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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 20 अगस्त, 2017 02:01 PM
अभिरंजन कुमार
अभिरंजन कुमार
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मानसिक और वैचारिक तौर पर दिवालिया हो चुके जिन लोगों को 1984 के दंगों में 3 दिन के भीतर 3,000 लोगों का मार दिया जाना भीड़ के उन्माद की सामान्य घटना नज़र आती है, उन्हीं लोगों ने, गुजरात दंगे तो छोड़िए, उन्मादी भीड़ द्वारा दादरी में सिर्फ एक व्यक्ति की हत्या को देश में असहिष्णुता का महा-विस्फोट करार दिया था.

दरअसल सेक्युलरिज़्म की चिप्पी माथे पर चिपकाए ये वे सांप्रदायिक लोग हैं, जो इंसानी जानों की कीमत उनके संप्रदाय और ध्रुवीकृत होकर उनके वोट करने की प्रवृत्ति के आधार पर लगाते हैं. इसीलिए इन शातिर लोगों को 1984 में मारे गए लोगों की जान 2002 में मारे गए लोगों की जान से सस्ती लगती है, जबकि सचाई यह है कि 1984 का दंगा सिर्फ 2002 के दंगे से ही नहीं, आजाद भारत के किसी भी दूसरे दंगे से अधिक बड़ा और वीभत्स था. इसका ठीक से आंकलन नहीं हो पाने की कई वजहें रहीं. मसलन,

1. यह दंगा एक ऐसे संप्रदाय के खिलाफ था, जिसका देश की आबादी में हिस्सा मात्र पौने दो प्रतिशत है और दुनिया में उसका अस्तित्व इसी अल्प भारतीय आबादी पर टिका है.

2. यह दंगा एक ऐसे संप्रदाय के खिलाफ था, जिसकी पंजाब जैसे छोटे राज्य से बाहर राजनीति को प्रभावित करने की हैसियत नहीं थी.

3. यह दंगा एक ऐसे संप्रदाय के खिलाफ था, जिसके वोट के बिना भी इस देश में हत्यारी प्रवृत्ति के लोग ठाट से राज कर सकते हैं.

4. जब यह दंगा हुआ, तब भारत में मीडिया इतना पावरफुल नहीं था कि वह राजनीति और समाज की सोच को पल-पल प्रभावित कर सके. दृश्य-श्रव्य मीडिया का अस्तित्व न के बराबर था. प्रिंट मीडिया का प्रसार भी इतना नहीं था. साक्षरता और संपन्नता कम होने से उनकी रीडरशिप भी कम थी. सोशल मीडिया तो था ही नहीं. देश की बड़ी आबादी के लिए सिर्फ सरकारी रेडियो था, जिसके जरिए सूचनाएं सेंसर होकर पहुंचती थीं.

5. जब यह दंगा हुआ, तब विपक्ष काफी कमजोर था और कांग्रेस की जड़ें इतनी गहरी थीं कि उसके लोग पब्लिक को जो समझा देते थे, उसे ही पुराण, कुरान और बाइबल समझ लिया जाता था.

6. जब यह दंगा हुआ, तब देश में बुद्धिजीवियों के एक बड़े समूह की आत्मा कांग्रेस के पास बंधक थी. बचे-खुचे बुद्धिजीवियों के दिमाग से भी शायद ज़ुल्मी इमरजेंसी का खौफ उतरा न था.

7. इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर पर सवार होकर कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में 533 में से 404 सीटें जीत लीं. जब सरकार इतनी ताकतवर हो, तो किसकी हिम्मत थी उसके सामने तनकर खड़े होने की?

नतीजा यह हुआ कि दुनिया के सबसे बड़े धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की राजधानी में एक अल्प आबादी वाले संप्रदाय के ख़िलाफ़ इतने भीषण नरसंहार के बाद उतना भी शोर नहीं हुआ, जितना हाल में हम सबने दादरी में सिर्फ एक व्यक्ति की हत्या के बाद सुना. खुशवंत सिंह और अमृता प्रीतम जैसे कतिपय सिख लेखकों को छोड़कर हिन्दू और मुस्लिम बिरादरी के ज्यादातर “धर्मनिरपेक्ष”, “प्रगतिशील” और “क्रांतिकारी” लेखक उन दिनों “सहिष्णुता” का अभ्यास कर रहे थे.

