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Updated: 18 अक्टूबर, 2021 04:57 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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कांग्रेस की कोई भी मीटिंग हो, कुछ नेता बहती गंगा में हाथ धोने के इंतजार में बैठे रहते हैं. भले ही वो CWC की बैठक ही क्यों न हो. भले ही वो किसी अति महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा के लिए ही क्यों न बुलायी गयी हो. भले ही सोनिया गांधी ने कोई खास बात बताने के लिए क्यों न बुलाई हो - वे तो जैसे मौके की ताक में बैठे रहते हैं.

G-23 गुट के कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल शायद ऐसे ही नेताओं को 'जी-हुजूर' ग्रुप बताते हैं. देखा जाये तो कांग्रेस में G-23 और जी-हुजूर दोनों ही ग्रुपों का कॉमन एजेंडा है. फर्क बस ये है कि G-23 के मुकाबले जी-हुजूर ग्रुप का फोकस स्पेसिफिक है - दरअसल, दोनों ही गुट कांग्रेस में एक पूर्णकालिक अध्यक्ष की जरूरत महसूस कर रहा है.

राजनीतिक दलों में नियुक्तियां कम से कम दो तरीके से होती हैं. एक चुनाव के जरिये, और दूसरी मनोनयन के माध्यम से. वंशवाद और फेमिली पॉलिटिक्स की पक्षधर राजनीतिक दलों में दोनों ही तरीकों में कोई व्यावहारिक फर्क भी नहीं होता - कांग्रेस में G-23 गुट पहले चुनाव कराकर फिर नतीजे चाहता है, जबकि उसका परस्पर विरोधी गुट पहले नतीजा तय करने के बाद चुनाव की चाहत रखता है. ऐसा संकेत भी CWC की ताजा मीटिंग से मिलता है.

कांग्रेस कार्यकारिणी मीटिंग में सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने तो बता ही दिया था कि वो कोई अंतरिम नहीं बल्कि फुलटाइम अध्यक्ष (Congress President) ही हैं क्योंकि सक्रिय होकर वो नियमित रूप से सारे काम कर रही हैं. सोनिया गांधी के बयान के बाद बुजुर्ग कांग्रेसी के. नटवर सिंह का कहना है कि सोनिया गांधी तो बीते 21 साल से कांग्रेस की बॉस हैं.

सोनिया गांधी के भाषण के बीच जैसे ही मौके के इंतजार में बैठे नेताओं को कट-प्वाइंट मिला, मुद्दे की बात पर आ गये. मुद्दा भी वही जो 2017 में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की ताजपोशी से पहले उठा करता था और 2019 में इस्तीफे के बाद से उठाया जाता रहा है - कार्यकारिणी की मीटिंग में राजस्थान के मुख्यमंत्री ने मौका देखते ही डिमांड रख दी. अंदाज भी ऐसा जैसे वो सभी के मन की बात कह रहे हों. फिर तो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी हां में हां मिला दी. करते भी क्या अगर चूक जाते तो अगला नंबर अशोक गहलोत से पहले उनका ही हो सकता था. भूपेश बघेल भी कांग्रेस की क्राइसिस पॉलिटिक्स में उसी मोड़ पर खड़े हैं जहां अशोक गहलोत हैं - क्योंकि उसके आगे की राह वो है जो कैप्टन अमरिंदर सिंह को पकड़नी पड़ी है.

राहुल गांधी के सामने उन नेताओं ने तो अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव तो रखा ही जिन पर तलवार लटक रही है, मजबूरन उनको भी ऐसा करना पड़ा जो कतार में कभी भी शामिल किये जा सकते हैं. - बहरहाल, गांधी परिवार के करीबी होने का दावा करने वाले नेताओं की बात पर प्रसन्नचित्त राहुल गांधी ने हामी भर दी, लेकिन बस इतना ही कि वो उनकी भावनाओं का सम्मान तो करते ही हैं, उनके आग्रह पर विचार भी करेंगे - और साथ में ये भी जोड़ दिया कि समय आने पर फैसला लेंगे. फिर क्या था, राहुल गांधी के चुनाव हुए बगैर ही कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने की संभावनाएं जतायी जाने लगीं - लेकिन सवाल ये है कि क्या ये सब पहले की ही तरह इतना आसान भी है? कांग्रेस का जो हाल हो रखा है, ऐसा तो नहीं लगता कि राहुल गांधी फिर से ताजपोशी के लिए तैयार भी हो जायें तो खार खाये बैठे कांग्रेस नेता हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे?

