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Updated: 25 अप्रिल, 2019 05:58 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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ये तो अच्छा हुआ, वाराणसी से कांग्रेस उम्मीदवार को लेकर सस्पेंस खत्म हो गया. अटकलें कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के वाराणसी से चुनाव लड़ने की महीने भर छायी रहीं, लेकिन अचानक मालूम हुआ कि अधिकृत उम्मीदवार अजय राय होंगे. वही अजय राय जो पांच साल पहले भी नरेंद्र मोदी को चैलेंज किये थे, लेकिन अरविंद केजरीवाल के बाद तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ा था. संताष ही नहीं, बल्कि उन्‍हें सिर्फ करीब 76 हजार ही वोट मिले थे, और उनकी जमानत भी जब्‍त हो गई थी.

कांग्रेस की ओर से जिस तरह का माहौल बनाया गया था, प्रियंका वाड्रा के वाराणसी से चुनाव न लड़ने की मामूली संभावना ही बची लग रही थी. खुद प्रियंका वाड्रा ने भी बार बार बयान देकर इसे हवा दी - और राहुल गांधी ने ये कह कर छौंका लगा दिया कि सस्पेंस बना रहे तो अच्छा है. रही सही कसर ये कह कर पूरी कर दी कि न तो वो खंडन कर रहे हैं, न पुष्टि.

प्रियंका वाड्रा को लेकर लोगों का मूड क्या और कैसा है - अगर कांग्रेस नेतृत्व का मकसद सिर्फ इतना ही जानना रहा तब तो कोई बात नहीं. अगर कांग्रेस नेतृत्व ने प्रियंका वाड्रा के चुनाव लड़ने को लेकर कदम पीछे खींच लिये हैं तो और बात है - और अगर ऐसा है तो सवाल उठेगा कि ऐसा क्यों हुआ?

तो राहुल ने वीटो कर दिया!

विरोधियों को अब ये आरोप वापस ले लेना चाहिये कि कांग्रेस अध्यक्ष होने के बावजूद राहुल गांधी की पार्टी में बहुत ज्यादा चलती नहीं है. अगर ऐसा होता तो वाराणसी से चुनाव लड़ने को लेकर प्रियंका गांधी वाड्रा को कदम पीछे नहीं खींचने पड़ते. सिर्फ सूत्र ही नहीं, एक कांग्रेस प्रवक्ता और रॉबर्ट वाड्रा तक मजबूत संकेत दे चुके थे कि प्रियंका वाड्रा का चुनाव लड़ना तय ही है. वैसे रॉबर्ट वाड्रा लगे हाथ अपने लिए भी संकेत देने की कोशिश कर रहे थे. प्रियंका वाड्रा का डेब्यू टाल दिये जाने के बाद रॉबर्ट वाड्रा की चुनावी पारी के बारे में भी फिलहाल तो समझना मुश्किल नहीं लग रहा है.

प्रधानमंत्री मोदी के गैर-राजनीतिक इंटरव्यू शो से मालूम हुआ कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कुर्ते और मिठाई भेजा करती हैं. ममता बनर्जी ने मोदी के कुर्ते और मिठाई भेजने की बात पर कहा है, वो सब तो ठीक है - लेकिन वोट नहीं दूंगी. राहुल गांधी ने वाराणसी से कांग्रेस का कैंडिडेट घोषित कर मोदी को वैसा ही मैसेज दिया है - आपकी जीत तो सुनिश्चित है, लेकिन प्रतीकात्मक लड़ाई भी चालू रहेगी.

