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Updated: 10 जून, 2016 01:25 PM
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पहलाज निहलानी का वश चलता तो गाली देने वालों को जेल में ठूंस देते. लगता है गालियों से उन्हें इतनी परहेज है कि सेंसर बोर्ड के दफ्तर पहुंचते वक्त रास्ते में ही उन्होंने अपना एक्शन प्लान तैयार कर लिया था - और फौरन ही 36 शब्दों को बैन करने का फरमान जारी कर दिया था.

उड़ता पंजाब तो अपनी गर्दन पर चले 13 कट को लेकर सुर्खियों में है, गालियों के चलते मोहल्ला अस्सी को तो सेंसर बोर्ड ने पूरी तरह खारिज ही कर दिया है.

निजी पसंद-नापसंद

फरवरी, 2015 में बीबीसी के सवाल पर निहलानी ने कहा, “फि‍ल्मों में अनावश्यक अपशब्दों का प्रयोग होने लगा है. कई दफे डायलॉग न होने पर भी इनका प्रयोग किया जा रहा है. अपशब्दों का प्रयोग किसी भी प्रकार की रचनात्मकता को नहीं दिखाता.”

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वैसे तो सेंसर बोर्ड गालियों के बहाने फिल्मों पर पाबंदी समाज के नाम पर लगाने की बात कर रहा है - लेकिन गौर करने पर ये मामला निजी पंसद-नापसंद का ज्यादा लगता है. मोहल्ला अस्सी का केस इसका सबसे फिट उदाहरण नजर आ रहा है.

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'फलनवा... भो***...'

इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक 22 मार्च को मोहल्ला अस्सी को बोर्ड के पास दाखिल किया गया था. 11 अप्रैल को उसे कई आपत्तियों के साथ रिजेक्शन का लेटर थमा दिया गया.

रिजेक्शन लेटर में मुख्य तौर पर बोर्ड को तीन चीजों से आपत्ति थी.

1. पूरी फिल्म में गालियों की भरमार है.

2. फिल्म उस खास इलाके की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकती है.

3. फिल्म के कारण 'कानून और व्यवस्था' की समस्या हो सकती है.

बहरहाल, ये तो रहा ऑफिशियल कम्यूनिकेशन. इसके पीछे नजर डालें तो बात कुछ और ही समझ आती है. बोर्ड के चीफ, पहलाज निहलानी फिल्म मोहल्ला अस्सी के निर्माता-निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी से निजी तौर पर खफा बताये जाते हैं.

बात तभी की है जब पहलाज निहलानी ने फिल्मों में अपशब्दों पर पाबंदी लगाई थी. चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने फिल्मों में इतने सारे शब्दों को बैन करने की बात से असहमति जतायी थी. अपनी बात को विस्तार से समझाने के लिए द्विवेदी ने बोर्ड को एक पेपर भी सौंपा था. इस पेपर के जरिये ये समझाने की कोशिश की गई कि गालियां कैसे विभिन्न इलाकों, भाषाओं और बोलियों का बेहद अहम हिस्सा हैं - और इससे भारतीय संस्कृति को कोई खतरा नहीं हो सकता.

जहां तक फिल्म मोहल्ला अस्सी की बात है तो बगैर गालियों के तो उसकी आत्मा ही मर जाएगी.

काशी का अस्सी

काशी का अस्सी बेजोड़ कृति है. ये बनारस के अस्सी मोहल्ले की बॉयोग्राफी है. बनारस की मस्ती और अक्खड़पन को वही समझ सकता है जो उस धरती पर पैदा हुआ हो या फिर जीवन में कभी मौका मिलने पर खुद को उसी में रचा-बसा लिया.

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पैदाइश तो काशीनाथ सिंह की भी अस्सी की नहीं है, लेकिन उन्होंने खांटी बनारसी अंदाज को बरसों जिया है. 24 घंटे के पल पल की गतिविधियां उनके मानस पटल पर ज्यों की त्यों अंकित हैं और उन्हीं स्मृतियों की लॉग-शीट का क्रिएटिव फॉर्म है - काशी का अस्सी.

