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Updated: 27 मार्च, 2019 04:58 PM
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बीजेपी के गांधी परिवार में सीटों की अदला-बदली ने चौंकाया तो नहीं लेकिन ध्यान सबका खींचा जरूर है. चौंकाने वाली बात तब होती जब बेटे के लिए मां ने पहली बार सीट छोड़ी होती. ऐसी अदला-बदली तो नहीं, लेकिन दस साल पहले 2009 में भी मेनका गांधी ने फिरोज वरुण गांधी के लिए पीलीभीत सीट छोड़ी थी - और खुद आंवला चली गयी थीं. बेटे के लिए अपनी सीट छोड़ कर मेनका के सुल्तानपुर शिफ्ट होने को संजय गांधी की विरासत पर दावेदारी के तौर पर भी देखा जा रहा है. संजय गांधी की वैसे तो अमेठी से चुनाव लड़ते रहे, लेकिन तब वो सीट सुल्तानपुर जिले का हिस्सा हुआ करती थी. अमेठी सीट पर राहुल गांधी को एक बार फिर स्मृति ईरानी चैलेंज करने जा रही हैं. रायबरेली के साथ साथ अमेठी भी प्रियंका गांधी वाड्रा का पुराना चुनाव प्रचार क्षेत्र रहा है. प्रियंका वाड्रा की नयी पारी में बड़ी भूमिका और जिम्मेदारी मिली हुई है.

मेनका और वरुण की सीटों की अदला-बदली में एकबारगी तमाम कारण देखे जा रहे हैं - लेकिन क्या इसमें प्रियंका गांधी की मौजूदगी का भी कोई रोल हो सकता है?

प्रियंका वाड्रा को काउंटर करेंगी मेनका गांधी

2014 में बीजेपी ने वरुण गांधी को पीलीभीत से ही सुल्तानपुर भेजा था. बीजेपी वरुण गांधी के जरिये जो सियासी फायदा उठाना चाहती थी, पर निराशा ही हाथ लगी. कांग्रेस के प्रति वरुण से बीजेपी को जिस कड़े प्रतिरोध की अपेक्षा रही वो उस पर खरे नहीं उतर सके. शायद बीजेपी नेतृत्व ने परिवार के प्रति वरुण गांधी के अंदर एक सॉफ्ट कॉर्नर जैसी स्थिति भी मसहूस की हो. वैसे भी प्रियंका गांधी वाड्रा के कांग्रेस महासचिव बनने के बाद वरुण गांधी के कांग्रेस में शामिल होने की जोरदार चर्चा रही. मुमकिन है बीजेपी नेतृत्व को ये बातें इतनी नागवार गुजरी हों कि वरुण के टिकट तक पर पुनर्विचार की नौबत आ पड़ी थी.

2014 के लोक सभा चुनाव में तो प्रियंका वाड्रा ने वरुण गांधी को सही रास्ते पर लाने के लिए हराने तक की अपील कर डाली थी. तब प्रियंका वाड्रा ने कहा था, 'वो निश्चित रूप से हमारे परिवार के हैं. वो मेरे भाई हैं - लेकिन वो गलत रास्ते पर चले गये हैं. जब कोई परिवार में नौजवान गलत रास्ता चुनता है तो बड़े-बुजुर्ग सही तरीके से सही रास्ता दिखाते हैं. मैं आप सभी से आग्रह करती हूं कि मेरे भाई को सही रास्ता दिखाएं.'

प्रियंका वाड्रा के बयान पर रिएक्ट तो वरुण गांधी और मेनका गांधी दोनों ही ने किये - लेकिन दोनों के लहजे और तेवर दोनों में खासा फर्क महसूस किया गया.

प्रियंका के बयान पर वरुण गांधी की टिप्पणी रही, 'इतने सालों में मैंने कभी भी अपने भाषणों में शालीनता की लक्ष्मण रेखा नहीं पार की, चाहे यह अपने परिवार का मामला हो या किसी राजनीतिक दल के वरिष्ठ नेता का मामला.'

