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Updated: 17 सितम्बर, 2019 09:45 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
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द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम या DMK एक ऐसी पार्टी जिसका जन्म तमिलनाडु के शोषित और वंचितों के कल्याण और द्रविड़ समुदाय के प्रतिनिधित्व के लिए हुआ मगर जिसका मौजूदा स्वरुप भाई भतीजावाद और परिवार के एजेंडे में बंधकर रह गया है. सवाल होगा कि आखिर क्यों अचानक ही डीएमके से जुडी बातें की जा रही हैं तो वजह हैं ईवी रामास्वामी या पेरियार. 17 सितम्बर को जन्में पेरियार का शुमार तमिलनाडु के उन सुधारकों में हैं जिन्होंने अपनी राजनीति की शुरुआत ही जातिवाद को आधार बनाकर ब्राहमणों के खिलाफ की. अपने शुरूआती राजनितिक जीवन में पेरियार खुद कांग्रेस में थे मगर युवाओं के लिए कांग्रेस द्वारा संचालित प्रशिक्षण शिविर में एक ब्राह्मण प्रशिक्षक द्वारा गैर-ब्राह्मण छात्रों के प्रति भेदभाव ने उन्हें इतना आहात किया कि वो ब्राहमणों के विरोध में आ गए और उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी. मद्रास प्रेसीडेंसी में एंटी हिंदी मूवमेंट के पुरोधा पेरियार, समाज के नीचे के तबके के लोगों को एक बड़े मंच पर लाना चाहते थे इसलिए उन्होंने जस्टिस पार्टी की स्थापना की जो बाद में द्रविड़ कड़गम हुई. ऐसा बिलकुल नहीं है कि तमिलनाडु की राजनीति में टूटफूट अभी शुरू हुई है. ये तब भी था जब पेरियार थे. जस्टिस पार्टी या ये कहें कि द्रविड़ कड़गम 1944 में शुरू हुई और 1949 तक आते आते इसमें मतभेद दिखने शुरू हो गए. पेरियार के साथी सीएन अन्नादुराई ने अपनी अलग पार्टी द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम या डीएमके बना ली.

डीएमके, तमिलनाडु, पेरियार, शिवसेना, बसपा, DMK    कभी द्रविड़ों की बात करने वाली DMK बस एक परिवार और उस परिवार के अंतर्गत आने वाली राजनीति तक सीमित है

द्रविड़ कड़गम की ही तरह DMK का भी उद्देश्य था द्रविड़ों को आगे ले जाना

अगर DMK के शुरूआती दिनों को देखें तो मिलता है कि भले ही ये पेरियार की पार्टी से अलग हुई हो. मगर इसकी विचारधारा वही थी जो पेरियार की थी. इन्होंने भी अपने आरंभ में उन्हीं मुद्दों पर राजनीति की जिनपर पेरियार राजनीति करते आ रहे थे. द्रविड़ों और शोषितों वंचितों के लिए राजनीति करने वाले अन्नादुराई की 1969 में मौत हुई और यही से तमिलनाडु की सियासत में परिवर्तन देखने को मिला.

1969 से 2018 तक पार्टी की कमान एम करूणानिधि के हाथ में रही. एक प्रभावशाली व्यक्ति होने और पांच बार तमिलनाडु का मुख्यमंत्री रहने वाले करूणानिधि ने उस पार्टी को मार दिया जो उन्हें अन्नादुराई से हासिल हुई थी. यदि इसकी वजहों पर गौर करें तो मिलता है कि करूणानिधि को क्षेत्रीय राजनीति से ज्यादा दिलचस्पी केंद्र की राजनीति में थी.

यही वो कारण था जिसके चलते आगे जाकर उन्होंने यूपीए से हाथ मिलाया और सत्ता की मलाई खाई. इस पूरी प्रक्रिया पर यदि गौर किया जाए तो मिलता है कि डीएमके ने अपने मूल (द्रविड़ों के उत्थान) से किनाराकशी कर ली.