राहुल गांधी का मानना है कि लोकतंत्र की सेहत को दुरूस्त रखने के लिए बड़े नेताओं के संसद पहुंचने में आड़े नहीं आना चाहिये. हालांकि, राहुल गांधी की इस थ्योरी में भी डबल स्टैंडर्ड नजर आता है. सपा-बसपा गठबंधन द्वारा अमेठी और रायबरेली से उम्मीदवार न खड़ा करने की सूरत में कांग्रेस ने भी सात सीटें बख्श देने की बात कही थी. ये वो सात सीटें रहीं जिन पर मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, डिंपल यादव और अजीत सिंह जैसे गठबंधन के बड़े नेता चुनाव लड़ रहे हैं. वाराणसी से के मामले में राहुल गांधी का रवैया अलग देखने को मिला है. मोदी के साथ राहुल गांधी ने गठबंधन के नेताओं से अलग व्यवहार किया है - 2014 के ही कांग्रेस उम्मीदवार अजय राय को फिर से मैदान में झोंक दिया है.

प्रियंका वाड्रा के मुख्यधारा की राजनीति में उतरने के कई कारण हैं. राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी को ही मजबूत करने के साथ साथ पति रॉबर्ट वाड्रा के सपोर्ट में भी संघर्ष करना है. फिर भी प्रियंका की तमाम मसलों पर अपनी भी एक राय होती है. वाराणसी से चुनाव लड़ने को लेकर भी प्रियंका की अपनी राय रही. लगभग नहीं, लगता है प्रियंका गांधी वाड्रा के वाराणसी से चुनाव लड़ने पर राहुल गांधी ने ही पूरी तरह वीटो लगा दिया.

प्रियंका को मोदी के खिलाफ नहीं उतारने की वजह क्या हो सकती है?

वाराणसी से प्रियंका वाड्रा के चुनाव लड़ने के पीछे मुद्दा हार या जीत तो नहीं ही रहा होगा. एक लोकप्रिय नेता के चुनाव क्षेत्र में जाकर चुनौती देना और इलाके के लोगों से ये उम्मीद करना कि वे अपने सांसद प्रधानमंत्री को वोट न देकर किसी और को देने के बारे में सोचेगा भी, बचकाना लगता है. 2014 में रामलीला आंदोलन से उभरे अरविंद केजरीवाल की लोकप्रियता चरम पर थी - और यही सोच कर उन्होंने मोदी को चुनौती भी दी थी, लेकिन हासिल क्या हुआ? कांग्रेस के रणनीतिकारों के दिमाग में 2014 की स्थिति भी रही होगी और पांच साल में आये फर्क से भी वे जरूर वाकिफ होंगे. फर्क तो प्रियंका वाड्रा और अरविंद केजरीवाल में भी है.

narendra modiकांग्रेस ने तो प्रधानमंत्री को खुला मैदान ही दे दिया...

वाराणसी को लेकर प्रियंका का नजरिया भी मीडिया के जरिये ही सामने आया था. प्रियंका वाड्रा चाहती थीं कि प्रधानमंत्री मोदी को वाराणसी में घेरा जाना चाहिये. हालांकि, वो चाहती थीं कि सपा-बसपा गठबंधन का सपोर्ट भी उन्हें हासिल हो. समाजवादी पार्टी ने तो पहले ही कांग्रेस से झटक कर शालिनी यादव को प्रत्याशी घोषित कर रखा है. चूंकि अखिलेश यादव अपना उम्मीदवार वापस लेने को राजी नहीं दिखे, उसका भी प्रियंका वाड्रा के फैसले में रोल रहा होगा.

कांग्रेस में प्रियंका वाड्रा की अपनी ब्रांड वैल्यू है - और कोई भी अपने ब्रांड को यूं ही नहीं गवां देता.

प्रियंका की मौजूदगी कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह भर देती है. कांग्रेस कार्यकर्ता प्रियंका वाड्रा में उनकी दादी इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं - और उन्हें प्रियंका से उम्मीदें भी वैसी ही रहती होंगी.

