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Updated: 03 जुलाई, 2016 03:01 PM
डा. दिलीप अग्निहोत्री
डा. दिलीप अग्निहोत्री
  @dileep.agnihotry
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प्रजातांत्रिक देशों में चुनाव के माध्यम से सरकार का गठन बेहतरीन तरीका है. इसमें प्रायः सामान्य समझ के मुद्दे होते हैं, उनके आधार पर मतदाता अपना फैसला सुनाते हैं. इसके बाद निर्वाचित सरकार का यह दायित्व होता है कि वह देशहित में कार्य करे. लेकिन इसी तर्ज पर जनमत संग्रह को व्यावहारिक नहीं माना जा सकता. आमजन के विचार जानने के अब तो पर्याप्त संचार माध्यम हैं. सरकार अपनी नीति-निर्धारण में उनका उपयोग कर सकती है लेकिन जनमत संग्रह समस्या का पूर्ण समाधान प्रस्तुत नहीं करती. इसके अलावा कई बार ऐसे तकनीकी, आर्थिक विषय होते हैं, जिनकी जन सामान्य को खास समझ नहीं होती.

ऐसे विषयों पर विशेषज्ञों का विचार ही महत्वपूर्ण होता है, जबकि जनमत संग्रह का विषय भले ही विशेषज्ञता की मांग करता हो, लेकिन इसकी प्रक्रिया राजनीतिक होती है. इसका भी प्रभाव पड़ता है कि कौन सी राजनीतिक पार्टी उसका समर्थन या विरोध करती है. कई बार देश के किसी एक हिस्से में जनमत संग्रह की मांग उठती है लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि देश का कोई एक हिस्सा अलग होने पर जनमत संग्रह कैसे कर सकता है.

खासतौर पर तब जब वह हिस्सा शाश्वत रूप में उसका अभिन्न हिस्सा रहा हो. पूरे देश का उस हिस्से से लगाव होता है. ऐसे में जनमत संग्रह की बाध्यता हो जाए, तब भी यह अधिकार पूरे देश का होता है. अर्थात् वह खास हिस्सा देश में रहेगा या नहीं इस पर फैसला सम्पूर्णता में ही हो सकता है. दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि ऐसे विषयों पर भी जनमत संग्रह अनावश्यक है और इन बातों को हमेशा के लिए समाप्त मान लेना चाहिए.

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ये बात अलग है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री ब्रिटेन से प्रेरित दिखाई दिये. उन्होंने कहा कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के लिए जनमत संग्रह होना चाहिए. यहां भी केजरीवाल को कई बातों का ध्यान रखना चाहिए. एक यह कि जहां संसद, सुप्रीम कोर्ट, प्रधानमंत्री कार्यालय, राष्ट्रपति भवन आदि हैं, क्या उस क्षेत्र को पूर्ण राज्य का दर्जा देकर अलग सरकार के हवाले किया जा सकता है.

यदि ऐसा किया गया तो भविष्य में अनेक विसंगतियां उत्पन्न होंगी, जिनका अन्ततः राष्ट्रीय हितों पर प्रतिकूल प्रभाव होगा. दूसरी बात यह कि पूर्ण राज्य सुशासन या जनहित की गारन्टी नहीं होती. अनेक पूर्ण राज्य भी विकास और कानून व्यवस्था के लिहाज से बदहाल हैं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि स्विट्जरलैण्ड जैसे मात्र साठ लाख आबादी वाले देशों में जनमत संग्रह भले ही व्यावहारिक हों लेकिन इससे बड़े देशों में शासन व्यवस्था का संचालन जनमत संग्रह से नहीं, वरन् संवैधानिक व्यवस्था से ही चल सकता है.

यदि संविधान में किसी खास मसले पर जनमत संग्रह का प्रावधान नहीं है, तो भूलकर भी उसके पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए. यह अनेक प्रकार की समस्याओं को जन्म देता है ब्रिटिश प्रधानमंत्री कैमरन ने यही गलती की. उन्होंने ब्रिटेन के यूरोपीय यूनियन में रहने पर जनमत संग्रह कराया. बहुमत यूरोपीय यूनियन से अलग होने के पक्ष में आया. इसका तात्कालिक प्रभाव खुद कैमरन पर हुआ. उन्होंने त्यागपत्र दे दिया.

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अन्य प्रभावों ने भी असर दिखाना शुरू कर दिया है. करीब साढ़े तीन करोड़ लोगों ने जनमत संग्रह में भाग लिया था. इसके अलग होने के पक्ष में बीस लाख अधिक वोट थे. जाहिर है यूरोपीय यूनियन में शामिल रहने का समर्थन करने वालों की संख्या भी कम नहीं है. यदि ऐसा दृश्य चुनाव में बनता तो इसे सामान्य माना जाता. क्योंकि तब जिसे बीस लाख अधिक वोट मिलते, उसकी सरकार बन जाती. सरकार पूरे देश की होती है. किसने उसे वोट दिया, किसने नहीं दिया, इस बात का महत्व नहीं रह जाता, लेकिन यूरोपीय यूनियन विषय पर हुए जनमत संग्रह में ऐसी बात नहीं है.