मेनका गांधी के रिएक्शन में बीजेपी वाला तेवर और भाव दोनों दिखा - 'यदि देश की सेवा करना ग़लत रास्ता है तो यह देश ही तय करेगा.' मेनका के उस दो टुक जवाब और वरुण गांधी के खुद पर हमले के बावजूद मर्यादित बयान की बीजेपी में निश्चित तौर पर गंभीर विवेचना हुई होगी. एक बड़ी वजह ये भी है कि बीजेपी ने वरुण गांधी को पीलीभीत वापस भेज कर सुल्तानपुर के मोर्चे पर मेनका गांधी को खड़ा कर दिया है.

maneka gandhi, varun gandhiबीजेपी को उम्मीद है प्रियंका वाड्रा को वरुण गांधी से बेहतर जवाब मेनका गांधी ही दे सकती हैं.

सुल्तानपुर से कांग्रेस ने संजय गांधी के दोस्त रहे डॉ. संजय सिंह को टिकट दिया है. बीजेपी ने भी खास रणनीति के तहत मेनका गांधी को संजय गांधी की विरासत पर दावेदारी जताने के लिए सुल्तानपुर भेजा है.

2009 में संजय सिंह सुल्तानपुर का लोक सभा में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. पांच साल पहले जब वरुण गांधी सुल्तानपुर पहुंचे तो संजय सिंह ने खुद मैदान में उतरने की बजाय अपनी दूसरी पत्नी अमिता सिंह को आगे कर दिया था - जिन्हें वरुण गांधी से शिकस्त खानी पड़ी थी. उधर, पीलीभीत सीट पर कांग्रेस के उम्मीदवार नहीं होने की पूरी संभावना है. कांग्रेस ने कृष्णा पटेल वाले अपना दल के साथ चुनावी गठबंधन किया है और पीलीभीत सीट उसीके हिस्से में बतायी जा रही है. कृष्णा पटेल अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल की पत्नी हैं और उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल बीजेपी के साथ एनडीए में शामिल हैं.

बीजेपी को लगने लगा था कि प्रियंका वाड्रा के खिलाफ वरुण गांधी आक्रामक तो होने से रहे - जबकि मेनका गांधी कोई संकोच नहीं करने वाली हैं. प्रियंका वाड्रा के आने के बाद बीजेपी को भी काउंटर मैनेजमेंट करना पड़ रहा है. पिछले पांच से साल से अमेठी का तूफानी दौरा करती आयीं स्मृति ईरानी ने तो एक बार फिर डेरा डाल ही दिया है. अमेठी की बगल वाली सीट पर मेनका गांधी को भेज कर बीजेपी ने अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की कोशिश की है. मेनका गांधी ने तेवर दिखाने भी शुरू कर दिये हैं. प्रियंका वाड्रा को लेकर मेनका गांधी ने कहा है कि उनका कोई असर नहीं होने वाला है. साथ ही, राहुल गांधी को भी मेनका की सलाह है कि राफेल को छोड़ कर उन्हें जनता से जुड़े मुद्दे उठाने चाहिये. जिस बात से वरुण गांधी को परहेज होती होगी, मेनका ने बीजेपी के लिए वो काम शुरू कर दिया है.

अदला-बदली का आइडिया किसका?

ऐसे में जबकि हर सीट जीतने के लिए लोहे के चने चबाने पड़ रहे हों, बीजेपी फूंक फूंक कर एक एक कदम उठा रही है. सत्ता विरोधी लहर को काउंटर करने के लिए टिकट काटना तो सबसे आसान होता है - लेकिन पीलीभीत और सुल्तानपुर में जो प्रयोग हुआ है उसके पीछे बहुत सारे कारण लगते हैं. वरुण गांधी ने मोटी सी किताब और अखबारों में लेख लिखने में चाहे जितना वक्त लगाया हो, अपने संसदीय क्षेत्र में तो सक्रियता कम ही रही है. नेतृत्व से तकरार के चलते केंद्र सरकार की योजनाओं के प्रचार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पुतली फिरते ही चेतक की तरह बाकी सांसद जहां अपने अपने इलाके दौड़ पड़ते थे, वरुण गांधी पर असर कम ही होता रहा - और नेतृत्व भी वरुण गांधी पर हाशिये पर छोड़ देने के बाद बहुत दबाव नहीं बना पाता रहा. वरुण गांधी की इलाके में सक्रियता दिखी जरूर लेकिन ऐसे मौके पर जब यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार खुद सवालों के घेरे में रही. गोरखपुर अस्पताल में कई बच्चों की मौत के बाद वरुण गांधी सुल्तानपुर के अस्पतालों की निगरानी करते पाये गये थे.

