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Updated: 13 दिसम्बर, 2020 01:36 PM
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पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी (Pranab Mukherjee) के पांच साल के कार्यकाल का पहला दो साल कांग्रेस की मनमोहन सरकार के साथ रहा - और आखिर के तीन साल बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार (Modi Sarkar) के साथ बीते थे. कांग्रेस की पृष्ठभूमि से आने वाले प्रणब मुखर्जी के लिए निश्चित तौर पर ये अनुभव बेमिसाल रहे होंगे. जाहिर है, प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन से अपने पुराने साथियों और फिर बीते दिनों के राजनीतिक विरोधियों के शासन के तौर तरीके भी करीब से देखे होंगे.

प्रणब मुखर्जी के ऐसे ही संस्मरणों को समेटे हुए नयी किताब 'द प्रेसिडेंशियल ईयर्स' जल्द ही मार्केट में आने वाली है, लेकिन उससे पहले ही प्रकाशक की तरफ से जो अंश जारी किये गये हैं, उस पर बहस शुरू हो गयी है. प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब में कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही दलों की सरकारों पर अपना नजरिया पेश किया है.

प्रणब मुखर्जी ने 2014 में कांग्रेस की हार का क्रेडिट बीजेपी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' अभियान को तो नहीं दिया है, लेकिन शिकस्त के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जिम्मेदार जरूर बताया है.

2014 में केंद्र की सत्ता में आयी मोदी सरकार को लेकर भी पूर्व राष्ट्रपति ने महत्वपूर्ण टिप्पणी की है - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को एक निरंकुश शासन के तौर पर देखा है.

किसी एक व्यक्ति की दो परस्पर विरोधियों की खासियतों के बारे में उसकी राय आधी भी मेल खाती हो तो उसे तटस्थ टिप्पणी के तौर पर देखा जा सकता है. प्रणब मुखर्जी संस्मरण को देखकर ये कहना मुश्किल होगा कि 'ये तो बहुत नाइंसाफी है.'

मोदी ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान निरंकुश तरीके से शासन किया, जिससे सरकार, विधायिका और न्यायपालिका के बीच संबंधों में कटुता आई. केवल समय ही बता सकेगा कि इन मामलों पर इस सरकार के दूसरे कार्यकाल में क्या कोई बेहतर तालमेल हुआ है.

केंद्र में बीजेपी की सरकार के बारे में प्रणब मुखर्जी लिखते हैं, 'प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान निरंकुश तरीके से शासन किया, जिससे सरकार, विधायिका और न्यायपालिका के बीच संबंधों में कटुता आई - सिर्फ वक्त ही बता सकेगा कि ऐसे मामलों में मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में क्या कोई बेहतर तालमेल हुआ है?'

पूर्व राष्ट्रपति का पूरा ऑब्जर्वेशन तो किताब आने के बाद ही सामने आएगा - और तभी मालूम हो सकेगा कि मोदी सरकार के आकलन में निरंकुश शासन की झलक उनको कहां पर और कब मिली?

कोई दो राय इसमें तो किसी को नहीं होनी चाहिये कि बीजेपी चुनावी राजनीति को जंग के तौर पर ही लेती है और हर वक्त चुनावी मोड में रहती है. हाल फिलहाल, पंचायत चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को छोड़ कर अमित शाह के साथ साथ बीजेपी के दिग्गज नेता हैदराबाद की सड़कों पर ऐसे नजर आये जैसे वे देश के सबसे बड़े आम चुनाव में हिस्सा ले रहे हों. हैदराबाद की ही तरह राजस्थान के नतीजे भी बीजेपी को उत्साहित करने वाले रहे - और अब तो बीजेपी नेतृत्व ने 'पंचायत से पार्लियामेंट तक' अभियान के तहत नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं को टास्क दे रखा है.

लेकिन सबसे ज्यादा सुर्खियां बन रही हैं 2021 में होने जा रहे पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से जिसमें बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर हुए हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) सरकार जानी दुश्मन की तरह आमने सामने आ गये हैं - अब सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी के शासन में जो 'निरंकुश' स्वरूप पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने महसूस किया था क्या पश्चिम बंगाल में उसी की परछाई नजर आ रही है?