ये जितने बड़े फायदे की बात है, उतने ही नुकसान की बात भी. एक डर तो ये भी रहता ही होगा कि कहीं प्रियंका की लोकप्रियता इतनी ज्यादा न बढ़ जाये कि राहुल गांधी का कद छोटा लगने लगे. प्रियंका वाड्रा को कांग्रेस महासचिव का पद देकर एक सूबे के आधे हिस्से का प्रभारी ही तो बनाया गया है. फिर भी सच तो ये है कि प्रियंका ने कांग्रेस को लड़ाई में तो ला ही दिया है. प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी की सेहत पर भले कुछ खास असर न हो, लेकिन मायावती और अखिलेश यादव को तो प्रियंका वाड्रा के मोर्चे पर होने का एहसास तो हो ही रहा होगा. चाहे छोटी पार्टियों से गठबंधन की बात हो, चाहे टिकट न मिलने से नाराज बीएसपी और सपा नेताओं को झटकने का मामला हो, चाहे मीडिया के जरिये कांग्रेस को चर्चा में लाने की बात क्यों न हो - हर मामले में प्रियंका वाड्रा की मौजूदगी तो दर्ज हो ही रही है.

कांग्रेस को प्रियंका के चुनाव लड़ने का फायदा जरूर मिलता

ये बात खुद राहुल गांधी ने ही कही थी कि प्रियंका को यूपी, खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मजबूत करने की जिम्मेदारी दी गयी है. प्रियंका वाड्रा इसे अपने तरीके से कर भी रही हैं. प्रियंका के वाराणसी से चुनाव लड़ने को लेकर आये बयान के बाद हर तरफ से यही बात सामने आयी की प्रियंका खुद भी चाहती हैं कि वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी को घेरा जाये.

संदेश तो राहुल गांधी की ओर से यही देने की कोशिश की गयी है कि वो चाहते हैं कि बड़े नेताओं को संसद में पहुंचने से रोका न जाये. मगर, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के शीर्ष रणनीतिकार ब्रांड प्रियंका को यूं ही जिद में गवां देना नहीं चाहते होंगे. लेकिन कांग्रेस नेतृत्व या बड़े सलाहकार ये नहीं समझे कि प्रियंका वाड्रा के चुनाव लड़ने से कांग्रेस को कितना फायदा हो सकता है?

प्रियंका वाड्रा के वाराणसी से चुनाव मैदान में उतरने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं का जोश सीधे सातवें आसमान पर पहुंच जाता. कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साह बढ़ने पर दूसरों को भी कांग्रेस से जोड़ने या पार्टी के पक्ष में करने की कोशिश में जुट जाते. ये सही है कि प्रियंका वाड्रा पूर्वांचल में कांग्रेस के चुनाव कैंपेन का नेतृत्व कर रही हैं, लेकिन चुनाव लड़ने के बाद निश्चित तौर पर ये मैसेज जाता कि वो सिर्फ पति और भाई को ही सपोर्ट करने के लिए मैदान में नहीं उतरी हैं.

तीन चरणों के चुनाव के लिए वोटिंग खत्म हो चुकी है. अब सभी दलों का ध्यान बचे हुए चार चरणों पर है - और वाराणसी में सातवें चरण में 19 मई को वोट डाले जाने हैं. प्रियंका के चुनाव लड़ने की स्थिति में उसका सीधा असर पूर्वांचल की तीन दर्जन से ज्यादा सीटों पर होता.

जहां तक यूपी या पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मजबूत करने की बात है तो वो 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए ही है - क्या प्रियंका वाड्रा के चुनाव मैदान में उतर जाने से कांग्रेस भविष्य में कमजोर हो जाती. अब तो बीजेपी घूम घूम कर कहेगी कि अमेठी से तो राहुल गांधी भागे ही वाराणसी में तो हिम्मत भी नहीं दिखायी.

सही बात तो ये है कि कांग्रेस नेतृत्व ने अनिर्णय की आदत के चलते एक बेहतरीन मौका गंवा दिया है. राहुल गांधी भले ही घूम घूम कर कहते फिरें कि वो प्रधानमंत्री मोदी से नहीं डरते - या फिर प्रधानमंत्री मोदी के उनसे बहस में न टिक पाने का दावा करते फिरें, राहुल गांधी ने प्रियंका के चुनाव लड़ने के मामले में अपने बोलने से भूंकप लाने जैसा व्यवहार किया है. ऐसा लगता है राहुल गांधी एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी से गले मिल कर आंख मार दी है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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