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Updated: 05 जनवरी, 2016 08:19 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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समाजवादी पार्टी सुप्रीमो को उनके राजनीतिक विरोधी 'मौलाना मुलायम' कह कर बुलाते रहे हैं. कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने उसी अंदाज में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'मियां मोदी' कह कर संबोधित किया है.

कांग्रेस के सवाल

मनीष तिवारी ने प्रधानमंत्री को सलाह दी है कि वो नोबेल पुरस्कार नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में सोचें और विदेश सचिव स्तर की वार्ता स्थगित कर दें. भारत और पाकिस्तान के बीच सचिव स्तर की वार्ता 14-15 जनवरी को प्रस्तावित है.

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मौलाना मुलायम वाले अंदाज में मोदी पर निशाना

इसके साथ ही कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने पठानकोट हमले पर कांग्रेस की ओर से पांच सवाल भी पूछे गए हैं.

कांग्रेस के सवाल

1. जब प्रधानमंत्री लाहौर गए तो एयरपोर्ट पर पाकिस्तान के एनएसए मौजूद नहीं थे. क्या ये कोई संकेत था?

2. बैंकॉक में दोनों मुल्कों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच क्या बातचीत हुई?

3. 26/11 हमले के दोषी लखवी को सजा देने की मांग की गई थी, उसका क्या हुआ?

4. सरकार किस भरोसे पर पाकिस्तान से बातचीत के लिए राजी है?

5. प्रधानमंत्री किस वादे पर लाहौर गए थे?

मुंबई हमले जैसा?

रणनीतिक मामलों के विशेषज्ञ मुंबई हमले और पठानकोट अटैक में कई बातें कॉमन देख रहे हैं, मसलन, दोनों ही मामलों में हमलावरों ने गाड़ी लूट कर ड्राइवरों को मारा और अपनी मंजिल तक पहुंचे, दोनों ही केस में हमलावरों की ट्रेनिंग पाकिस्तान में हुई थी और दोनों ही जगह हमलावर भारी मात्रा में हथियार लेकर पहुंचे थे.

इनके अलावा सबसे बड़ी समानता ये है कि दोनों ही मामलों में खुफिया जानकारी पहले से हासिल थी.

ये नाकामी नहीं तो क्या है?

खुफिया जानकारी के बावजूद हमले रोके नहीं जा सके तो इसे क्या समझा जाए? इसे नाकामी नहीं तो क्या कहेंगे?

मान लेते हैं कि खुफिया जानकारी बिलकुल सटीक नहीं होती. अमूमन बताया जाता है कि दो, तीन या चार जगहों पर हमले की संभावना है. इनमें टेंटेटिव वक्त और स्थान का भी जिक्र होता है और उन्हीं के आधार पर ही तैयारी करनी होती है. ऐसी खुफिया जानकारियां हर रोज आती रहती हैं, लेकिन जो एक्सपर्ट उन्हें डील करते हैं उन्हें उसका पोटेंशियल पता होता है.

गुरदासपुर के एसपी की गाड़ी लूटे जाने की खबर के बाद आतंकवादियों की गतिविधियों का शक जताया गया. शक जताया गया कि आतंकी एयरबेस को निशाना बना सकते हैं. बाद में पता चलता है कि एयरबेस पर हमला भी हो गया.

एसपी की गाड़ी लूटे जाने के 24 घंटे बाद तक ऐसे पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किए जा सके कि आतंकियों के मंसूबे नाकाम किये जा सकें. जब खुफिया जानकारियां और घटनाएं जुड़ रही हों और कोई संकेत दे रही हों तो उस पर एक्शन क्यों नहीं लिया जा सकता? ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब फिलहाल नहीं मिल रहे.

बिजनेस स्टैंडर्ड में अजय शुक्ला ने लिखते हैं, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल ने अगर इसे ठीक से संभाला होता तो शायद ये एक छोटे से इंटेलिजेंस ड्रिवेन काउंटर टेररिज्म ऑपरेशन से ज़्यादा कुछ नहीं था, लेकिन उनके अनाड़ीपन के कारण ये एक बड़ी नाकामी नजर आ रहा है.

