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Updated: 06 जनवरी, 2016 08:41 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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"आतंकी इमारतों की खिड़कियों पर फायरिंग करते हुए भागे. इस दौरान, कुछ जवान डिफेंस सर्विस कोर (डीएससी) मेस के कुक हाउस में नाश्ते की तैयारी कर रहे थे. वहां लाइटें जल रही थी और आतंकियों ने फायरिंग शुरू कर दी. उसके बाद आतंकी ओपन एरिया की तरफ गए... उनके पीछे डीएससी के हवलदार जगदीश सिंह भी भागे. दोनों में मुठभेड़ हुई और इस गुत्थम-गुत्थी में हवलदार जगदीश ने आतंकी से उसकी ही राइफल छीनकर उसे मार डाला. इसके बाद वह बाकी आतंकियों का पीछा करने के लिए उनकी ओर दौड़े, लेकिन वो आतंकियों की गोली का निशाना बने और बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गए."

हवलदार जगदीश की बहादुरी की ये दास्तां पठानकोट एयरफोर्स बेस के एओसी जेएस धूमन ने प्रेस ब्रीफिंग में सुनाई थी. जगदीश की शहादत की इस कहानी के दरम्यान गुरदासपुर के एसपी रहे सलविंदर की आपबीती भी सुनने को मिली है जिसमें वो ऊपरवाले का शुक्रिया अदा करते रहे कि उनकी जान बच गई. सलविंदर का गुरदासपुर से ट्रांसफर कर दिया गया है और उसके बाद एनआईए यानी राष्ट्रीय जांच एजेंसी उनसे पूछताछ कर रही है. अलग से खबर ये है कि सलविंदर के खिलाफ उनके मातहत काम कर रहीं पांच महिला कॉन्स्टेबल ने यौन शोषण का भी आरोप लगाया है.

एसपी सलविंदर से पूछताछ क्यों

नए साल के मौके पर एसपी सलविंदर अपने एक दोस्त और कुक के साथ पठानकोट में एक मजार पर मत्था टेक कर लौट रहे थे. सलविंदर के दोस्त राजेश वर्मा जौहरी बताए जाते हैं और कुक मदन गोपाल अरसे से उनके साथ काम कर रहे हैं.

असल में एसपी सलविंदर ही वो पहले शख्स हैं जिनका आतंकियों से पहला एनकाउंटर हुआ. एक ऐसा एनकाउंटर जिसमें किसी भी तरफ से एक भी गोली नहीं चली. पठानकोट हमले की तह तक पहुंचने के लिए सलविंदर अहम कड़ी हो सकते हैं. संभव है एनआईए को उनकी बातचीत के जरिये कोई सुराग मिले.

मीडिया को अपनी आपबीती सुनाते हुए सलविंदर ने बताया कि आधी रात को वे पहली बार उस रास्ते से गुजर रहे थे तभी एक-47 लिए चार-पांच आदमी नजर आए. वे सेना की वर्दी में थे और उन्हें एकदम से रोक लिया.

सलविंदर ने आगे बताया, "मुझे और गाड़ी चला रहे राजेश वर्मा को नीचे बिठा दिया और ऊपर से पैर रखकर वो बोले, अगर आपने कोई बात की तो गोली मार देंगे. उन्हों ने मुझे लात मारी और सिर के ऊपर गन लगा दी. वे उर्दू में किसी से पाकिस्ताान बात कर रहे थे. इस बीच गाड़ी चलती रही, वे हमें करीब 40 से 45 मिनट तक घुमाते रहे और फिर चलती कार से फेंक दिया.

सलविंदर का दावा है कि आतंकियों से उन्होंने खुद को एक साधारण सिख बताया था इसलिए उन्होंने उन्हें छोड़ दिया. जब आतंकियों को पता चला कि वो एसपी हैं तो वे उन्हें मारने आए थे लेकिन ऊपरवाले की कृपा से वो छिपे रहे और बच गए. सलविंदर के इस दावे की पुष्टि उनके दोस्त राजेश वर्मा के बयान से भी होती है.

राजेश के मुताबिक सलविंदर को गाड़ी से फेंकने के बाद जब वो आगे बढ़े तो गलती से उनका हाथ हूटर पर पड़ गया - और वो बजने लगा. जिस वक्त हूटर बजा उस समय आतंकी अपने पाकिस्तानी कमांडर से बात कर रहे थे. हूटर सुनकर वे चौकन्ने हो गए - और आतंकियों को हिदायत दी.

"अरे लड़कों गाड़ी मोड़ो, किसी अफसर की गाड़ी लगती है. उसे खोज कर खत्म करो," राजेश ने फोन पर ये बातें सुनीं जिसके बाद आतंकियों ने उन्हें गाड़ी मोड़ने को कहा. फिर जिस जगह एसपी और उनके कुक को छोड़ा था वहां पहुंचे. जब दोनों वहां नहीं मिले तो गुस्से में आतंकियों ने राजेश का गला रेत कर मारने की कोशिश की.