ड्यूटी पर तैनात अफसर राजनीतिक लड़ाई का शिकार क्यों बनें?

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पश्चिम बंगाल से भारतीय पुलिस सेवा के तीन अफसरों को दिल्ली बुला लिया है. केंद्र सरकार के ताजा फरमान के मुताबिक ये अफसर डेप्युटेशन पर गृह मंत्रालय से अटैच रहेंगे. मतलब, अब वे वाया सीनियर नौकरशाही अमित शाह को रिपोर्ट करेंगे, न कि ममता बनर्जी को जैसा कि अब तक करते आये थे.

ये तीनों वे अफसर हैं जो कोलकाता में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के दौरे के वक्त सुरक्षा ड्यूटी पर तैनात किये गये थे. अव्वल तो IAS और IPS अफसरों को डेप्युटेशन पर कहीं भेजने से पहले उस राज्य सरकार की सहमति जरूरी होती है, जिस कैडर में उनकी नियुक्ति हुई रहती है, लेकिन अभी जो कुछ हो रहा है उसकी एकमात्र वजह राजनीतिक है.

जेपी नड्डा को Z कैटेगरी की सुरक्षा मिली हुई है जिसमें केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के अफसर और जवान होते हैं, लेकिन प्रोटोकॉल के तहत राज्य सरकार भी पुलिस सुरक्षा मुहैया कराती है.

mamata banerjee, amit shahममता बनर्जी और अमित शाह की ताजा तकरार कहां तक जाने वाली है

आईपीएस अफसरों से पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पश्चिम बंगाल के डीजीपी और मुख्य सचिव को भी दिल्ली तलब किया था, लेकिन राज्य की तृणमूल सरकार ने मना कर दिया था. हां, इस दौरान तृणमूल नेताओं और दोनों अफसरों की तरफ से गृह मंत्रालय में सचिव अजय भल्ला को पत्र लिख कर सवाल उठाने के साथ साथ सफाई भी पेश की गयी है.

ऐसे अफसरों के खिलाफ एक्शन अमूमन राज्य सरकार लेती है जिसमें निलंबन या तैनानी होल्ड करने जैसी कार्रवाई होती है, लेकिन सेवा से बर्खास्त करने के लिए सिफारिश केंद्र सरकार को भेजनी होती है - और कार्रवाई तभी पूरी होती है जब राज्य सरकार की सिफारिश केंद्र मंजूर कर ले. पश्चिम बंगाल के मामले में सब अलग तरीके से हो रहा है.

पहले भी ममता बनर्जी और केंद्र के बीच अफसरों को लेकर गंभीर तनातनी देखने को मिली है. कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के बचाव में तो ममता बनर्जी रात भर धरने पर बैठी रहीं - और देश भर के विपक्षी नेताओं का उनको सपोर्ट भी मिला. ये आम चुनाव से पहले की बात है.

मामला चाहे डीजीपी और मुख्य सचिव को तलब करने का हो या तीन आईपीएस अफसरों को दिल्ली बुलाने का, गृह मंत्रालय ने ये कार्रवाई पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ की तरफ से भेजी गयी रिपोर्ट के आधार पर किया है. बेहतर तो ये होता कि केंद्रीय गृह मंत्रालय अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए राज्य सरकार को निर्देश देता कि वो अफसरों के खिलाफ विभागीय जांच के बाद कार्रवाई करने को कहता - क्योंकि वे तीनों ही अफसर पश्चिम बंगाल सरकार के निर्देशों के अनुसार काम कर रहे थे क्योंकि उनकी वहीं रिपोर्टिंग थी. अगर नियमों के तहत उनकी रिपोर्टिंग गृह सचिव के पास होती है तो बेशक वे करें, लेकिन सिर्फ इसलिए ऐसा नहीं होना चाहिये क्योंकि चुनाव जीतने के लिए ममता बनर्जी और केंद्र सरकार एक दूसरे के खिलाफ अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर रहे हों - किसी भी सूरत में अफसरों को ड्यूटी के बदले राजनीतिक लड़ाई की चक्की में नहीं पीसा जाना चाहिये.

