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Updated: 23 जुलाई, 2016 05:40 PM
कुमार कुणाल
कुमार कुणाल
 
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एक थी सोनी, हो सकता है आपने नाम सुना हो. न भी सुना हो. वैसे तो खूब जुलूस निकल चुका है उसके नाम का. अब तो इन दिनों उसके नाम से सियासत का बाज़ार गर्म है. सोनी तो जीने और समाज के लिए कुछ करने की बात मन में संजोए खुद ज़िंदगी की जंग हार बैठी. एक हस्ती बन गयी वो. सुना था, सियासत में आना चाहती थी, लेकिन आ नहीं पाई. अब उसे कहां पता था कि इस देश में सियासत करने वाले इतने हैं और ऐसे-ऐसे हैं कि वो उस सिस्टम में फिट ही नहीं बैठती.

सिस्टम ही ऐसा है, जहां उसकी सुनवाई तो नहीं हुई. लेकिन उसके जाने के बाद सब के सब उसके हिमायती बने हुए हैं. जिस पुलिस, सरकार, महिला आयोग के दफ्तर उस फरियादी की शिकायत तक सुनने का नाटक भर करते रहे, वो सब के सब अब अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं. किसी ने ईमानदार कोशिश की होती तो सोनी को ज़हर खाने के लिए मजबूर न होना पड़ता.

क्या बीजेपी, क्या कांग्रेस और क्या उसकी अपनी आम आदमी पार्टी. सब गिद्धों की तरह सोनी की चिता पर सियासी रोटी सेंकने को बेक़रार हैं. कोई सरकार को कोस रहा है, कोई पुलिस के निकम्मेपन की दुहाई दे रहा है. जो बचे हैं वो अपनी राजनीतिक सहूलियत के हिसाब से सोनी का नाम ले ले कर गला फाड़ रहे हैं. तख्ती पर सोनी, नारों में सोनी, कंदीलों में सोनी...हर जगह सोनी ही सोनी.

कौन थी सोनी?

सोनी 28 साल की थी. अपने पैरों पर खड़ी एक युवा. ब्यूटी पार्लर चलाती थी. 8 साल की बच्ची की मां थी, अपने पति अशोक की हिम्मत और ज़िंदगी थी वो. हां सियासत में आना चाहती थी, ये तो नहीं बता सकता क्यों मगर जरूर कुछ कर गुजरने की तमन्ना रही होगी. इससे ज़्यादा उसका चरित्र चित्रण नहीं कर सकता मैं. क्योंकि ये सारी बातें भी मैंने जो उसके बारे में बताई हैं वो सब उसकी मौत के बाद ही जान पाया.

शायद, सोनी से जीते जी मिला होता तो उसके बारे में और बेहतर लिख पाता. तब उसकी मौत की वज़ह भी बेहतर तरीके से मालूम होती. खैर, सोनी मुझसे तो नहीं मिली लेकिन कई नेताओं से जरूर मिली थी.

कुछ उस आम आदमी पार्टी के नेताओं से जिससे सोनी सम्बंधित थी, तो कुछ उसके विरोधी पक्ष के नेताओं से भी मुलाकात हुई. वो उनसे कोई पद मांगने नहीं गई थी. बल्कि उन दरिंदों के खिलाफ शिकायत ले कर पहुंची थी जो उसे राजनीति के पायदान पर खड़ा करने के एवज़ में उससे संबंध बनाना चाहते थे. यानी राजनीति को पाक साफ़ रखने का दावा करने वालों से ही वो भीख मांगने पहुंची थी. इस बात की भीख कि उसे सुरक्षा दी जाए और उन लोगों को सजा, जो उसके साथ कुकर्म करना चाहते हैं.

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 आप के बड़े नेताओं के साथ सोनी...

पुलिस ने मामला दर्ज़ किया आरोपी रमेश को जेल भी हुई. लेकिन कानून की गिरफ्त से फटाफट निकल भी गया आरोपी. अब इस बात पर चर्चा करना बेकार है कि रमेश किसके करीब था और किसके नहीं, लेकिन एक बात शीशे की तरह दिखती है और वो ये कि सोनी की मौत पर तमाम पक्षों की कई दिनों तक चली सियासत के बावजूद वो सलाखों के पीछे नहीं पहुंच पाया है.

महिलाएं क्या सिर्फ सियासी मोहरा हैं?

ये सवाल इसलिए क्योंकि कोई भी पार्टी बिना महिलाओं के समर्थन के सरकार नहीं बना सकती. हर चुनाव में महिला सुरक्षा बड़े मुद्दों में शुमार होता है. लेकिन सोनी की आत्महत्या जैसे मामले पार्टियों के दोहरे चरित्र की कलई खोल कर रख देते हैं. ये मामला विशेष तौर पर इसलिए क्योंकि सोनी सियासतदानों के करीब थी. वो उन महिलाओं से अलग थी जो घर की चारदीवारी से भी बाहर निकल कर अपनी सुरक्षा की गुहार नहीं कर सकतीं.

लेकिन सोनी ने तो सबको आवाज़ दी. अपनी पार्टी, सरकार, पुलिस, महिला आयोग और भी किसी को अपना दर्द बताया हो तो पता नहीं.

फिर भी ना ही उसकी सुनवाई हुई, ना ही सुरक्षा मिली और ना ही उसकी जान बच पाई. वो इतनी जागरुक तो थी कि मरने से पहले अपनी आपबीती रिकॉर्ड कर गयी. मगर इन सबके बीच भी ये उम्मीद नहीं कि जीते जी ना सही मरने के बाद ही उसे इन्साफ मिले. और सबसे बड़ी वजह ये कि सोनी के परिवार को छोड़ उसकी लड़ाई कोई लड़ ही नहीं रहा. पार्टियों में कोई इस मुद्दे को अपने फायदे के लिए ज़िंदा रखना चाहता है, तो कोई सोनी की तरह इसे भी बेमौत मार देना चाहता है. ताकि सोनी की मौत कोई नुक्सान न कर जाए. काश! सोनी तुम ज़िंदा होती, इन नकाबपोशों के नकाब उतारने के लिए.

लेखक

कुमार कुणाल कुमार कुणाल

लेखक आजतक में पत्रकार हैं.

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