पर अमल चाहते हों, उसी तरह नोटबंदी जैसे कदम भी उनके दिमाग के किसी कोने में हो. मोदी से मतभेद का मतलब ये तो नहीं कि लोकहित या देशहित से जुड़े मसलों पर भी वो विरोध की रस्मअदायगी निभाते रहें. ऐसे देखें तो सर्जिकल स्ट्राइक के मामले में नीतीश कुमार ने सरकार का सपोर्ट किया था - और केजरीवाल के वीडियो बयान को विरोध में देखा गया. सर्जिकल स्ट्राइक पर ममता की चुप्पी पर भी लोगों को ताज्जुब ही हुआ था.

नीतीश के ताजा स्टैंड की एक वजह ये भी हो सकती है कि तमाम तकलीफ सहते हुए पुलिस की लाठी खाकर भी अवाम जिस मसले को सही कदम मानता हो उसके सेरेमोनियल प्रोटेस्ट का क्या तुक है? भले ही नीतीश, केजरीवाल और ममता की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर हो मगर रास्ते भी एक जैसे ही हों जरूरी तो नहीं.

बिहार पर प्लान-बी संभव!

घोषित तौर पर अभी तक नीतीश कुमार 2019 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं. भूलने की जरूरत नहीं है कि 2014 में भी वो इसी हैसियत में थे - तब तक जब तक कि बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार अभियान समिति का नेता नहीं घोषित कर दिया.

एकबारगी मान भी लीजिए कि नीतीश का किसी वजह से बीजेपी के प्रति रुझान बढ़ा है, तो क्या माना जाना चाहिये कि नीतीश ने अपने मिशन 2019 गुपचुप कोई तब्दीली कर डाली है. क्योंकि नीतीश और बीजेपी के करीब आने की संभावना तो सिर्फ दो स्थितियों में ही बनती है. एक, बीजेपी नीतीश को पीएम उम्मीदवार बना डाले - और दूसरी, नीतीश प्रधानमंत्री पद पर दावा छोड़ कर कोई और डील स्वीकार कर लें. मौजूदा राजनीति तो यही कहती है कि दूर दूर तक ऐसी कोई संभावना नहीं है. ये तो सौ फीसदी तय है कि 2019 में भी नरेंद्र मोदी ही बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार रहेंगे.

हां, अगर ऐसी नौबत आ जाये कि लालू प्रसाद हाथ खींच लें - और सरकार बचाने के लिए नीतीश को बीजेपी की जरूरत आ पड़े. वैसे भी लालू तो अब तेजस्वी को ही सीएम बनाना चाहते होंगे.

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जहां तक एक दूसरे का फायदा उठाने की बात है - दोनों अपने अपने मिशन में कामयाब हो चुके हैं. लालू ने तेजस्वी को डिप्टी सीएम और तेज प्रताप को मंत्री बना दिया - और नीतीश ने मोदी से 2014 की शिकस्त का बदला ले लिया. हिसाब बराबर हो चुका है. अब दोनों अपने अपने हिसाब से आगे की राजनीति करने के लिए फ्री हैं.

नीतीश जब दो दशक बाद लालू प्रसाद से हाथ मिला सकते हैं तो एक बार फिर बीजेपी के साथ होने में क्या बुराई है? अब राजनीति भी तो टेस्ट क्रिकेट से 20-20 की ओर बढ़ने लगी है.

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