अब रह गया है परिवार और परिवार के इर्द गिर्द घूमते एजेंडे

पेरियार से अलग होने वाले अन्नादुराई के पास एक लक्ष्य था. वो द्रविड़ों को एक मजबूत आधार देना चाहते थे. जब सत्ता अन्नादुराई से होते हुए करूणानिधि के पास आई और उनकी मौत के बाद एमके स्टालिन के पास आ गई है तो पार्टी में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए. खुद करूणानिधि के समय में भी तमाम मुद्दों को लेकर पार्टी की आलोचना हुई.

पार्टी पर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भागीदारी और भ्रष्टाचार जैसे गंभीर आरोप लगे. परिवार आज भी सीबीआई, ईडी और आयकर जैसे विभागों से अपने को बचाने में अपनी सारी ऊर्जा लगा रहा है. इन तमाम बातों से साफ़ है कि आज पार्टी का मतलब करूणानिधि परिवार और परिवार के एजेंडे रह गए हैं.

अगर आज तमिलनाडु के द्रविड़ इनका साथ दे भी रहे हैं तो कारण बस ये है कि उन्हें आज भी अन्नादुराई और पेरियार जैसे उन समाज सुधारकों की बातों पर विश्वास है जिन्होंने इन लोगों के अन्दर जीवन जीने की आस जगाई थी.

DMK से मिलता जुलता है महाराष्ट्र में शिवसेना और उत्तर प्रदेश में बसपा का गठन

ये अपने आप में दिलचस्प है कि तमिलनाडु के लिए जो विचारधारा करूणानिधि की थी वैसा ही कुछ हमें महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में देखने को मिला. बात अगर महाराष्ट्र की हो तो वहां बाल ठाकरे ने शिव सेना की आधारशिला इसलिए रखी क्योंकि वो न सिर्फ मराठी मानस को शान से जिंदगी जीते हुए देखना चाहते थे. बल्कि उन्हें ये भी लगता था कि अगर महाराष्ट्र के लोगों के हितों के लिए बड़ा आन्दोलन न किया जाए तो तमिलनाडु और गुजरात के लोग उनकी नौकरियों पर कब्ज़ा जमा लेंगे और उन्हें भूखे मरने के लिए छोड़ देंगे.

1966 में स्थापित हुई शिवसेना ने मराठी अस्मिता की बात की मराठी हितों की बात की और फिर ये कैसे लोगों के बीच लोकप्रिय हुई उसका गवाह इतिहास आज भी है. बाल ठाकरे की मौत के बाद जो शिव सेना का स्वरुप रहा, वो उस शिव सेना से बहुत अलग था जिसकी नींव बाल ठाकरे ने रखी थी पार्टी की क्या स्थिति है वो हमारे सामने है. राज ठाकरे की चिंता अलग है वहीं उद्धव और आदित्य ठाकरे अलग तरह से अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं.

अब बात उत्तर प्रदेश की. आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश में दलितों की जो स्थिति थी वो किसी से छुपी नहीं है. 1984 में पार्टी की स्थापना हुई और उस वक़्त काशीराम द्वारा कहा यही गया था कि हर स्तर पर पार्टी दलितों के साथ खड़ी है और जब बात दलित अस्मिता की आएगी तो उसके लिए कड़ा रुख अख्तियार किया जाएगा. 2001 में मायावती ने पार्टी की कमान संभाली और उसके बाद दलित अस्मिता बस एक मुद्दा बन कर रह गई और सारी बात निजी फायदे पर आ गई आज बसपा सुप्रीमो भाई भतीजे के लिए संघर्ष कर रही हैं तो वहीँ भाई भतीजे इसके लिए कि कैसे जल्द से जल्द सारे सबूत मिटा दिए जाएं और पाकदामन हो जाया जाए.

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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