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जनमत संग्रह में ब्रिटेन के यूरोपीय यूनियन से बाहर होने के फैसले की वजह से पीएम डेविड कैमरन ने इस्तीफा दे दिया

कैमरन के इस्तीफे के बाद दूसरा बड़ा प्रभाव यह दिखाई दे रहा है कि ब्रिटेन वैचारिक रूप से विभाजित दिखाई दे रहा है. यूनियन में शामिल रहने का समर्थन करने वालों को पराजय मिली, लेकिन इनकी संख्या भी डेढ़ करोड़ से ऊपर है. ऐसे में इनका हौंसला भी बुलन्द है. इन्होंने आन्दोलन भी शुरू कर दिया है. तीसरा तात्कालिक प्रभाव यह है कि पिछले कई महीने जनमत संग्रह की अफरातफरी में निकले तो अगले कई महीने अस्थिरता का माहौल रहेगा. सत्तापक्ष को कैमरन के उत्तराधिकारी का चयन करना है. फिर कोई बड़ा फैसला भी उन्हें ही लेना होगा.

ब्रिटेन में यह मसला अभी लम्बा खिंचेगा. इसमें सामाजिक विघटन भी दिखाई देगा. ऐसे में किसी भी सरकार के लिये सामान्य रूप से कार्य करना भी मुश्किल हो जाता है. उसकी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं. ब्रिटेन चुनावी माहौल की गिरफ्त में आ गया है. यह माहौल केवल एक विषय पर जनमत संग्रह को लेकर है. साफ देखा जा सकता है कि जनमत संग्रह के बाद भी ब्रिटेन शांत नहीं है. उस पर दोहरा दबाव है. एक तरफ इसी विषय पर दूसरे जनमत संग्रह की मांग जोर पकड़ने लगी है, दूसरी तरफ यूरोपीय संसद के प्रमुख माट्रिन शूल्ज ने प्रधानमंत्री डेविड कैमरन से कहा है कि वह यूरोपीय यूनियन छोड़ने की प्रक्रिया तत्काल प्रारम्भ करें.

इस प्रकार यूरोपीय संसद के प्रमुख यह संदेश देना चाहते हैं कि ब्रिटेन के हटने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन वह भी जानते हैं कि मसला इतना आसान नहीं है. अस्थिरता का जो दौर ब्रिटेन से प्रारम्भ हुआ है, उसका असर कई अन्य देशों पर भी दिखाई देने लगा है. ब्रिटेन में तो दूसरे जनमत संग्रह की याचिका को भारी समर्थन मिल रहा है. बड़ी संख्या में लोगों ने उस पर हस्ताक्षर किए हैं. इस याचिका में जनमत संग्रह के नतीजों को नजरन्दाज करने की बात कही गयी है. यह भी कहा गया कि यह मात्र एडवाइजरी थी. इस उतावलेपन को रोका जा सकता है. जाहिर है कि इस एक जनमत संग्रह ने ब्रिटिश सत्ता, विपक्ष और समाज सभी में अफरातफरी ला दी है.

डेविड कैमरन सर्वाधिक लोकप्रिय थे, वह पद छोड़ रहे हैं. विपक्षी लेबर पार्टी में विद्रोह की स्थिति है. कई दिग्गजों ने अपने पदों से इस्तीफा दे दिया. जनमत संग्रह को ठीक से संचालित न करने के आरोप शीर्ष नेतृत्व पर लग रहे हैं. समाज में भी विभाजन गहरा रहा है, विजयी और पराजित दोनों खेमे नए मोर्चे बना रहे हैं. इस अफरातफरी का फिलहाल समाधान संभव नहीं है.

यूरोपीय यूनियन से हटने के बाद आर्थिक क्षेत्र में ब्रिटेन को कई प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ेगा. रोजगार के अवसर कम होंगे, राजस्व घटेगा तथा अर्थव्यवस्था को ताकत देने वाले बाहरी विशेषज्ञों की कमी होगी. ये सभी बातें समस्या को पेंचीदा बनाएंगी. तब ब्रिटेन को खुद ही एहसास होगा कि जनमत संग्रह समाधान नहीं करते, वरन् समस्या बढ़ाते हैं.

लेखक

डा. दिलीप अग्निहोत्री डा. दिलीप अग्निहोत्री @dileep.agnihotry

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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