जब अभी ये हाल है तो आगे क्या समझें

कांग्रेस कार्यकारिणी में सोनिया गांधी ने एक और भी महत्वपूर्ण बात कही थी. बात क्या सीधे सीधे फरमान समझा जाना चाहिये, वो ये कि जिस किसी को भी बातचीत करना हो वो मीडिया के जरिये तो कतई उनसे बात करने की कोशिश न करे.

बाकियों का तो अभी नहीं मालूम लेकिन नवजोत सिंह सिद्धू कहां मानने वाले. मानें भी तक कब तक. नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर खबर आयी कि वो राहुल गांधी से मिलने के बाद अपना इस्तीफा वापस ले चुके हैं और पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष का कामकाज फिर से संभाल लेंगे. वैसे तो सिद्धू ने मुलाकात में बोल ही दिया था कि जो उनके अपने वाले कैप्टन साहब कहेंगे, वो मानेंगे. असल में सिद्धू शुरू से राहुल गांधी को ही कैप्टन मानते रहे हैं. सिद्धू ने कभी भी अमरिंदर सिंह को कैप्टन नहीं माना. हो सकता ये भावना मन में तब आयी हो जब पाकिस्तानी आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा से गले मिलने के बारे में सोच रहे हों या फिर गले मिल लेने के बाद का आइडिया हो.

ashok gehlot, rahul gandhi, kapil sibalराहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव और चयन में फर्क ऐसे समझ लेना चाहिये कि एक तरफ अगर अशोक गहलोत जैसे नेता हैं तो दूसरी तरफ कपिल सिब्बल भी डटे हुए हैं!

नवजोत सिंह सिद्धू ने भी जी 23 नेताओं की तरह ही सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी है, लेकिन शायद वो अपनी चिट्ठी के लीक होने देने या लीक हो जाने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे, लिहाजा सीधे ट्विटर पर शेयर कर तीन पेज कि अपनी चिट्ठी को ओपन लेटर ही बना दिया. - जैसे फिर से ईंट से ईंट खड़काने का इरादा कर लिया हो. ये भी सिद्धू ने राहुल गांधी से मुलाकात के 24 घंटे के अंतराल पर ही कर लिया था. कांग्रेस के पंजाब प्रभारी हरीश रावत के हिसाब से समझें तो फिर से चौके की जगह सिद्धू ने छक्का जड़ दिया है.

मुमकिन है अब कोई अगर सिद्धू को ये याद दिलाने की कोशिश करे कि सोनिया गांधी ने तो कांग्रेस नेताओं को मीडिया के माध्यम से बात न करने की हिदायत दे रखी है, हो सकता है ऐसे में सिद्धू का जवाब हो - 'ओजी, वो तो... G-23 वालों के लिए फरमान जारी किया गया है... सब कोई जानता है, सब समझते हैं - मैं थोड़े ही उनमें शामिल हूं... मैं तो वो भी नहीं मानता जब कपिल सिब्बल बाकियों को जी-हुजूर कांग्रेसी बताते हैं.'

सिद्धू की एक दलील ये भी हो सकती है कि सोनिया गांधी को लेटर तो वो 15 अक्टूबर को ही लिख लिये थे, जैसा कि लेटरहेड पर शुरू में ही लिखा हुआ है. और जब 15 अक्टूबर को ही चिट्ठी लिख ली थी तो वो 16 अक्टूबर का आदेश के दायरे में कैसे आ सकती है भला?

कायदे से तो राहुल गांधी से मिलने के बाद ही सिद्धू के गिले शिकवे दूर हो गये थे, लेकिन जब खबर मिली है कि सोनिया गांधी ने बताया है कि कांग्रेस अध्यक्ष वो हैं, न कि राहुल गांधी तो सिद्धू का दिमाग घूम गया और अब सोनिया गांधी से मुलाकात के लिए वक्त मांग लिया है. हो सकता है सिद्धू ने तब तक के लिए राहुल गांधी को 'कैप्टन' मानने का आइडिया होल्ड भी कर लिया हो.

बहरहाल, सिद्धू ने सोनिया गांधी को जो चिट्ठी लिखी है उसमें 13 बिंदुओं में अपनी बातें रखी है, लेकिन कई प्वाइंट ऐसे हैं जिनसे सिद्धू के इरादे साफ हो जाते हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी में भी सिद्धू को कैप्टन अमरिंदर सिंह की छवि दिखायी देने लगी हो - और एक बार फिर अपना भविष्य असुरक्षित और अंधकारमय महसूस होने लगा हो.

