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Updated: 23 सितम्बर, 2017 07:57 PM
बिजय कुमार
बिजय कुमार
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देश के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने न्यायाधीशों से कहा है कि ऐसा संभव नहीं है कि आप शासन चलाएं और आपको जिम्मेदार भी ना ठहराया जाए. कानून मंत्री ने कहा कि सत्ता चलाने और उसकी जिम्मेदारी का दारोमदार जनता द्वारा चुने गए जन प्रतिनिधियों पर होता है. और न्यायधीशों को ये काम उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए. उन्होंने कहा कि अगर न्यायपालिका किसी कानून को असंवैधानिक बता कर हटा सकती है. तो उसे निश्चित रूप से सरकार और कानून बनाने का काम उन पर छोड़ देना चाहिए जिनको जनता ने चुना है.

शुक्रवार को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के एक सेमीनार के दौरान श्री प्रसाद ने यह बात कही. इस अवसर पर आयोग के अध्यक्ष और उच्चत्तम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एच. एल. दत्तू सहित कई गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे. उन्होंने कहा कि हाल ही में मैंने कुछ अदालतों में सरकार चलाने कि प्रवृत्ति देखी है और इस चलन पर विचार करने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को अपनी शक्ति की जिम्मेदारी कबूल करनी चाहिए.

रविशंकर प्रसाद, भाजपा, न्यायलयरविशंकर प्रसादऐसा नहीं है कि मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार की ओर से न्यायपालिका पर ऐसा बयान देने वाले रवि शंकर प्रसाद पहले मंत्री हैं. इससे पहले देश के वित्तमंत्री अरुण जेटली ने न्यायपालिका पर सरकारी कामकाज में दखलअंदाजी करने का आरोप लगाया था. बात पिछले साल की है, जब उच्चत्तम न्यायलय ने सूखे को लेकर राज्य सरकारों को फटकार लगाई थी और केंद्र को सूखे पर एसटीएफ बनाने का निर्देश दिया था. अदालत का ये रवैया सरकार को नहीं भाया और उसने इसे अपने अधिकारों में दख़ल की तरह लिया.

श्री जेटली ने तब न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाते हुए पिछले वर्ष मई में राज्यसभा में कहा था कि- 'अदालत के हस्तक्षेप से सरकार को काम करने में परेशानी आ रही है.' उन्होंने तब कहा था कि- 'सरकार के सभी कार्यो में न्यायालय का दखल बढ़ गया है. जिससे कामकाज प्रभावित हुआ है. राजनीतिक समस्याओं का समाधान न्यायपालिका को नहीं करना चाहिए. बल्कि इसका हल राजनीतिक ढंग से निकला जाना चाहिए.' ये बता दें कि उस दौरान कांग्रेस पार्टी ने वस्तु और सेवा कर पर विवाद निपटाने के लिए उच्चत्तम न्यायालय के न्यायाधीश के तहत ट्राइब्युनल बनाने की मांग की थी. श्री जेटली ने इस पर भी चेतावनी दी. उन्होंने कहा था कि- 'कार्यपालिका और विधायिका के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए.'

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी पिछले साल बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा आईपीएल मैचों को महाराष्ट्र के बाहर कराये जाने के फैसले पर ऐतराज जताया था. वैसे उन्होंने कहा था कि- 'मैं न्यायालय का बहुत सम्मान करता हूं. लेकिन मैचों को महाराष्ट्र से बाहर कराए जाने से पानी की समस्या का हल नहीं होगा. अगर न्यायाधीश, सरकार का काम करना चाहते हैं तो उन्हें चुनाव लड़कर मंत्री बनाना चाहिए.'

वैसे इसी न्यायपालिका ने जब पिछली सरकार के दौरान कहा था कि- 'सीबीआई एक पिंजरे के तोते की तरह है' तो इन मंत्रियों को यह बात खूब रास आई थी. क्योंकि तब ये विपक्ष में हुआ करते थे. सरकार और न्यायपालिका के बीच इस तरह के मतभेद का कारण विभिन्न मुद्दों पर पीआईएल के माध्यम से अदालतों द्वारा कई ऐसे फैसले दिए जाना है जिसमें सरकार की सहमती नहीं रही हो. या फिर उसे लगा हो कि ये उसके कामकाज में दखल है.

कुछ मामलों की बात करें तो निजता के अधिकार को संविधान के तहत मौलिक अधिकार घोषित करना. दिल्ली के पर्यावरण पर सवाल. कारों की बिक्री हो या फिर टैक्सी चलाने का सवाल. यही नहीं राज्यों में राष्ट्रपति शासन तक का मामला अदालतों द्वारा निपटाया जाता रहा है. वैसे दोनों पक्षों के बीच सबसे पेचिदा मामला न्यायाधीशों की नियुक्ति का है.

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लेखक

बिजय कुमार बिजय कुमार @bijaykumar80

लेखक आजतक में प्रोड्यूसर हैं.

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