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Updated: 07 अक्टूबर, 2015 07:48 PM
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एक हालिया व्याख्यान में, भारत के उप राष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी ने हमें याद दिलाना ज़रूरी समझा कि भारत का संविधान भारतीयों से उनके 'विचारों, अभिव्यक्ति, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता' का वादा करता है. असहमति का अधिकार इस संवैधानिक गारंटी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. उन्होंने ऐसा करना जरूरी समझा क्योंकि भारत की विविधताओं और विचारों की संस्कृति पर अब हमला हो रहा है.

तर्कवादी जो अंधविश्वास पर सवाल करते हैं, कोई भी जो हिंदुत्व कहलाए जाने वाले हिंदू धर्म पर सवाल करता है- चाहे वो बौद्धिक या कलात्मक क्षेत्र में हो, चाहे खाने से संबंधित हो या जीवन शैली से, उन्हें किनारे कर दिया जाता है, उन पर अत्याचार किए जाते हैं या उनकी हत्या कर दी जाती है. एक मशहूर कन्नड़ लेखक और साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता एम.एम.कलबर्गी और महाराष्ट्र के दो अंधविश्वास विरोधी कार्यकर्ता नरेंद्र ढ़ाबोलकर और गोविंद पंसारे मोटरसाइकल सवार बंदूकधारियों द्वारा मार दिए गए. दूसरे विरोधियों को भी धमकी दी गई कि अब उनकी बारी है. अभी हाल ही में, दिल्ली के बाहर बिसाहड़ा गांव के एक लोहार मोहम्मद अखलाक को घर से बाहर खींचकर बेरहमी से मारा डाला गया, इस संदेह में कि उसके घर में गौमांस पका था.

इन मामलों में, कानून अपने हाथ खींच लेता है. प्रधानमंत्री इस पर चुप रहते हैं. हमें मान लेना चाहिए कि वो इस तरह के काम करने वालों को हटाने की हिम्मत नहीं करते जो उनकी विचारधारा को मानते हैं. ये दुख की बात है कि साहित्य अकादमी चुप रहती है. अकादमियां रचनात्मक कल्पना के संरक्षक के रूप में, कला और साहित्य, संगीत और थिएटर के अपने बेहतरीन उत्पादों के प्रोतसाहक के रूप में बनाई गईं थीं.

कलबर्गी की हत्या के विरोध में, हिन्दी लेखक उदय प्रकाश ने अपना साहित्या अकादमी पुरस्कार वापस लौटा दिया था. छह कन्नड़ लेखकों ने अपने पुरस्कार कन्नड़ साहित्य परिषद में लौटा दिए. भारतीय जिनकी हत्या की गई उनकी याद में, उन सभी भारतीयों के समर्थन में जो असहमति का अधिकार रखते हैं, और उन सभी विरोधियों के लिए जो आज डर और शक में जीते हैं, मैं अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस लौटा रही हूं.

नयनतारा सहगल, देहरादून

तो धार्मिक असहिष्णुता की बढ़ती राजनीति के विरोध में नयनतारा सहगल ने अपना साहित्या अकादमी पुरस्कार लौटा दिया. उनके इस फैसले की पृष्‍ठभूमि दादरी हत्या कारणों के विरोध वाली थी, जो नफरत की राजनीति के सबसे हालिया उदाहरण से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है.

हम तर्क दे सकते हैं कि सहगल दोहरे मापदंड की दोषी हैं. आखिर उन्हें देश की राजधानी में सिख विरोधी दंगों के दो साल बाद 1986 में ही पुरस्कार मिला था. क्या उन्हें उस समय की राजीव गांधी सरकार द्वारा दिए गए पुरस्कार को अस्वीकार नहीं करना चाहिए था, जिन्होंने खुद उस नरसंहार को देखा था? हम ये भी कह सकते थे कि जब बाबरी मस्जिद तोड़ा गया था, 2002 के दंगे हुए, जब कश्मीरी पंडितों को घरों से निकाल दिया गया था, तब उन्हें पुरस्कार लौटा देना चाहिए था. 

मैंने उनसे ये सवाल किया. उनका जवाब छोटा और स्पष्ट था- अब केंद्र में हिंदुत्व की सरकार है. मेरा मानना है कि वो ये कहना चाह रही थीं कि हिंसा की अनदेखी नहीं की गई है, बल्कि केंद्र में स्थापित सरकार से उसे किसी न किसी तरह से समर्थन मिलता है. वो ये भूल गईं कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार है. हर धार्मिक हिंसा के लिए हिंदुत्ववादी ताकतों को दोष देना सरासर गलत है और ये अकसर झूठे तथ्यों पर आधारित होते हैं.

और फिर भी, फिजा में कुछ तो जहर घुला ही है. जब एक सांसद साक्षी महाराज, एक विधायक संगीत सोम, केंद्रीय मंत्री सुनील बल्यान और महेश शर्मा बार-बार भड़काऊ बयान देकर बच निकलते हैं, तब आपको पूछना चाहिए- क्या केंद्र सरकार इतनी शक्तिहीन है कि इस पर लगाम न लगा सके और अपने खुद के सदस्यों की फटकार न लगा सके? क्या वो ऐसा करना नहीं चाहते या फिर ये दोहरी रणनीति है जहां एक तरफ प्रधानमंत्री कहते हैं कि 'सबका साथ, सबका विकास' लेकिन उनकी पार्टी के सदस्य खुलकर अपने बहुसंख्यकवादी एजेंडे पर काम करते हैं?

हां, सहगल का गुस्‍सा पक्षपातपूर्ण है. जवाहरलाल नेहरू की भांजी के नाते उन्हें ये जवाब देना चाहिए कि वो कांग्रेस के ट्रैक रिकॉर्ड पर ये सवाल करने में क्यों असफल रहीं. और फिर भी, वास्तविक असफलता भारत की है जिसने अपने नागरिकों की रक्षा के संवैधानिक कर्तव्य (चाहे वो किसी भी धर्म के क्यों न हों) को निभाने के लिए प्रतिबद्धता की कमी दिखाई.

सहगल के संकेत प्रतीकवादी है, या दोहरी मानसिकता भी दर्शाते हों. लेकिन उन लोगों का मनोभाव भी तो ऐसा ही है जो विदेश में डिजिटल इंडिया का आश्वासन देते हैं लेकिन विभाजित भारत को अपना ही घर बर्बाद करने देते हैं.

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