सिद्धू ने चिट्ठी के जरिये जो मुद्दे उठाये हैं वे कोई गैरवाजिब भी नहीं हैं, लेकिन वे इतने हैं कि पांच साल के कार्यकाल में भले ही पूरे किये जा सकें. चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना कर भले ही कांग्रेस नेतृत्व पंजाब को पहला दलित सीएम देने का ढोल पीटता फिर रहा हो, लेकिन वो इसे नाकाफी मान रहे हैं. सिद्धू चाहते हैं कि सरकार दलितों और पिछड़ी जातियों के लिए काम करे. सिद्धू का कहना है कि कैबिनेट में कम से कम एक मजहबी सिख होना चाहिये था. दोआबा से दलित और पिछड़े वर्ग के दो प्रतिनिधि होने चाहिये थे. आरक्षित सीटों पर विकास के लिए 25 करोड़ रुपये का एक स्पेशल पैकेज दिया जाये. राज्य में हर दलित को पक्का घर और खेती की जमीन भी दी जाये.

सिद्धू की बातों से तो ऐसा लगता है जैसे वो दलितों को ये समझाने की कोशिश कर रहे हों को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने कोई एहसान नहीं किया है, हकीकत ये है कि असल में कांग्रेस नेतृत्व ने उनके लिए कुछ किया ही नहीं है - और सिर्फ वो हैं जो दलितों और पिछड़ों के भले के बारे में सोच रहे हैं.

लगे हाथ सिद्धू ने सोनिया गांधी को ये भी बता दिया है कि ये पंजाब में सत्ता में बने रहने का ये आखिरी मौका है - और साथ में आगाह भी करते हैं कि जो सलाह वो दे रहे हैं अगर उनको अमलीजामा नहीं पहनाया गया, फिर तो कांग्रेस की सत्ता में वापसी मुश्किल क्या नाममुकिन ही है.

ये तो ऐसा लगता है जैसे सिद्धू खुद को एडवांस में बेकसूर साबित करने का इंतजाम कर रहे हों - क्योंकि हालात से तो वो अच्छी तरह वाकिफ हैं ही. अगर चुनाव नतीजे कांग्रेस नेतृत्व के मन माफिक नहीं आया तो 'कैप्टन' को फॉलो करते हुए कुर्सी छोड़नी ही पड़ेगी. और वो ऐसा होने नहीं देना चाहते. मुख्यमंत्री की न सही प्रधान की कुर्सी तो रहेगी ना और अगर कहीं संयोग से फिर भी कभी अच्छे दिन आ ही गये और अर्चना को कोई पॉलिटिकल ऑफर मिला तो हुआ तो कपिल शर्मा शो में खोया हुआ सम्मान वापस मिलने के चांस तो बचे रहेंगे.

ये तो राहुल गांधी के एक सिद्धू का ये हाल है - वो तो नाना पटोले, रेवंत रेड्डी और कन्हैया कुमार के रूप में मोदी विरोधी ब्रिगेड में न जाने कितने सिद्धू भर रखे हैं!

कांग्रेस में निर्विरोध जैसे चुनाव का स्कोप है क्या?

2017 में जब राहुल गांधी की ताजपोशी के मुहुर्त को लेकर चर्चाएं चल रही थीं तो मुंबई कांग्रेस के नेता शहजाद पूनावाला ने ये कह कर बवाल खड़ा कर दिया था कि कांग्रेस में जो होने जा रहा है वो 'इलेक्शन' नहीं, 'सेलेक्शन' है.'

शहजाद पूनावाला की दलील थी कि कांग्रेस में जितने भी प्रदेश अध्यक्ष हैं वे राहुल गांधी की मां सोनिया गांधी के नियुक्त किये हुए हैं. चूंकि वे चुने नहीं गये हैं, इसलिए उनके वोट का कोई मतलब नहीं है. शहजाद पूनावाला का दावा रहा कि पूरे सिस्टम में चुनाव की जगह चयन हो रहा है - क्योंकि सिर्फ एक व्यक्ति का सेलेक्शन होना है.

जब शहजाद पूनावाला से ये पूछा गया कि क्या वो चुनाव लड़ना चाहते हैं तो बोले, 'न मैं चुनाव लड़ने के लिए ये कर रहा हूं और न ही मुझे अध्यक्ष बनना है - मैं बस ये कह रहा हूं कि परिवारवाद से लड़ने के लिए नियम बन जाना चाहिये कि एक परिवार में एक ही व्यक्ति को टिकट दिया जाना चाहिये.'