काशीनाथ सिंह ने काशी का अस्सी में किरदारों को अपने कल्पना संसार से सृजित नहीं किया - बल्कि उन्हें भी उसी जगह से लिया जो उस खास कालखंड के जीते जागते नैसर्गिक नुमाइंदे हैं. ऐसा नहीं कि विवाद नहीं हुए, लेकिन काशीनाथ सिंह का कंटेंट इतना दमदार रहा कि सब के सब धराशायी हो गये.

काशी का अस्सी में सब कुछ कुदरती है. सब हकीकत है. डायलॉग रचने नहीं पड़े बल्कि नोट किये हुए हैं. चित्रण वही है जिसे कभी भी कोई अस्सी जाकर देख सकता है.

काश, रिजेक्शन थमाने से पहले पहलाज निहलानी एक बार काशी का अस्सी पढ़ लिए होते (अगर पढ़ चुके हों तो दोहरा लेते ताकि ठीक से समझ आ जाए) - इससे न सिर्फ मोहल्ला अस्सी के साथ नाइंसाफी नहीं होती, बल्कि बाकी बेकसूर भी ऐसी कार्रवाइयों की भेंट चढ़ने से बच जाते.

मोहल्ला अस्सी

लगता है अस्सी मोहल्ले को पहलाज निहलानी ने उतना ही देखा है जितना उन्हें तस्वीरों में दिखा है. उन्हीं तस्वीरों में जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अस्सी घाट पर झाडू लगाते नजर आते हैं. पहलाज निहलानी शायद उससे इतर देख भी नहीं पाएंगे. देखें भी तो कैसे आस्था उन्हें आगे बढ़ कर देखने से रोक जो लेती होगी.

पहलाज निहलानी को मालूम होना चाहिये कि अस्सी का मोहल्ला न तो उन्हें उन तस्वीरों में नजर आ सकता है और न ही मोहल्ला अस्सी फिल्म को देख कर. लीक हुई जो फिल्म देखने को मिली है वो भी टेलीस्कोप से देखे बनारस को पेश करती नजर आती है. संतोष की बात यही है कि लीक हुई फिल्म फर्जी बतायी जा रही है. वरना, यकीन करना मुश्किल हो रहा था कि फिल्म उन्ही चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने बनाई है जिन्होंने पिंजर जैसी फिल्म और चाणक्य जैसे सीरियल बनाए थे - और घायल, घातक या दामिनी वाले सन्नी देओल तो कहीं से नजर नहीं आते.

फिल्म में जो गाली जिस टोन में सुनने को मिल रही है वो बिलकुल बेजान है. अरे, गाली तो उस मोहल्ले का गहना है. मोहल्ले की जिंदगी है. पहलाज निहलानी खुद को जिस प्रधानमंत्री मोदी का चमचा बताने में गर्व महसूस कर रहे हैं, अगर एक बार वो अस्सी का तीर्थ भी कर लेते तो ज्यादा सुकून मिलता.

दुख की बात ये है कि अब पहलाज निहलानी को अस्सी की कई चीजों से महरूम होना पड़ेगा, अगर वो पहले कभी अस्सी नहीं गये तो. अगर गये भी और वो मौका होली का नहीं रहा, तब भी.

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अस्सी की होली - अब इतिहास का हिस्सा है. एक दौर रहा जब मंच से चकाकच बनारसी गालियों की बौछार करते तो लोगों के मुंह से दो ही फ्रेज निकलते रहे. एक 'हर हर महादेव...' और दूसरा 'चकाचकवा भो***'

गालियों की ताबड़तोड़ फायरिंग और मस्ती का वो आलम घंटों चलता. बावजूद इसके, शायद ही कभी लॉ एंड ऑर्डर की प्रॉब्लम हुई हो. पहलाज निहलानी वेरीफाई करा सकते हैं.

बेहतर तो ये होता कि पहलाज निहलानी एक बार काशी का अस्सी पढ़ लेते और कुछ दिन बनारस में गुजार कर देख लेते. मेरा दावा है उन्हें भी गालियों से प्यार हो जाएगा - और किसी दिन वो खुद बोलेंगे - 'फलनवा... भो***...'

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