इसको लेकर शुक्ला ने बड़ा ही ठोस तर्क पेश किया है. शुक्ला ने लिखा है, भारत को आतंकवादी हमले की जानकारी एक दिन पहले ही मिल गयी थी. आतंकवादियों ने जब पाकिस्तान फोन किया था तो भारतीय खुफिया एजेंसियों ने उनकी बातें सुन ली थीं. ये जानकारी सीधे अजीत डोवाल को दी गई ताकि सुरक्षा बढ़ाई जा सके. पठानकोट में 50 हजार से ज्यादा सैन्य टुकड़ियां हैं लेकिन जब डोवाल और आर्मी चीफ की मुलाकात हुई तो उन्होंने सिर्फ 50 टुकड़ियों की ही जरूरत बताई. फिर उन्होंने दिल्ली से 150 एनएसजी जवानों को भेजा. स्थानीय फौज को किनारे रखा गया. ये मालूम होने के बावजूद आतंकवादी हथियार के लिए आस पास ही शिकार की खोज में हैं पठानकोर एयरबेस को डिफेंस सिक्योरिटी कोर के भरोसे छोड़ दिया गया. एनएसजी के जवान भी फर्स्ट रेस्पोन्डर्स के तौर पर प्रशिक्षित नहीं होते.

उसके बाद जो हुआ वो सबको पता ही है. हद तो तब हो गई जब गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने ऑपरेशन सफलतापूर्वक खत्म करने के लिए सबको बधाई भी दे डाली - और बाद में बताया गया कि ऑपरेशन जारी है.

खबरें ये भी आई हैं कि आतंकियों को जिंदा पकड़ने के लिए ऊपर से आदेश था. सभी न सही तो कम से कम एक तो जिंदा हाथ लगे ही. बिलकुल सही. इस तरह शायद भारत को एक और कसाब मिलता जो अमन को लेकर उसके दिखावे की कोशिशों पर तमाचा होता.

लाहौर के बाद

कई बार इत्तेफाक और हकीकत में ज्यादा फासला नहीं होता. फरवरी, 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के बाद कारगिल हमला हुआ. दिसंबर, 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाहौर दौरा किया तो पठानकोट अटैक हुआ. अगर दोनों ही वक्त नवाज शरीफ का पाकिस्तान का प्रधानमंत्री होना इत्तेफाक है तो दोनों हमले हकीकत.

बिलकुल वैसा तो नहीं, लेकिन मोदी की लाहौर यात्रा के बाद भी पाकिस्तान का रवैया वही रहा जैसा वाजपेयी की यात्रा के साथ रहा. वाजपेयी की यात्रा और कारगिल में करीब तीन महीने का फासला था, लेकिन मोदी के दौरे के बाद तो हफ्ता भर भी नहीं बीता था. वैसे इस तरह के हमले की तैयारी हफ्ते भर में मुश्किल है. हो सकता है तैयारी पहले से चल रही हो और तारीख बदल दी गई हो.

ये हमला उन सारे दावों की पोल खोलता है जिसको लेकर ढोल पीटे गए. कहां म्यांमार में घुस कर उग्रवादी शिविरों को नेस्तनाबूद करने का दावा किया जाता है. कहां इतनी लापरवाही कि इतने सेंसिटिव और सामरिक हिसाब से अति महत्वपूर्ण एयरबेस में आतंकवादी दाखिल हो जाते हैं और किसीको भनक तक नहीं लगती.

पूरे साल ऊलजुलूल सवाल खड़ा करती रहने वाली शिवसेना के सवाल भी फिलहाल मौजूं लगने लगे हैं. सामना के संपादकीय में शिवसेना ने लिखा है, "यह मामला सिर्फ चिंता करने जैसा नहीं है बल्कि जिस मजबूत और बड़ी फौजी ताकत का ढोल हम बजाते रहते हैं, उस ढोल को फोड़ने वाला है. सिर्फ कुछ आतंकवादियों को भेज कर पाकिस्तान ने हमारे खिलाफ युद्ध का ऐलान किया है."

गुरदासपुर हमला तो उफा के बाद हुआ था और जब तक बातचीत रद्द नहीं हो गई पाकिस्तान की ओर से सीमावर्ती इलाकों में हथगोले बरसाए जाते रहे.

क्या अब भी बातचीत जारी रखनी चाहिए. वैसे बुराई क्या है. बातचीत जारी रहे या बंद. पाकिस्तान के रवैये में 15 साल बाद भी कोई तब्दीली नहीं आई है.

थोड़ा गौर करने पर पठानकोट हमला मुंबई से कहीं बढ़कर और कारगिल के काफी करीब लगता है.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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