बीजेपी नेतृत्व से तकरार की सबसे बड़ी मिसाल तो ये दिखी कि हाल तक वरुण गांधी ने अपने नाम के आगे चौकीदार भी नहीं लगाया था. वैसे प्रधानमंत्री मोदी के नाम के चौकीदार लिखने के काफी देर बाद तक कई और भी नेता एक दूसरे का मुंह देखते रहे - सुब्रह्मण्यन स्वामी तो अब भी नाम में बगैर चौकीदार लगाये बीजेपी का झंडा बुलंद किये हुए हैं.

बीजेपी की लिस्ट आने से पहले वरुण गांधी भी चौकीदार बन गये और टिकट के लिए ट्विटर पर मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को भरोसा जताने के लिए शुक्रिया कहा.

वरुण और मेनका को लेकर एक कॉमन शिकायत ये भी है कि दोनों के खिलाफ बीजेपी के स्थानीय नेताओं में खासी नाराजगी रही है. बीजेपी छोड़कर बीएसपी जा चुके चंद्रभद्र सिंह गठबंधन के उम्मीदवार के तौर पर आ डटे हैं. इसौली से विधायक रहे चंद्रभद्र सिंह सोनू कभी वरुण गांधी के करीबी माने जाते रहे, लेकिन अब वो मेनका गांधी के खिलाफ चुनाव मैदान में उतर चुके हैं.

मेनका के खिलाफ पीलीभीत में भी कई बीजेपी विधायक विधायक विरोध पर उतर आये थे. मेनका की जगह ये लोग किसी स्थानीय नेता को टिकट देने की मांग कर रहे थे - लेकिन आलाकमान ने बीच का ये रास्ता निकाला और फैसला सुना दिया.

1989 में मेनका गांधी ने पीलीभीत से बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव लड़ा था - लेकिन बीजेपी ने विरोध में कोई उम्मीदवार न उतार कर एक तरीके से सपोर्ट किया था. चुनाव जीतने के बाद मेनका गांधी बीजेपी में शामिल हो गयीं. 2009 में मेनका गांधी ने बेटे वरुण के लिए सीट छोड़ी और खुद आंवला ने चुनाव लड़ीं और जीतीं भी. 2014 आते आते वरुण गांधी की विधायकों से अनबन के चलते विरोध होने लगा तो सुल्तानपुर भेज दिया गया. एक बार फिर से मां के घरवापसी हो गयी है.

2009 में वरुण गांधी को भड़काऊ भाषण देने के लिए जेल तक जाना पड़ा था. वरुण चुनाव भी जीते और विवादित बयान के लिए फायर ब्रांड हिंदुत्ववादी नेता के तौर पर उभरे भी. बीजेपी ने भी उन्हें पश्चिम बंगाल का प्रभारी बनाया - लेकिन मोदी के खिलाफ उनका एक बयान इतना भारी पड़ा कि वो हाशिये पर चले गये. मेनका गांधी बेटे के लिए कोई सेफ सीट चाह रही थीं, जबकि बीजेपी नेतृत्व वरुण का टिकट काटने पर आमादा रहा. एक कंडीशन ये भी बनी कि मेनका गांधी अपनी सीट वरुण को देकर खुद हरियाणा के करनाल से चुनाव लड़ना चाह रही थीं - लेकिन बात नहीं बन सकी.

चर्चा रही कि बीजेपी नेतृत्व दोनों में से किसी एक को ही टिकट देने पर आमादा था, लेकिन मेनका अपने नेटवर्क और प्रभाव का इस्तेमाल कर अपनी बात मनवाने में कामयाब रहीं. कहा जा रहा है कि सीटों की अदला-बदली की सलाह मेनका गांधी ने ही दी थी.

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