अब एक बार फिर कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनान की घोषणा हो चुकी है. 1 नवंबर, 2021 से संगठन में चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाएगी और 31 अक्टूबर तक कांग्रेस को नया अध्यक्ष मिल जाएगा.

अभी जो स्थिति बनी है, अगर राहुल गांधी तैयार हो जाते हैं कि वो फिर से कमान संभालने के लिए तैयार हैं तो क्या होगा? पहली बात तो ये कि राहुल गांधी के हामी भर देने भर से ही उनका अध्यक्ष बनना पक्का हो जाता है तो शहजाद पूनावाला की बात फिर से सही साबित हो जाएगी. निश्चित तौर पर उसे चुनाव की जगह चयन कहना ही बेहतर होगा.

लेकिन तब क्या होगा जब फिर से कोई जितेंद्र प्रसाद बन कर राहुल गांधी को भी चैलेंज कर दे?

एक बार फिर माहौल तो वैसा बन ही गया है जैसा सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने से पहले हो गया था. जैसे तब सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के पसंदीदा रहे नेताओं को नापसंद करती रहीं, अभी G-23 के नेता और वे भी जो ऐसे नेताओं के मुद्दे उठाने पर हां में हां मिलाते देखे जाते हैं, के प्रति वैसी ही भावना रखती हैं, ऐसा लगता है. कार्यकारिणी की ताजा मीटिंग के बाद तो ये चीज और भी साफ हो चुकी है.

गुलाम नबी आजाद को कई बार मांग कर चुके हैं कि कार्यकारिणी के सदस्यों का भी चुनाव हो. परंपरा तो ये रही है कि कांग्रेस अध्यक्ष अपनी पसंद के हिसाब से नेताओं को कार्यकारिणी में सदस्य बना देता है, लेकिन इस बार जरूरी नहीं कि पहले की ही तरह हो.

ऐसी हालत में कैसे मान लिया जाये कि राहुल गांधी के हामी भरते ही कुर्सी पर बैठना उनका पक्का हो ही जाएगा. अभी जो माहौल समझ में आ रहा है, ये कोई जरूरी नहीं कि राहुल गांधी के तय कर लेने भर से उनकी ताजपोशी पक्की हो जाएगी.

हो सकता है राहुल गांधी को इस बार कड़ी टक्कर भी मिले. ऐसा भी नहीं कि सब अशोक गहलोत और भूपेश बघेल की तरह तात्कालिक महत्वाकांक्षाओं के लिए राहुल गांधी से अध्यक्ष बन जाने की गुजारिश करते रहेंगे - हो सकता है कि राहुल गांधी को नापंसद करने वालों में से कोई चुनाव हो तो अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भी कर दे.

अभी तो जो माहौल बन चुका है, ये भी जरूरी नहीं कि खुलेआम बगावत करने वाले के पीछे पड़ कर कांग्रेस के ही नेता उसे खामोश कर दें. सोनिया गांधी की बुलायी मीटिंग में कपिल सिब्बल के आत्ममंथन की सलाह पर जो हंगामा हुआ था उसके बाद तो बिलकुल नहीं लगता. अगले ही दिन कई सीनियर कांग्रेस नेता आगे बढ़ कर विरोध जताने लगे थे - और ठीक वैसी ही हालत कैप्टन अमरिंदर सिंह और कपिल सिब्बल के साथ हुए दुर्व्यवहार के बाद देखने को मिला है.

कैप्टन अमरिंदर सिंह ने साफ साफ बोल दिया है कि वो कांग्रेस में नहीं रहने वाले और विधानसभा चुनाव में कूद बगैर हार भी नहीं मानने वाले. माना जा रहा है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह को कुछ खुले तौर पर तो कुछ परदे के पीछे से कांग्रेस के कई सीनियर नेताओं का समर्थन मिल सकता है.

जब पी. चिदंबरम जैसे गांधी परिवार के करीबी नेता कपिल सिब्बल के घर पर कांग्रेसियों के हंगामे और उनकी गाड़ी तोड़ देने के खिलाफ बयान दे रहे हैं तो बाकी बातें भी आसानी से समझ में आ जानी चाहिये - राहुल गांधी की ताजपोशी के लिए गांधी परिवार को आंतरिक ही सही चुनाव लड़ना भी पड़ सकता है!

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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