घायल अवस्था में मिले राजेश वर्मा को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा जहां इलाज के बाद वो ठीक है. एसपी सलविंदर और राजेश दोनों ने अपनी अपनी आपबीती सुनाई. दोनों के बयानों में ये फर्क क्यों है यही एनआईए की पूछताछ के फैसले का सबसे बड़ा आधार रहा होगा.

एनआईए के संभावित सवाल

मीडिया से बातचीत में राजेश ने एक बार अपने बयान में कहा कि जब आतंकियों ने रोका तो उन्होंने शीशा नीचे करके बताया कि गाड़ी में एसपी साहब बैठे हैं. जबकि एसपी सलविंदर का कहना है कि आतंकियों को इस बारे में जानकारी नहीं थी कि वो एसपी हैं, जिसके चलते आतंकियों ने उन्हें छोड़ दिया. राजेश ने ये भी बताया है कि आतंकियों को एसपी के बारे में पता नहीं था. राजेश से उन्होंने पूछा था, "एसपी क्या होता है? कहीं डीएसपी को तो नहीं कहा जाता?" इस पर राजेश ने हां बोला था और फिर आतंकियों ने गाड़ी तेज चलाने की हिदायत दी.

फिर एनआईए को शक किस बात पर हो रहा है? क्या एनआईए को लगता है कि आतंकियों को एसपी से किसी तरह की मदद मिली. या फिर मंजिल तक पहुंचने के लिए आतंकियों ने एसपी की गाड़ी और उनके दोस्त का इस्तेमाल किया? शायद हां भी, और नहीं भी. सच तो जांच के बाद ही सामने आ सकेगा.

एनआईए के अफसर सलविंदर से ये समझने की कोशिश करेंगे कि आतंकियों ने सलविंदर से पहले एक ड्राइवर को मार दिया था, लेकिन उन्हें क्यों छोड़ा?

सलविंदर जिस गाड़ी में सवार थे वो सरकारी गाड़ी थी कि नहीं? अगर गाड़ी सरकारी थी तो उसमें वायरलेस सेट था कि नहीं? गाड़ी पर नीली बत्ती लगे होने की भी खबर है. अगर नीली बत्ती लगी थी तो क्या आतंकवादी उसका मतलब नहीं जानते थे? अगर गाड़ी सरकारी नहीं थी तो उस पर नीली बत्ती क्यों लगी थी?

सवाल ये भी है कि बेहद संवेदनशील इलाके में एसपी बगैर सिक्योरिटी के क्यों घूम रहे थे? गाड़ी में नीली बत्ती लगी थी, सलविंदर सिविल ड्रेस में थे - अगर इन बातों को थोड़ी देर के लिए नजरअंदाज भी कर दें तो सबसे बड़ा सवाल ये है कि नीली बत्ती वाली सरकारी गाड़ी सलविंदर के दोस्त राजेश वर्मा क्यों चला रहे थे?

वैसे ये बात भी आसानी से गले उतरने वाली नहीं है कि जिस गुरदासपुर के थाने में कुछ ही महीने पहले आतंकवादी हमला हो चुका हो. नये आतंकी हमलों की ताजा खुफिया रिपोर्ट हो. उसी गुरदासपुर का एसपी आतंकियों के हाथों इतनी आसानी से इस्तेमाल हो जाएगा?

इतना तो कर सकते थे सलविंदर

जब एक ट्वीट पर चलती ट्रेन में भूख से परेशान बच्चों के लिए खाने के सामान पहुंच जा रहा हो. एक ट्वीट पर बच्चे के लिए दूध पहुंच जा रहा हो. एक ट्वीट पर रेल मंत्रालय बीमार के लिए डॉक्टर मुहैया करा दे रहा हो. उस सरकार में इतनी अंधेरगर्दी तो नहीं ही होगी कि आतंकवादी हमले की सूचना मिले और उसे नजरअंदाज कर दिया जाए.

मीडिया रिपोर्ट से पता चला है कि आतंकियों ने एसपी और उनके दोस्त के फोन छीन लिए थे, लेकिन सलविंदर का दूसरा फोन उनके पास ही था. एसपी सलविंदर का कहना है कि उन्होंने कई फोन किए और पूरी जानकारी दी. अगर एसपी का दावा सही है तब तो सचमुच अंधेरगर्दी मची है जहां एसपी की बात को भी कोई अहमियत नहीं दी जा रही.

तो क्या एसपी सलविंदर प्रधानमंत्री को एक ट्वीट नहीं कर सकते थे. देश के प्रधानमंत्री तो हमेशा ट्विटर पर उपलब्ध होते हैं. ट्वीट न सही डायरेक्ट मैसेज ही कर देते. प्रधानमंत्री को मैसेज देना उचित नहीं लगा हो तो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल को ही बता देते. अब ऐसा तो नहीं होगा कि एस रैंक के अफसर के पास एनएसए से संपर्क का कोई जरिया न पता हो. क्या एसपी साहब को ये सब बातें नहीं मालूम थीं?

वाकई नहीं मालूम थीं तो एसपी साहब को हवलदार जगदीश को याद कर सैल्यूट जरूर करना चाहिए. मन में अपनी ड्यूटी को लेकर कोई मलाल रह गया हो तो बोझ हल्का हो जाएगा.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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