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Updated: 30 नवम्बर, 2016 04:03 PM
कुमार शक्ति शेखर
कुमार शक्ति शेखर
  @KumarShaktiShekhar
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मोदी विरोधियों और समर्थकों के बीच जारी 'देशभक्ति' की बहस में 30 नवंबर को नया मोड़ आ गया. सुप्रीम कोर्ट ने भोपाल के एक सेवानिवृत्त इंजीनियर श्याम नारायण चौकसे की याचिका पर फैसला सुनाते हुए कहा कि 'सिनेमा हॉल में फिल्म दिखाए जाने के पहले राष्ट्र गान बजाया जाए और उस दौरान पर्दे पर राष्ट्रीय ध्वज फहराता हुआ स्पाष्ट दिखाई दे.' जस्टिस दीपक मिश्रा की बेंच ने यह भी जोड़ा कि इस दौरान सभी दर्शक राष्ट्र्गान और राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान में अपनी जगह खड़े हों. सिर्फ दिव्यांगों को इससे छूट रहेगी.

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 सभी दर्शकों को राष्ट्र्गान और राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान में अपनी जगह खड़े होना होगा

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कई लोगों को पुराने दिनों की याद दिला रहा है. 1960 के दशक तक सभी सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाया जाता था. लेकिन, कई लोग इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं और तर्क दे रहे हैं कि सिनेमा हॉल में राष्ट्र भक्ति का प्रदर्शन करना क्यों जरूरी है.

जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई है, उनके विरोधी सरकार पर भगवा विचारधारा थोपने के आरोप लगा रहे हैं. योग, स्कूलों में गीता, महाभारत और संस्कृत जैसे विषयों पर जोर दिया जा रहा है. गौरक्षा को लेकर बवाल हुआ ही है.

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'वंदे मातरम्' को लेकर बहस थी ही कि यह धर्म विशेष के लिए वंदना है और इसे सभी पर लागू नहीं किया जा सकता.

जो भी सरकार की इन नीतियों से सहमत थे, उन्हें 'भक्त' कहा जा रहा था. जबकि इसका विरोध करने वाले 'देशद्रोही' का तमगा झेल रहे थे.

मोदी और उनकी सरकार की मंशाओं के पीछे आरएसएस के 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और देशभक्ति' को जिम्मेरदार माना जा रहा था. लेकिन अपने ताजा फैसले में जस्टिस मिश्रा ने कहा है कि 'अब समय आ गया है कि लोग राष्ट्रगान में निहित संवैधानिक देशभक्ति को पहचानें. लोगों को यह लगना चाहिए कि वे आजाद मुल्क का हिस्सा जरूर हैं लेकिन उनकी यह गलतफहमी दूर होनी चाहिए कि उनकी आजादी निरंकुश है. लोगों को यह लगना चाहिए कि यह मेरा देश है, मेरी मातृभूमि.'

जब जस्टिस मिश्रा 'मातृभूमि' की बात कर रहे हैं तो उन लोगों को खासी परेशानी हो रही होगी, जो 'भारत माता' की अवधारणा का विरोध करते हैं. उन्हें यह आरएसएस द्वारा प्रचारित शब्द लगता है.

देश में 60 के दशक में सिनेमाहॉल में राष्ट्र गान गाया जाता था, जो धीरे-धीरे बंद हो गया. लेकिन 2003 से महाराष्ट्र में यह दोबारा शुरू हुआ. हर फिल्म से पहले राष्ट्रगान बजाया जाने लगा. लेकिन ठीक सालभर पहले मुंबई के ठाणे में एक मुस्लिम दंपति को सिनेमाहॉल से इसलिए बाहर निकाल दिया गया, क्योंकि उन्होंने राष्ट्रगान के दौरान खड़े होना ठीक नहीं समझा. इस घटना का वीडियो वायरल हो गया. और खूब हंगामा हुआ.

पिछले साल ही मद्रास हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान गाते वक्त लोगों का खड़े होना जरूरी नहीं है. हाईकोर्ट केंद्रीय गृहमंत्रालय के उस निर्देश पर प्रतिक्रिया दे रहा था, जिसमें कहा गया था कि 'सिनेमा हॉल में खड़े होने से फिल्म प्रसारण में बाधा होगी. अफरातफरी होगी और लोगों में भ्रम फैलेगा. इससे राष्ट्रगान की गरिमा में कोई बढ़ोत्तारी नहीं होगी.'

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लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी तर्कों को सिरे से खारिज करते हुए राष्ट्रगान को लेकर 'ध्वज संहिता' में दिए गए निर्देशों को सबसे ऊपर रखा.

अब इस फैसले में जितने तर्क और शब्दों  का इस्तेमाल हुआ है, वह आरएसएस की विचारधारा से मेल खाते हैं. या कहें कि हूबहू हैं. तो क्या सुप्रीम कोर्ट का भी भगवाकरण हो गया? मोदी विरोधी ये कहने से नहीं चूकेंगे.

लेकिन, मैं मानता हूं कि यह फैसला समय की मांग है. कुछ बातों को तो राष्ट्रहित की खातिर बहस से बाहर ही रखा जाए तो बेहतर है.

लेखक

कुमार शक्ति शेखर कुमार शक्ति शेखर @kumarshaktishekhar

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप से जुड़े पत्रकार हैं.

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