राज भवन से बीजेपी दफ्तर जैसी बयानबाजी क्यों?

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दोनों ही एक दूसरे से रूटीन में टकराते रहते हैं - और बीच बीच में लंबी लंबी चिट्ठियां भी लिखते रहते हैं. एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी तो रोजमर्रा की राजनीति का हिस्सा बन चुकी है.

कहने की जरूरत नहीं कि जेपी नड्डा के दौरे के वक्त भले ही उनको कोई भी सुरक्षा क्यों न मिली हो, लेकिन आखिरी जिम्मेदारी नियमों के तहत ही नहीं नैतिकता के नाते भी ममता बनर्जी की सरकार की बनती है. ममता बनर्जी ने जेपी नड्डा के काफिले पर हुए हमले को बीजेपी के बुलाये बाहरी गुंडों की नौटंकी करार दिया है.

ममता बनर्जी को ऐसे राजनीतिक बयान देने का पूरा हक है - और 'नड्डा, फड्डा, चड्डा...' जैसे सियासी राइम्स से भी उनको कोई नहीं रोक रहा, लेकिन किसी घटना पर सवाल उठाने का भी कोई आधार होना चाहिये.

गाड़ियों का शीशा टूटा है और बीजेपी नेता कैलाश विजयवर्गीय हमले का ईंट भी दिखा रहे हैं - और ईंट का जवाब कमल के फूल से देने की मुहिम भी चलाने लगे हैं. ममता बनर्जी को ऐसी बातों पर शक है तो जांच करा लें मुख्यमंत्री हैं सूबे का पूरा सिस्टम उनके अंडर में है, लेकिन मजाक उड़ा कर या सवाल उठाकर कुछ नहीं होने वाला है.

ठीक वैसे ही राज भवन किसी पार्टी का दफ्तर नहीं होता और न ही राज्यपाल किसी पार्टी का प्रवक्ता. जगदीप धनखड़ महामहिम कैटेगरी में आते हैं, इसलिए उनको भी हर वक्त याद रहना चाहिये कि भले ही बीजेपी नेतृत्व ने उनको राज्यपाल बनाया है, लेकिन न तो वो बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा की तरह पेश आ सकते हैं और न ही प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष की तरह.

राज्यपाल होने के नाते जगदीप धनखड़ पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ जो चाहें रिपोर्ट लिख कर केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेज सकते हैं. ममता बनर्जी की सरकार को तत्काल प्रभाव से बर्खास्त करने की सिफारिश भी कर सकते हैं. अगर ममता बनर्जी को ये गह कर धमकाते हैं कि वो आग से खेल रही हैं, तो ये भी चलेगा - लेकिन वो ममता बनर्जी को माफी मांगने के लिए बाध्य नहीं कर सकते.

ममता बनर्जी से माफी मंगवाने की जगदीप धनखड़ की डिमांड करीब करीब वैसी ही है जैसा एक वाकया महाराष्ट्र में देखने को मिला था. महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिख कर पूछा था कि वो सेक्युलर क्यों हो गये और हिंदुत्व क्यों छोड़ दिये?

क्या पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने ऐसी ही चीजों को लेकर मोदी सरकार में निरंकुश शासन को लेकर कोई धारणा बनायी होगी - और क्या पश्चिम बंगाल में जो कुछ हो रहा है वो भी केंद्र के ही 'निरंकुश' शासन की वजह से हो रहा है?

जो भी हो. पश्चिम बंगाल के लोगों के सामने बहुत बड़ी जिम्मेदारी निभाने का मौका आने वाला है. अच्छा होगा वे लोग अभी से हर वाकये, हर एक्शन और हर हिंसा की घटना पर कड़ी नजर रखें और वोटिंग के दिन खूब सोच समझ कर पूरी जिम्मेदारी के साथ वो फैसला लें जो उनके और पश्चिम बंगाल के हित में हो.

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