राजीव गांधी की सरकार ने निर्लज्जता की सारी हदें पार करते हुए दंगों की निष्पक्ष जांच कराना तो दूर, दंगाई समझे जाने वाले नेताओं को लगातार पुरस्कृत किया. हरकिशन लाल भगत राजीव के पूरे कार्यकाल में संसदीय कार्यमंत्री बने रहे. बीच में उन्हें सूचना प्रसारण मंत्रालय की भी जिम्मेदारी दी गई. इस दौरान भगत साहब ने दूरदर्शन को “राजीव का भगत” और “राजीव-दर्शन” बना डालने में अहम भूमिका निभाई.

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इसी तरह, दंगाइयों के संरक्षक समझे जाने वाले दूसरे प्रमुख नेता जगदीश टाइटलर को भी दंगे के बाद के तीनों कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों- राजीव गांधी, पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने अपनी कैबिनेट में महत्वपूर्ण जगहें दीं. यानी दंगे के 20 साल बाद तक वे कांग्रेस आलकमान और प्रधानमंत्रियों के दुलारे बने रहे. तीसरे आरोपी नेता सज्जन कुमार ने भी दंगों के 25 साल बाद तक मलाई चाटी. 1991 और 2004 में वे दोबारा और तिबारा सांसद बने एवं कई महत्वपूर्ण संसदीय समितियों के सदस्य रहे.

दंगों के सिलसिले में कांग्रेस के एक और बड़े नेता ललित माकन का नाम प्रमुखता से आया था. हालांकि बदला लेने के इरादे से खालिस्तान कमांडो फोर्स के उग्रवादियों ने 1985 में उनकी हत्या कर दी. उनकी मौत के बाद पार्टी ने ललित माकन के भतीजे अजय माकन को आगे बढ़ाया, जो न सिर्फ दिल्ली की शीला और केंद्र की मनमोहन सरकार में अहम पदों पर रहे, बल्कि आज भी कांग्रेस के पावरफुल नेता हैं.

इतना ही नहीं, दंगों को देखकर अपनी आंखें बंद कर लेने वाले देश के तत्कालीन गृह मंत्री पीवी नरसिंह राव को भी पार्टी ने प्रोमोशन देकर 1991 में देश का प्रधानमंत्री बना दिया, लेकिन इसपर किसी ने वैसी हाय-तौबा नहीं मचाई, जैसी नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले और बाद में मचाई गई. साफ है कि 84 दंगों के खून से सिंचकर कई नेता लहलहा उठे और उन सबको हैसियत से बढ़कर पुरस्कार दिये गए.

अगर 2002 के गुजरात दंगों को सुनियोजित और शासन-समर्थित समझा जाता है, तो इसमें भी शक की कोई गुंजाइश नहीं कि 1984 के सिख-विरोधी दंगे भी सुनियोजित और शासन-समर्थित थे. दंगों के दौरान दिल्ली पुलिस हाथ पर हाथ रखकर बैठ गई और कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को नरसंहार की खुली छूट दी गई. कहीं भीड़ के स्वतःस्फूर्त उन्माद की वजह से दंगा नहीं भड़का, बल्कि कांग्रेस के नेताओं ने हमलावरों को पैसे, शराब और इनाम दे-देकर सिखों के कत्लेआम के लिए भेजे. जलाई गई कई बस्तियों में फायर-ब्रिगेड की गाड़ियां तक नहीं जाने दी गईं.

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वैसे भी आम आदमी कहीं भी घूम-घूमकर बस्तियों में आग नहीं लगाता, न ही मासूम लोगों की हत्याएं करता है. सुनियोजित साजिश और शासन की मिलीभगत के बिना कभी भी कहीं भी इतने बड़े पैमाने पर नरसंहार संभव ही नहीं है. पिछले साल अप्रैल में अमेरिका के कैलिफोर्निया राज्य की असेंबली में भी इस बात को स्वीकार किया गया कि 1984 के सिख नरसंहार के लिए भारत की तत्कालीन कांग्रेस सरकार जिम्मेदार थी. विकीलीक्स के 2011 के खुलासों के मुताबिक, अमेरिकी प्रशासन भी यह मानता था कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार में सिखों के लिए नफरत की भावना थी.

इसलिए जो लोग 1984 और 2002 के दंगों की तुलना करना चाहते हैं, उन्हें राजीव गांधी और नरेंद्र मोदी की भी तुलना करनी चाहिए.

1. 1984 में देश की राजधानी में भड़के दंगे के समय राजीव देश के प्रधानमंत्री थे. 2002 में गुजरात में भड़के दंगे के समय मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे.

2. 1984 में अगर राजीव नए और अनुभवहीन प्रधानमंत्री थे, तो 2002 में मोदी भी नए और अनुभवहीन मुख्यमंत्री थे.

3. दंगों के बाद पहले नेता ने कहा- “बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती है” दूसरे नेता ने कहा- “हर क्रिया के बाद प्रतिक्रिया होती है”

4. इस्तीफा न पहले ने दिया, न दूसरे ने और दोनों अपनी-अपनी जगह राज करते रहे.

5. गुनहगारों को सजा न पहले ने दिलाई, न दूसरे ने और दोनों के राज में गुनहगार फलते-फूलते रहे.

फिर दोनों में फर्क क्या रहा? फर्क ये रहा कि- 

1. पहले के राज में सिखों का एकतरफा और निर्बाध कत्लेआम हुआ, और वो सेकुलर बना रहा. दूसरे के राज में हिन्दू (254) और मुसलमान (790) दोनों मारे गए और वो सांप्रदायिक हो गया.

2. पहला देश का प्रधानमंत्री था, बहुमत के विशाल पहाड़ पर था, निरंकुश था, इसलिए उसे “राज-धर्म” का पाठ पढ़ाने वाला कोई नहीं था, लेकिन दूसरा एक मझोले राज्य का मामूली मुख्यमंत्री था, सिस्टम में बहुत सारे लोग उससे ऊपर थे, इसलिए वह निरंकुश नहीं था और उसे “राज-धर्म” का पाठ पढ़ाने वाले लोग मौजूद थे.

3. पहले नेता को दूसरी-तीसरी-चौथी पंक्ति के दंगाई नेताओं और हुड़दंगियों पर ज़िम्मेदारी डालकर हमेशा आरोप-मुक्त रखा गया, जबकि दूसरे नेता पर हर दंगाई की ज़िम्मेदारी डाल दी गई.

4. पहले नेता ने 84 दंगे के बाद भी बार-बार सांप्रदायिक राजनीति की, जिनमें अयोध्या में विवादास्पद ढांचे का ताला खुलवाकर कई और दंगों व हज़ारों लोगों के मारे जाने की पृष्ठभूमि तैयार करना और शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटकर देश के इतिहास की सबसे बड़ी न्यायिक हत्या करना शामिल है. दूसरे नेता ने 2002 के दंगों के बाद से ऐसा कोई बड़ा कारनामा नहीं किया है.

इसलिए कुटिल कांग्रेसजन, विकृत वाम-मार्गी और बिके हुए बुद्धिजीवी चाहे जो भी कहें, यह सवाल तो उठना ही चाहिए कि अगर नरेंद्र मोदी “मौत के सौदागर”, तो राजीव गांधी और उनके परिवार के लोग “मनुष्यता के मसीहा” कैसे हो गए? ग़र मुझसे पूछेंगे तो मैं तो यही कहूंगा कि न सिर्फ 1984 के दंगे गुजरात के दंगों से बड़े और वीभत्स थे, बल्कि राजीव गांधी भी नरेंद्र मोदी की तुलना में अधिक सांप्रदायिक, या यूं कहें भारत के इतिहास के सबसे सांप्रदायिक प्रधानमंत्री थे.

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लेखक

अभिरंजन कुमार अभिरंजन कुमार @abhiranjan.kumar.161

लेखक टीवी पत्रकार हैं.

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